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भागवत द्वादश स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

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भागवत अष्टम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

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भागवत अष्टम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)।यहाँ पर भागवत अष्टम स्कन्ध,प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)के सभी श्लोकों का क्रम से हिन्दी अनुवाद दिया है।

 

भागवत अष्टम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
यह चित्र गजेंद्र मोक्ष की कहानी को दर्शाता है, जिसमें भगवान विष्णु गजेंद्र को ग्राह से बचाने के लिए गरुड़ पर सवार होकर आते हैं। चित्र में गजेंद्र अपनी सूंड में कमल का फूल लेकर भगवान को अर्पित करता हुआ दिख रहा है। आसपास का वातावरण दिव्य और शांत है।


भागवत अष्टम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

यहाँ पर भागवत अष्टम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों का क्रम से हिन्दी अनुवाद दिया गया है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कंध, मन्वंतरानुचरितम् (प्रथम अध्याय)

श्रीराजोवाच (राजा परीक्षित का प्रश्न)

श्लोक 1

स्वायम्भुवस्येह गुरो वंशोऽयं विस्तराच्छ्रुतः।
यत्र विश्वसृजां सर्गो मनूनन्यान्वदस्व नः॥
अनुवाद:
"हे गुरुदेव! हमने स्वायम्भुव मनु के वंश का विस्तारपूर्वक वर्णन सुना। अब कृपया अन्य मनुओं और उनकी सृष्टियों के बारे में हमें बताइए।"


श्लोक 2

मन्वन्तरे हरेर्जन्म कर्माणि च महीयसः।
गृणन्ति कवयो ब्रह्मंस्तानि नो वद शृण्वताम्॥
अनुवाद:
"हे ब्रह्मन्! महापुरुष कविगण हरि के जन्म और उनके महान कर्मों का वर्णन करते हैं। कृपया हमें भी वे कथाएँ सुनाएँ।"


श्लोक 3

यद्यस्मिन्नन्तरे ब्रह्मन्भगवान्विश्वभावनः।
कृतवान्कुरुते कर्ता ह्यतीतेऽनागतेऽद्य वा॥
अनुवाद:
"हे ब्रह्मन्! जो भगवान, विश्व के स्रष्टा और पालनकर्ता हैं, उन्होंने इस मन्वंतर में, अतीत में, वर्तमान में, और भविष्य में क्या किया और करेंगे?"


ऋषिरुवाच (श्री शुकदेव जी का उत्तर)

श्लोक 4

मनवोऽस्मिन्व्यतीताः षट्कल्पे स्वायम्भुवादयः।
आद्यस्ते कथितो यत्र देवादीनां च सम्भवः॥
अनुवाद:
"अब तक के छः कल्पों में स्वायम्भुव आदि मनुओं का वर्णन किया जा चुका है, जिसमें देवताओं आदि का उत्पत्ति वर्णित है।"


श्लोक 5

आकूत्यां देवहूत्यां च दुहित्रोस्तस्य वै मनोः।
धर्मज्ञानोपदेशार्थं भगवान्पुत्रतां गतः॥
अनुवाद:
"मनु की दो पुत्रियाँ आकूति और देवहूति थीं। भगवान ने धर्म और ज्ञान का उपदेश देने के लिए इन दोनों से जन्म लिया।"


श्लोक 6

कृतं पुरा भगवतः कपिलस्यानुवर्णितम्।
आख्यास्ये भगवान्यज्ञो यच्चकार कुरूद्वह॥
अनुवाद:
"भगवान कपिल का वर्णन पहले ही किया गया है। अब मैं भगवान यज्ञ की कथा का वर्णन करूँगा।"


श्लोक 7

विरक्तः कामभोगेषु शतरूपापतिः प्रभुः।
विसृज्य राज्यं तपसे सभार्यो वनमाविशत्॥
अनुवाद:
"शतरूपा के पति (स्वायम्भुव मनु) ने भोग और राज्य का त्याग करके अपनी पत्नी के साथ तपस्या के लिए वन गमन किया।"


