भागवत माहात्म्य पद्म पुराण तृतीय अध्याय( प्रत्येक श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित),सनकादि के मुख से श्रीमद्भागवत के श्रवण से भक्ति की तुष्टि, ज्ञान और वैराग्
यहाँ सनकादि ऋषियों के श्रीमद्भागवत कथा के वर्णन का एक दिव्य चित्र प्रस्तुत है, जिसमें भक्ति देवी को ज्ञान और वैराग्य के साथ दर्शाया गया है। चित्र की दिव्यता और वातावरण का आनंद लीजिए। |
भागवत माहात्म्य पद्म पुराण तृतीय अध्याय
श्लोक 1
ज्ञानयज्ञं करिष्यामि शुकशास्त्रकथोज्ज्वलम् ।
भक्तिर्ज्ञानविरागाणां स्थापनार्थं प्रयत्नतः ॥
अनुवाद:
"मैं शुकदेवजी की दिव्य कथा पर आधारित ज्ञानयज्ञ करूंगा, जो भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील होगा।"
श्लोक 2
कुत्र कार्यो मया यज्ञः स्थलं तद्वाच्यतामिह ।
महिमा शुकशास्त्रस्य वक्तव्यो वेदपारगैः ॥
अनुवाद:
"मुझे बताइए कि यह यज्ञ कहां किया जाए? और शुकदेवजी की कथा की महिमा को वेदों के ज्ञाता लोगों के माध्यम से प्रकट किया जाना चाहिए।"
श्लोक 3
कियद्भिः दिवसैः श्राव्या श्रीमद्भागवती कथा ।
को विधिः तत्र कर्तव्यो ममेदं ब्रुवतामितः ॥
अनुवाद:
"श्रीमद्भागवत की कथा कितने दिनों में सुनाई जा सकती है, और इसके लिए कौन-कौन से विधि-विधान किए जाने चाहिए, कृपया मुझे बताएं।"
श्लोक 4
श्रृणु नारद वक्ष्यामो विनम्राय विवेकिने ।
गंगाद्वारसमीपे तु तटं आनन्दनामकम् ॥
अनुवाद:
"हे नारद! सुनिए, हम आपको विनम्रता और विवेकपूर्वक बताते हैं। गंगाद्वार (हरिद्वार) के पास एक आनंद नामक तट है।"
श्लोक 5
नानाऋषिगणैर्जुष्टं देवसिद्धनिषेवनम् ।
नानातरुलताकीर्णं नवकोमलवालुकम् ॥
अनुवाद:
"यह स्थान विविध ऋषियों द्वारा पवित्र किया गया है, जहां देवता और सिद्धजन निवास करते हैं। यह तट वृक्षों और लताओं से सुशोभित है, और वहां की रेत नवकोमल है।"
श्लोक 6
रम्यं एकान्तदेशस्थं हेमपद्मसुसौरभम् ।
यत्समीपस्थजीवानां वैरं चेतसि न स्थितम् ॥
अनुवाद:
"यह रमणीय और एकांत स्थान है, जहां स्वर्णकमल की सुगंध फैली रहती है। इसके आसपास रहने वाले जीवों के हृदय में किसी प्रकार का वैरभाव नहीं होता।"
श्लोक 7
ज्ञानयज्ञस्त्वया तत्र कर्तव्यो हि अप्रयत्नतः ।
अपूर्वरसरूपा च कथा तत्र भविष्यति ॥
अनुवाद:
"आपको उस स्थान पर बिना किसी प्रयास के ज्ञानयज्ञ करना चाहिए। वहां श्रीमद्भागवत की अद्वितीय रसयुक्त कथा प्रकट होगी।"
श्लोक 8
पुरःस्थं निर्बलं चैव जराजीर्णकलेवरम् ।
तद्द्वयं च पुरस्कृत्य भक्तिस्तत्रागमिष्यति ॥
अनुवाद:
"उस कथा में दो चीजें उपस्थित रहेंगी: निर्बलता और जराजीर्ण शरीर। इन दोनों को देखकर भक्ति वहां प्रकट होगी।"
