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भागवत द्वादश स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

Here is the image depicting the sages and kings from the Bhagavata Purana, capturing the serene and divine atmosphere of King Parikshit list...

भागवत नवम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

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भागवत नवम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)।यहाँ पर पभागवत नवम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों का हिन्दी अनुवाद क्रमशः दिया गयाहै

 

भागवत नवम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
यह चित्र श्रीमद्भागवत के राजा सुद्युम्न की कथा को दर्शाता है, जिसमें उनके स्त्री और पुरुष रूप के बीच परिवर्तन को भगवान शिव के आशीर्वाद से दिखाया गया है। चित्र में जादुई वन की पृष्ठभूमि और दिव्य प्रकाश की किरणें इस घटना को और अधिक प्रभावशाली बनाती हैं।


भागवत नवम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

यहाँ पर पभागवत नवम स्कन्ध, प्रथम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों का हिन्दी अनुवाद क्रमशः दिया गया है। 

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कंध, प्रथम अध्याय का हिन्दी अनुवाद


श्रीराजोवाच (राजा परीक्षित का प्रश्न)

श्लोक 1

मन्वन्तराणि सर्वाणि त्वयोक्तानि श्रुतानि मे।
वीर्याणि अनन्तवीर्यस्य हरेस्तत्र कृतानि च॥
अनुवाद:
"आपने अब तक सभी मन्वंतरों का वर्णन किया है, और मैंने भगवान हरि की अनंत वीरता की कथाएँ सुनी हैं।"


श्लोक 2

योऽसौ सत्यव्रतो नाम राजर्षिः द्रविडेश्वरः।
ज्ञानं योऽतीतकल्पान्ते लेभे पुरुषसेवया॥
अनुवाद:
"जो सत्यव्रत नामक राजर्षि थे, जिन्हें पूर्वकल्प के अंत में पुरुष भगवान की सेवा से ज्ञान प्राप्त हुआ।"


श्लोक 3

स वै विवस्वतः पुत्रो मनुः आसीद् इति श्रुतम्।
त्वत्तस्तस्य सुताः प्रोक्ता इक्ष्वाकुप्रमुखा नृपाः॥
अनुवाद:
"वही सत्यव्रत विवस्वान के पुत्र वैवस्वत मनु बने। उनके पुत्र इक्ष्वाकु आदि राजाओं का आपसे वर्णन सुना है।"


श्लोक 4

तेषां वंशं पृथग्ब्रह्मन् वंशानुचरितानि च।
कीर्तयस्व महाभाग नित्यं शुश्रूषतां हि नः॥
अनुवाद:
"हे ब्रह्मन्! उनके वंश और उनके वंशजों के चरित्र का वर्णन कीजिए। हम यह कथा सुनने के लिए सदा तत्पर हैं।"


श्लोक 5

ये भूता ये भविष्याश्च भवन्ति अद्यतनाश्च ये।
तेषां नः पुण्यकीर्तीनां सर्वेषां वद विक्रमान्॥
अनुवाद:
"जो लोग पहले हुए हैं, जो भविष्य में होंगे, और जो वर्तमान में हैं, उनके पुण्य और कीर्तिमय कार्यों का वर्णन कीजिए।"


सूत उवाच (सूतजी का वर्णन)

श्लोक 6

एवं परीक्षिता राज्ञा सदसि ब्रह्मवादिनाम्।
पृष्टः प्रोवाच भगवान् शुकः परमधर्मवित्॥
अनुवाद:
"राजा परीक्षित द्वारा इस प्रकार प्रश्न पूछने पर, ब्रह्मविद्या के आचार्य और परम धर्मज्ञ भगवान शुकदेवजी ने सभा में उत्तर दिया।"


श्रीशुक उवाच (श्री शुकदेवजी का उत्तर)

श्लोक 7

श्रूयतां मानवो वंशः प्राचुर्येण परंतप।
न शक्यते विस्तरतो वक्तुं वर्षशतैरपि॥
अनुवाद:
"हे परंतप! मनु के वंश का संक्षेप में वर्णन सुनिए। इसका विस्तार से वर्णन करना सौ वर्षों में भी संभव नहीं है।"


श्लोक 8

परावरेषां भूतानां आत्मा यः पुरुषः परः।
स एवासीद् इदं विश्वं कल्पान्ते अन्यत् न किञ्चन॥
अनुवाद:
"सभी जीवों के परमात्मा, जो परब्रह्म पुरुष हैं, वही कल्प के अंत में अकेले विद्यमान थे। उस समय अन्य कुछ भी नहीं था।"


श्लोक 9

तस्य नाभेः समभवत् पद्मकोषो हिरण्मयः।
तस्मिन् जज्ञे महाराज स्वयंभूः चतुराननः॥
अनुवाद:
"उन परम पुरुष की नाभि से एक स्वर्णिम कमल प्रकट हुआ। उसी से चतुर्मुख ब्रह्मा उत्पन्न हुए।"