श्लोक 8

सुनन्दायां वर्षशतं पदैकेन भुवं स्पृशन्।
तप्यमानस्तपो घोरमिदमन्वाह भारत॥
अनुवाद:
"उन्होंने वन में सौ वर्षों तक एक पैर पर खड़े होकर तपस्या की। उस समय उन्होंने इस प्रकार प्रार्थना की।"


स्वायम्भुव मनु की प्रार्थना (मनुरुवाच)

श्लोक 9

येन चेतयते विश्वं विश्वं चेतयते न यम्।
यो जागर्ति शयानेऽस्मिन्नायं तं वेद वेद सः॥
अनुवाद:
"जो इस संसार को चेतना देता है, लेकिन स्वयं अप्रभावित रहता है, जो सबके सोने पर जाग्रत रहता है, केवल वही उसे जान सकता है।"


श्लोक 10

आत्मावास्यमिदं विश्वं यत्किञ्चिज्जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्॥
अनुवाद:
"यह समस्त संसार आत्मा से आवरित है। इसलिए जो त्याग के योग्य है उसे त्यागकर ही इसका उपभोग करना चाहिए। किसी के धन पर लालच मत करो।"


श्लोक 11

यं पश्यति न पश्यन्तं चक्षुर्यस्य न रिष्यति।
तं भूतनिलयं देवं सुपर्णमुपधावत॥
अनुवाद:
"जो सबको देखता है लेकिन स्वयं नहीं देखा जा सकता और जिसका नेत्र कभी अशुद्ध नहीं होता, उस भूतों के निवास भगवान की शरण में जाओ।"


श्लोक 12

न यस्याद्यन्तौ मध्यं च स्वः परो नान्तरं बहिः।
विश्वस्यामूनि यद्यस्माद्विश्वं च तदृतं महत्॥
अनुवाद:
"जिनका न कोई आदि है, न अंत, न मध्य, और न ही कोई सीमा, जो समस्त विश्व के स्रोत और सत्यस्वरूप हैं, वे महान भगवान हैं।"


श्लोक 13

स विश्वकायः पुरुहूत ईशः।
सत्यः स्वयंज्योतिरजः पुराणः।
धत्तेऽस्य जन्माद्यजयात्मशक्त्या।
तां विद्ययोदस्य निरीह आस्ते॥
अनुवाद:
"भगवान, जिनका शरीर विश्वरूपी है, सत्यस्वरूप, स्वप्रकाशित, अजन्मा और पुराण पुरुष हैं। वे अपनी आत्मशक्ति से इस सृष्टि का निर्माण करते हैं और फिर उदासीन रहते हैं।"


श्लोक 14

अथाग्रे ऋषयः कर्माणीहन्तेऽकर्महेतवे।
ईहमानो हि पुरुषः प्रायोऽनीहां प्रपद्यते॥
अनुवाद:
"प्रारंभ में ऋषियों ने कर्म किए, लेकिन वह अकर्म की प्राप्ति के लिए थे। मनुष्य भी कर्म करता है, लेकिन अंततः उसे निष्कर्म की ओर बढ़ना चाहिए।"


श्लोक 15

ईहते भगवानीशो न हि तत्र विसज्जते।
आत्मलाभेन पूर्णार्थो नावसीदन्ति येऽनु तम्॥
अनुवाद:
"भगवान कर्म करते हैं लेकिन उनसे बंधते नहीं हैं। वे आत्मा से पूर्ण हैं, और जो उनके मार्ग पर चलते हैं, वे कभी पतित नहीं होते।"


श्लोक 16

तमीहमानं निरहङ्कृतं बुधं।
निराशिषं पूर्णमनन्यचोदितम्।
नॄन्शिक्षयन्तं निजवर्त्मसंस्थितं।
प्रभुं प्रपद्येऽखिलधर्मभावनम्॥
अनुवाद:
"मैं उन भगवान को प्रणाम करता हूँ, जो बिना अहंकार और इच्छाओं के पूर्ण हैं। वे अपने मार्ग पर स्थिर रहते हुए अन्य लोगों को धर्म का मार्ग सिखाते हैं।"