श्लोक 10

मरीचिः मनसस्तस्य जज्ञे तस्यापि कश्यपः।
दाक्षायण्यां ततोऽदित्यां विवस्वान् अभवत् सुतः॥
अनुवाद:
"ब्रह्मा के मन से मरीचि उत्पन्न हुए। मरीचि से कश्यप और कश्यप से दाक्षायणी अदिति के गर्भ से विवस्वान (सूर्य) उत्पन्न हुए।"


श्लोक 11

ततो मनुः श्राद्धदेवः संज्ञायामास भारत।
श्रद्धायां जनयामास दश पुत्रान् स आत्मवान्॥
अनुवाद:
"फिर विवस्वान के पुत्र वैवस्वत मनु हुए। उन्होंने श्रद्धा नामक पत्नी से दस पुत्र उत्पन्न किए।"


श्लोक 12

इक्ष्वाकुनृगशर्याति दिष्टधृष्ट करूषकान्।
नरिष्यन्तं पृषध्रं च नभगं च कविं विभुः॥
अनुवाद:
"उनके दस पुत्र थे: इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करूष, नरिष्यंत, पृषध्र, नभग, और कवि।"


श्लोक 13

अप्रजस्य मनोः पूर्वं वसिष्ठो भगवान् किल।
मित्रावरुणयोः इष्टिं प्रजार्थं अकरोद् विभुः॥
अनुवाद:
"जब मनु की कोई संतान नहीं हुई, तब वसिष्ठ मुनि ने मित्र और वरुण की यज्ञ में आहुतियाँ दीं।"


श्लोक 14

तत्र श्रद्धा मनोः पत्‍नी होतारं समयाचत।
दुहित्रर्थं उपागम्य प्रणिपत्य पयोव्रता॥
अनुवाद:
"उस यज्ञ के समय मनु की पत्नी श्रद्धा पुत्री की इच्छा से यज्ञकर्ता के पास गईं और प्रार्थना की, क्योंकि वे व्रत का पालन कर रही थीं।"


श्लोक 15

प्रेषितोऽध्वर्युणा होता ध्यायन् तत् सुसमाहितः।
हविषि व्यचरत् तेन वषट्कारं गृणन् द्विजः॥
अनुवाद:
"अध्वर्यु (यज्ञकर्ता) द्वारा प्रेरित होता (ऋत्विक) ध्यान में लीन होकर, यज्ञ की आहुति के साथ 'वषट्कार' मंत्र का उच्चारण कर रहा था।"


श्लोक 16

होतुस्तद् व्यभिचारेण कन्येला नाम साभवत्।
तां विलोक्य मनुः प्राह नाति हृष्टमना गुरुम्॥
अनुवाद:
"होता के इस अनियमित आचरण के कारण 'इल' नामक एक कन्या उत्पन्न हुई। उसे देखकर मनु अत्यंत प्रसन्न नहीं हुए और अपने गुरु से प्रश्न किया।"


श्लोक 17

भगवन् किमिदं जातं कर्म वो ब्रह्मवादिनाम्।
विपर्ययं अहो कष्टं मैवं स्याद् ब्रह्मविक्रिया॥
अनुवाद:
"हे भगवन! ब्रह्मज्ञानियों के इस यज्ञ से ऐसा परिणाम क्यों आया? यह विपरीत घटना क्यों हुई? ऐसा कर्म ब्रह्मा के कार्यों में नहीं होना चाहिए।"


श्लोक 18

यूयं मंत्रविदो युक्ताः तपसा दग्धकिल्बिषाः।
कुतः संकल्पवैषम्यं अनृतं विबुधेष्विव॥
अनुवाद:
"आप लोग मंत्रों के ज्ञाता और तप के प्रभाव से पापरहित हैं। फिर आपके संकल्प में यह दोष और असत्य कैसे आ गया?"


श्लोक 19

निशम्य तद्वचः तस्य भगवान् प्रपितामहः।
होतुर्व्यतिक्रमं ज्ञात्वा बभाषे रविनन्दनम्॥
अनुवाद:
"मनु की बात सुनकर प्रपितामह ब्रह्माजी ने होता के दोष को समझते हुए विवस्वान के पुत्र मनु से उत्तर दिया।"


श्लोक 20

एतत् संकल्पवैषम्यं होतुस्ते व्यभिचारतः।
तथापि साधयिष्ये ते सुप्रजास्त्वं स्वतेजसा॥
अनुवाद:
"यह दोष होता के आचरण में त्रुटि के कारण हुआ है। फिर भी, मैं अपने तेज से तुम्हारी सुप्रजा की इच्छा पूर्ण करूंगा।"