श्रीशुक उवाच (श्री शुकदेव जी का वर्णन)

श्लोक 17

इति मन्त्रोपनिषदं व्याहरन्तं समाहितम्।
दृष्ट्वासुरा यातुधाना जग्धुमभ्यद्रवन्क्षुधा॥
अनुवाद:
"जब मनु एकाग्र होकर इस मंत्र का उच्चारण कर रहे थे, तब भूखे असुर और राक्षस उन्हें मारने के लिए दौड़े।"


श्लोक 18

तांस्तथावसितान्वीक्ष्य यज्ञः सर्वगतो हरिः।
यामैः परिवृतो देवैर्हत्वाशासत्त्रिविष्टपम्॥
अनुवाद:
"यज्ञस्वरूप भगवान हरि ने देवताओं के साथ मिलकर उन असुरों का वध किया और उन्हें स्वर्गलोक में स्थान दिलाया।"


स्वारोचिष मन्वंतर का वर्णन

श्लोक 19

स्वारोचिषो द्वितीयस्तु मनुरग्नेः सुतोऽभवत्।
द्युमत्सुषेणरोचिष्मत्प्रमुखास्तस्य चात्मजाः॥
अनुवाद:
"दूसरा मन्वंतर स्वारोचिष था, जिसमें अग्नि के पुत्र स्वारोचिष मनु हुए। उनके पुत्रों में प्रमुख थे द्युमत, सुषेण, और रोचिष्मत।"


श्लोक 20

तत्रेन्द्रो रोचनस्त्वासीद्देवाश्च तुषितादयः।
ऊर्जस्तम्भादयः सप्त ऋषयो ब्रह्मवादिनः॥
अनुवाद:
"उस समय के इंद्र रोचन थे, देवता तुषित आदि थे, और सप्तर्षि ऊर्ज, स्तम्भ आदि ब्रह्मज्ञान में निपुण थे।"


श्लोक 21

ऋषेस्तु वेदशिरसस्तुषिता नाम पत्न्यभूत्।
तस्यां जज्ञे ततो देवो विभुरित्यभिविश्रुतः॥
अनुवाद:
"वेदशिरा ऋषि की पत्नी तुषिता थीं। उनसे देवता विभु का जन्म हुआ, जो बहुत प्रसिद्ध हुए।"


श्लोक 22

अष्टाशीतिसहस्राणि मुनयो ये धृतव्रताः।
अन्वशिक्षन्व्रतं तस्य कौमारब्रह्मचारिणः॥
अनुवाद:
"उन विभु भगवान ने 80,000 मुनियों को बाल्यावस्था में ब्रह्मचर्य और धर्म का मार्ग सिखाया।"


तृतीय मन्वंतर का वर्णन

श्लोक 23

तृतीय उत्तमो नाम प्रियव्रतसुतो मनुः।
पवनः सृञ्जयो यज्ञ होत्राद्यास्तत्सुता नृप॥
अनुवाद:
"तीसरे मन्वंतर में प्रियव्रत के पुत्र उत्तम मनु हुए। उनके पुत्र पवन, सृञ्जय, यज्ञ, और होत्र थे।"


श्लोक 24

वसिष्ठतनयाः सप्त ऋषयः प्रमदादयः।
सत्या वेदश्रुता भद्रा देवा इन्द्रस्तु सत्यजित्॥
अनुवाद:
"उस समय वसिष्ठ के पुत्र प्रमद आदि सप्तर्षि थे। देवता सत्य, वेदश्रुता, और भद्र थे, और इंद्र सत्यजित थे।"


श्लोक 25

धर्मस्य सूनृतायां तु भगवान्पुरुषोत्तमः।
सत्यसेन इति ख्यातो जातः सत्यव्रतैः सह॥
अनुवाद:
"उस समय धर्म और सूनृता से भगवान पुरुषोत्तम सत्यसेन के रूप में प्रकट हुए और सत्यव्रत ऋषियों के साथ धर्म का पालन किया।"


श्लोक 26

सोऽनृतव्रतदुःशीलानसतो यक्षराक्षसान्।
भूतद्रुहो भूतगणांश्चावधीत्सत्यजित्सखः॥
अनुवाद:
"सत्यसेन, सत्यजित इंद्र के साथ, अनैतिक, यक्ष, राक्षस, और प्राणियों के दुश्मनों का नाश किया।"


श्लोक 27

चतुर्थ उत्तमभ्राता मनुर्नाम्ना च तामसः।
पृथुः ख्यातिर्नरः केतुरित्याद्या दश तत्सुताः॥
अनुवाद:
"चौथे मन्वंतर में उत्तम के भाई तामस मनु हुए। उनके दस पुत्र थे—पृथु, ख्याति, नर, और केतु आदि।"


श्लोक 28

सत्यका हरयो वीरा देवास्त्रिशिख ईश्वरः।
ज्योतिर्धामादयः सप्त ऋषयस्तामसेऽन्तरे॥
अनुवाद:
"तामस मन्वंतर में सत्यक, हरय, और अन्य वीर देवता थे। इंद्र का नाम त्रिशिख था, और सप्तर्षि ज्योतिर्धाम आदि थे।"


श्लोक 29

देवा वैधृतयो नाम विधृतेस्तनया नृप।
नष्टाः कालेन यैर्वेदा विधृताः स्वेन तेजसा॥
अनुवाद:
"इस मन्वंतर में वैधृत नामक देवता, जो विधृति के पुत्र थे, उत्पन्न हुए। उन्होंने अपनी शक्ति से खोए हुए वेदों को पुनः प्रकट किया।"


श्लोक 30

तत्रापि जज्ञे भगवान्हरिण्यां हरिमेधसः।
हरिरित्याहृतो येन गजेन्द्रो मोचितो ग्रहात्॥
अनुवाद:
"इस मन्वंतर में हरिणी और हरिमेध से भगवान हरि प्रकट हुए। वही भगवान गजेंद्र को ग्राह के बंधन से मुक्त करने के लिए प्रसिद्ध हैं।"


श्रीराजोवाच (राजा परीक्षित का प्रश्न)

श्लोक 31

बादरायण एतत्ते श्रोतुमिच्छामहे वयम्।
हरिर्यथा गजपतिं ग्राहग्रस्तममूमुचत्॥
अनुवाद:
"हे बादरायण (शुकदेव जी)! हम यह सुनना चाहते हैं कि भगवान हरि ने गजेंद्र को जब वह ग्राह के द्वारा पकड़ा गया था, तब कैसे बचाया।"


श्लोक 32

तत्कथासु महत्पुण्यं धन्यं स्वस्त्ययनं शुभम्।
यत्र यत्रोत्तमश्लोको भगवान्गीयते हरिः॥
अनुवाद:
"यह कथा अत्यंत पुण्यदायक, धन्य, मंगलकारी, और कल्याणप्रद है। जहाँ-जहाँ भगवान हरि का महिमामय नाम लिया जाता है, वहाँ शुभता बढ़ती है।"


श्रीशुक उवाच (श्री शुकदेव जी का उत्तर)

श्लोक 33

परीक्षितैवं स तु बादरायणिः।
प्रायोपविष्टेन कथासु चोदितः।
उवाच विप्राः प्रतिनन्द्य पार्थिवं।
मुदा मुनीनां सदसि स्म शृण्वताम्॥
अनुवाद:
"इस प्रकार राजा परीक्षित द्वारा प्रेरित होकर बादरायण (श्री शुकदेव जी) ने प्रसन्नता से इस कथा को कहना प्रारंभ किया। मुनियों की सभा में सबने प्रसन्न होकर इसे सुना।"


इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे मन्वन्तरानुचरिते प्रथमोऽध्यायः॥

"इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के अष्टम स्कंध में मन्वंतर चरित्र का प्रथम अध्याय समाप्त होता है।"


भागवत अष्टम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) यहाँ दिया गया। यदि भागवत अष्टम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के किसी श्लोक की विशिष्ट व्याख्या चाहते हैं तो कमेंट में बताएँ।

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