श्लोक 21

एवं व्यवसितो राजन् भगवान् स महायशाः।
अस्तौषीद् आदिपुरुषं इलायाः पुंस्त्वकाम्यया॥
अनुवाद:
"हे राजन! महायशस्वी मनु ने इल को पुरुषत्व प्राप्त कराने के लिए आदिपुरुष भगवान की स्तुति की।"


श्लोक 22

तस्मै कामवरं तुष्टो भगवान् हरिरीश्वरः।
ददौ इविलाभवत् तेन सुद्युम्नः पुरुषर्षभः॥
अनुवाद:
"भगवान हरि ने प्रसन्न होकर उन्हें इच्छित वरदान दिया, जिससे इल को पुरुषत्व प्राप्त हुआ और वह सुद्युम्न नामक पुरुष बन गए।"


श्लोक 23

स एकदा महाराज विचरन् मृगयां वने।
वृतः कतिपयामात्यैः अश्वं आरुह्य सैन्धवम्॥
अनुवाद:
"एक दिन, सुद्युम्न अपने कुछ मंत्रियों के साथ सैन्धव घोड़े पर सवार होकर वन में शिकार खेलने गए।"


श्लोक 24

प्रगृह्य रुचिरं चापं शरांश्च परमाद्‍भुतान्।
दंशितोऽनुमृगं वीरो जगाम दिशमुत्तराम्॥
अनुवाद:
"धनुष और अद्भुत बाणों को लेकर, शिकार के पीछे जाने वाले वीर सुद्युम्न उत्तर दिशा की ओर बढ़े।"


श्लोक 25

सुकुमातो वनं मेरोः अधस्तात् प्रविवेश ह।
यत्रास्ते भगवान् शर्वो रममाणः सहोमया॥
अनुवाद:
"वे मेरु पर्वत के नीचे सुकुमार नामक वन में पहुँचे, जहाँ भगवान शंकर अपनी पत्नी पार्वती के साथ विहार कर रहे थे।"


श्लोक 26

तस्मिन् प्रविष्ट एवासौ सुद्युम्नः परवीरहा।
अपश्यत् स्त्रियमात्मानं अश्वं च वडवां नृप॥
अनुवाद:
"जैसे ही सुद्युम्न ने उस वन में प्रवेश किया, उन्होंने देखा कि वे स्वयं स्त्री में परिवर्तित हो गए हैं और उनका घोड़ा भी एक मादा घोड़ी बन गया है।"


श्लोक 27

तथा तदनुगाः सर्वे आत्मलिङ्‌ग विपर्ययम्।
दृष्ट्वा विमनसोऽभूवन् वीक्षमाणाः परस्परम्॥
अनुवाद:
"उनके साथ आए सभी लोगों ने भी अपने लक्षणों का परिवर्तन देखा। वे स्त्री में बदल गए और इस घटना से अत्यंत उदास हो गए, परस्पर एक-दूसरे को देखते रहे।"


श्लोक 28

राजोवाच
कथं एवं गुणो देशः केन वा भगवन् कृतः।
प्रश्नमेनं समाचक्ष्व परं कौतूहलं हि नः॥
अनुवाद:
"राजा परीक्षित ने पूछा: इस स्थान की यह विशेषता कैसे हुई और इसे किसने बनाया? हे भगवन, कृपया इस प्रश्न का उत्तर दें, क्योंकि यह हमें बहुत उत्सुक करता है।"


श्लोक 29

श्रीशुक उवाच
एकदा गिरिशं द्रष्टुं ऋषयस्तत्र सुव्रताः।
दिशो वितिमिराभासाः कुर्वन्तः समुपागमन्॥
अनुवाद:
"श्री शुकदेव जी ने कहा: एक बार कुछ महान तपस्वी ऋषि भगवान शंकर के दर्शन करने के लिए वहाँ पहुँचे। उनके तेज से दिशाएँ प्रकाशमय हो उठीं।"


श्लोक 30

तान् विलोक्य अंबिका देवी विवासा व्रीडिता भृशम्।
भर्तुरङ्‌गात समुत्थाय नीवीमाश्वथ पर्यधात्॥
अनुवाद:
"ऋषियों को देखकर देवी पार्वती अत्यंत लज्जित हो गईं और भगवान शंकर के पास से उठकर अश्वत्थ के पत्तों से अपने वस्त्रों को ठीक किया।"


श्लोक 31

ऋषयोऽपि तयोर्वीक्ष्य प्रसङ्गं रममाणयोः।
निवृत्ताः प्रययुस्तस्मात् नरनारायणाश्रमम्॥
अनुवाद:
"ऋषियों ने भगवान शंकर और पार्वती को रमण करते हुए देखा। वे वहाँ से हटकर नर-नारायण आश्रम की ओर चले गए।"


श्लोक 32

तदिदं भगवान् आह प्रियायाः प्रियकाम्यया।
स्थानं यः प्रविशेदेतत् स वै योषिद् भवेदिति॥
अनुवाद:
"भगवान शंकर ने अपनी प्रिय पत्नी के प्रेमवश यह वरदान दिया कि जो भी इस स्थान में प्रवेश करेगा, वह स्त्री में परिवर्तित हो जाएगा।"


श्लोक 33

तत ऊर्ध्वं वनं तद्वै पुरुषा वर्जयन्ति हि।
सा चानुचरसंयुक्ता विचचार वनाद् वनम्॥
अनुवाद:
"इसके बाद से पुरुष उस वन में प्रवेश करने से बचने लगे। और वह (सुद्युम्न, स्त्री के रूप में) अपने साथियों के साथ वन-वन घूमने लगीं।"


श्लोक 34

अथ तां आश्रमाभ्याशे चरन्तीं प्रमदोत्तमाम्।
स्त्रीभिः परिवृतां वीक्ष्य चकमे भगवान् बुधः॥
अनुवाद:
"एक दिन बुध (चंद्रदेव के पुत्र) ने उन्हें (सुद्युम्न, स्त्री रूप में) अपने आश्रम के निकट विचरण करते देखा और उनके सौंदर्य पर मोहित हो गए।"


श्लोक 35

सापि तं चकमे सुभ्रूः सोमराजसुतं पतिम्।
स तस्यां जनयामास पुरूरवसमात्मजम्॥
अनुवाद:
"सुद्युम्न, जो स्त्री के रूप में थीं, उन्होंने भी सोमपुत्र बुध को पति के रूप में स्वीकार किया। उनसे पुरूरव नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।"


श्लोक 36

एवं स्त्रीत्वं अनुप्राप्तः सुद्युम्नो मानवो नृपः।
सस्मार स कुलाचार्यं वसिष्ठमिति शुश्रुम॥
अनुवाद:
"इस प्रकार सुद्युम्न, जो मानव थे, स्त्रीत्व को प्राप्त हो गए। तब उन्होंने अपने कुलाचार्य वसिष्ठ मुनि को याद किया।"


श्लोक 37

स तस्य तां दशां दृष्ट्वा कृपया भृशपीडितः।
सुद्युम्नस्याशयन् पुंस्त्वं उपाधावत शंकरम्॥
अनुवाद:
"वसिष्ठ मुनि ने उनकी स्थिति देखकर करुणा की। वे भगवान शंकर के पास गए और सुद्युम्न के लिए पुरुषत्व वापस करने का अनुरोध किया।"


श्लोक 38

तुष्टस्तस्मै स भगवान् ऋषये प्रियमावहन्।
स्वां च वाचं ऋतां कुर्वन् इदमाह विशाम्पते॥
अनुवाद:
"भगवान शंकर वसिष्ठ मुनि से प्रसन्न हुए। उनकी इच्छा पूरी करते हुए उन्होंने इस प्रकार कहा।"


श्लोक 39

मासं पुमान् स भविता मासं स्त्री तव गोत्रजः।
इत्थं व्यवस्थया कामं सुद्युम्नोऽवतु मेदिनीम्॥
अनुवाद:
"सुद्युम्न एक माह पुरुष और एक माह स्त्री रहेंगे। इस व्यवस्था के अनुसार वे पृथ्वी का शासन कर सकते हैं।"


श्लोक 40

आचार्यानुग्रहात् कामं लब्ध्वा पुंस्त्वं व्यवस्थया।
पालायामास जगतीं नाभ्यनन्दन् स्म तं प्रजाः॥
अनुवाद:
"अपने आचार्य (वसिष्ठ) की कृपा से सुद्युम्न ने व्यवस्था अनुसार पुरुषत्व प्राप्त किया और पृथ्वी पर शासन किया। लेकिन उनकी प्रजा उन्हें स्वीकार नहीं कर पाई।"


श्लोक 41

तस्योत्कलो गयो राजन् विमलश्च सुतास्त्रयः।
दक्षिणापथराजानो बभूवुः धर्मवत्सलाः॥
अनुवाद:
"हे राजन! सुद्युम्न के तीन पुत्र थे—उत्कल, गय, और विमल। ये तीनों धर्मपरायण और दक्षिणापथ (दक्षिण भारत) के राजा बने।"


श्लोक 42

ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥
अनुवाद:
"कालांतर में, प्रतिष्ठान के राजा (सुद्युम्न) ने अपना राज्य अपने पुत्र पुरूरव को सौंप दिया और स्वयं वन में तपस्या के लिए चले गए।"


इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे प्रथमोध्यायः॥

"इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के नवम स्कंध का प्रथम अध्याय समाप्त होता है।"


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