श्लोक 9
यत्र भागवती वार्ता तत्र भक्त्यादिकं व्रजेत् ।
कथाशब्दं समाकर्ण्य तत्त्रिकं तरुणायते ॥
अनुवाद:
"जहां श्रीमद्भागवत की वार्ता होती है, वहां भक्ति, ज्ञान और वैराग्य अवश्य जाते हैं। कथा के शब्द सुनते ही ये तीनों पुनः तरुण हो जाते हैं।"
श्लोक 10
एवमुक्त्वा कुमारास्ते नारदेन समं ततः ।
गंगातटं समाजग्मुः कथापानाय सत्वराः ॥
अनुवाद:
"ऐसा कहकर कुमार (सनकादि) नारदजी के साथ गंगातट पर भागवत कथा का रसास्वादन करने के लिए तुरंत चले गए।"
श्लोक 11
यदा यातास्तटं ते तु तदा कोलाहलोऽप्यभूत् ।
भूर्लोके देवलोके च ब्रह्मलोके तथैव च ॥
अनुवाद:
"जैसे ही वे गंगातट पर पहुंचे, चारों लोकों में (भूलोक, देवलोक, ब्रह्मलोक) एक बड़ा कोलाहल उत्पन्न हो गया।"
श्लोक 12
श्रीभागवतपीयूष पानाय रसलम्पटाः ।
धावन्तोऽप्याययुः सर्वे प्रथमं ये च वैष्णवाः ॥
अनुवाद:
"श्रीमद्भागवत के अमृतरस का पान करने के लिए रसिक वैष्णव सबसे पहले वहां दौड़कर पहुंचे।"
श्लोक 13
भृगुर्वसिष्ठश्च्यवनश्च गौतमो
मेधातिथिर्देवलदेवरातौ ।
रामस्तथा गाधिसुतश्च शाकलो
मृकण्डुपुत्रात्रिजपिप्पलादाः ॥
अनुवाद:
"भृगु, वसिष्ठ, च्यवन, गौतम, मेधातिथि, देवल, देवरात, परशुराम, विश्वामित्र, शाकल, मृकण्डु के पुत्र मार्कंडेय, अत्रि, और पिप्पलाद वहां आए।"
श्लोक 14
योगेश्वरौ व्यासपराशरौ च
छायाशुको जाजलिजह्नुमुख्याः ।
सर्वेऽप्यमी मुनिगणाः सहपुत्रशिष्याः
स्वस्त्रीभिराययुरतिप्रणयेन युक्ताः ॥
अनुवाद:
"योगेश्वर (कृष्ण) के भक्त, व्यास, पराशर, छायाशुक, जाजलि, जह्नु, और अन्य प्रमुख मुनिगण अपने पुत्रों, शिष्यों और पत्नियों सहित प्रेमपूर्वक वहां पहुंचे।"
श्लोक 15
वेदान्तानि च वेदाश्च मन्त्रास्तन्त्राः समूर्तयः ।
दशसप्तपुराणानि षट्शास्त्राणि तथाऽऽययुः ॥
अनुवाद:
"वेदांत, वेद, मंत्र, तंत्र, दसों और सत्रहों पुराण, और छहों शास्त्र भी वहां आए।"
श्लोक 16
गंगाद्या सरितस्तत्र पुष्करादिसरांसि च ।
क्षेत्राणि च दिशः सर्वा दण्डकादि वनानि च ॥
अनुवाद:
"गंगा और अन्य नदियां, पुष्कर और अन्य तीर्थस्थल, समस्त दिशाएं, और दंडकारण्य जैसे वन भी वहां उपस्थित हो गए।"
श्लोक 17
नगादयो ययुस्तत्र देवगन्धर्वदानवाः ।
गुरुत्वात्तत्र नायातान् भृगुः सम्बोध्य चानयत् ॥
अनुवाद:
"पर्वत, देवता, गंधर्व, और दानव भी वहां आए। जो वहां नहीं पहुंच सके, उन्हें भृगु ऋषि ने बुलाकर लाया।"
श्लोक 18
दीक्षिता नारदेनाथ दत्तं आसनमुत्तमम् ।
कुमारा वन्दिताः सर्वैः निषेदुः कृष्णतत्पराः ॥
अनुवाद:
"नारदजी ने वहां दीक्षा देकर उत्तम आसन प्रदान किया। कृष्णभक्ति में लीन कुमारों का सभी ने वंदन किया, और वे आसन पर बैठ गए।"
श्लोक 19
वैष्णवाश्च विरक्ताश्च न्यासिनो ब्रह्मचारिणः ।
मुखभागे स्थितास्ते च तदग्रे नारदः स्थितः ॥
अनुवाद:
"वैष्णव, विरक्त, सन्यासी, और ब्रह्मचारी मुख्य स्थान पर बैठे, और उनके सामने नारदजी प्रतिष्ठित हुए।"
श्लोक 20
एकभागे ऋषिगणाः तद् अन्यत्र दिवौकसः ।
वेदोपनिषदो अन्यत्र तीर्थान् यत्र स्त्रियोऽन्यतः ॥
अनुवाद:
"ऋषिगण एक ओर, देवता दूसरी ओर, वेद और उपनिषद अन्यत्र, तीर्थ स्थान और स्त्रियां दूसरी दिशा में स्थित हुईं।"
श्लोक 21
जयशब्दो नमःशब्दोः शंखशब्दस्तथैव च ।
चूर्णलाजा प्रसूनानां निक्षेपः सुमहान् अभूत् ॥
अनुवाद:
"जय-जयकार, नमः शब्द, और शंखध्वनि गूंज उठी। फूल, अक्षत, और चूर्णलाजाएं (धान्य) उत्सव में अर्पित की गईं।"
श्लोक 22
विमानानि समारुह्य कियन्तो देवनायकाः ।
कल्पवृक्ष प्रसूनैस्तान् सर्वान् तत्र समाकिरन् ॥
अनुवाद:
"देवताओं के प्रमुख अपने विमानों पर सवार होकर वहां आए और कल्पवृक्ष के पुष्पों से सभी को अलंकृत किया।"
श्लोक 23
एवं तेष्वकचित्तेषु श्रीमद्भागवस्य च ।
माहात्म्यं ऊचिरे स्पष्टं नारदाय महात्मने ॥
अनुवाद:
"इस प्रकार, जब सब एकाग्रचित्त होकर बैठे, तब श्रीमद्भागवत की महिमा स्पष्ट रूप से नारदजी को सुनाई गई।"
श्लोक 24
अथ ते वर्ण्यतेऽस्माभिः महिमा शुकशास्त्रजः ।
यस्य श्रवणमात्रेण मुक्तिः करतले स्थिता ॥
अनुवाद:
"अब हम आपको शुकदेवजी द्वारा रचित शास्त्र (भागवत) की महिमा बताएंगे, जिसे सुनते ही मुक्ति हाथों में आ जाती है।"
श्लोक 25
सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा ।
यस्याः श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत् ॥
अनुवाद:
"श्रीमद्भागवत कथा सदा सुनने योग्य है। इसका श्रवण करने से भगवान श्रीहरि का चित्त श्रोताओं पर स्थिर हो जाता है।"
श्लोक 26
ग्रन्थोऽष्टादशसाहस्त्रो द्वादशस्कन्धसम्मितः ।
परीक्षित् शुकसंवादः श्रृणु भागवतं च तत् ॥
अनुवाद:
"यह ग्रंथ अठारह हजार श्लोकों और बारह स्कंधों से युक्त है। इसमें परीक्षित और शुकदेवजी का संवाद है, जिसे भागवत कहते हैं।"
श्लोक 27
तात संसारचक्रेऽस्मिन् भ्रमतेऽज्ञानतः पुमान् ।
यावत् कर्णगता नास्ति शुकशास्त्रकथा क्षणम् ॥
अनुवाद:
"हे तात! जब तक श्रीमद्भागवत कथा व्यक्ति के कानों तक नहीं पहुंचती, तब तक वह अज्ञानवश संसार के चक्र में भटकता रहता है।"
श्लोक 28
किं श्रुतैबहुभिः शास्त्रैः पुराणैश्च भ्रमावहैः ।
एकं भागवतं शास्त्रं मुक्तिदानेन गर्जति ॥
अनुवाद:
"बहुत से शास्त्र और भ्रम उत्पन्न करने वाले पुराण पढ़ने का क्या लाभ? केवल भागवत शास्त्र ही मुक्ति देने में गर्जना करता है।"
श्लोक 29
कथा भागवतस्यापि नित्यं भवति यद्गृहे ।
तद्गृहं तीर्थरूपं हि वसतां पापनाशनम् ॥
अनुवाद:
"जिस घर में श्रीमद्भागवत कथा नित्य होती है, वह घर तीर्थ के समान हो जाता है, जहां निवास करने मात्र से पाप नष्ट हो जाते हैं।"
श्लोक 30
अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।
शुकशास्त्रकथायाश्च कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥
अनुवाद:
"हजारों अश्वमेध यज्ञ और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ भी श्रीमद्भागवत कथा के सोलहवें भाग के समान नहीं हैं।"
नीचे क्रमशः श्लोक 31 से 40 का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है:
श्लोक 31
तावत् पापानि देहेस्मिन् निवसन्ति तपोधनाः ।
यावत् न श्रूयते सम्यक् श्रीमद्भागवतं नरैः ॥
अनुवाद:
"जब तक मनुष्य श्रीमद्भागवत का सही तरीके से श्रवण नहीं करता, तब तक उसके शरीर में पाप निवास करते रहते हैं।"
श्लोक 32
न गंगा न गया काशी पुष्करं न प्रयागकम् ।
शुकशास्त्रकथायाश्च फलेन समतां नयेत् ॥
अनुवाद:
"गंगा, गया, काशी, पुष्कर या प्रयाग के फल भी श्रीमद्भागवत कथा के फल की समानता नहीं कर सकते।"
श्लोक 33
श्लोकार्धं श्लोकपादं वा नित्यं भागवतोद्भवम् ।
पठस्व स्वमुखेनैव यदीच्छसि परां गतिम् ॥
अनुवाद:
"यदि आप परमगति प्राप्त करना चाहते हैं, तो श्रीमद्भागवत का आधा श्लोक या केवल एक चौथाई श्लोक भी नित्य स्वयं पढ़ें।"
श्लोक 34
वेदादिः वेदमाता च पौरुषं सूक्तमेव च ।
त्रयी भागवतं चैव द्वादशाक्षर एव च ॥
अनुवाद:
"वेद, वेद माता, पुरुषसूक्त, त्रयी वेद और श्रीमद्भागवत सभी भगवान के बारह अक्षर (द्वादशाक्षर मंत्र) के रूप में प्रतिष्ठित हैं।"
श्लोक 35
द्वादशात्मा प्रयागश्च कालं संवत्सरात्मकः ।
ब्राह्मणाश्चाग्निहोत्रं च सुरभिर्द्वादशी तथा ॥
अनुवाद:
"द्वादशात्मा (श्रीकृष्ण) प्रयाग, काल, संवत्सर, ब्राह्मण, अग्निहोत्र, सुरभि गाय और द्वादशी व्रत के रूप में प्रकट होते हैं।"
श्लोक 36
तुलसी च वसन्तश्च पुरुषोत्तम एव च ।
एतेषां तत्त्वतः प्राज्ञैः न पृथ्ग्भाव इष्यते ॥
अनुवाद:
"तुलसी, वसंत ऋतु, और पुरुषोत्तम भी इन सबके रूप में हैं। ज्ञानी व्यक्ति इनमें कोई भेद नहीं मानते।"
श्लोक 37
यश्च भागवतं शास्त्रं वाचयेत् अर्थतोऽनिशम् ।
जन्मकोटिकृतं पापं नश्यते नात्र संशयः ॥
अनुवाद:
"जो व्यक्ति श्रीमद्भागवत शास्त्र का अर्थ सहित पाठ करता है, उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं।"
श्लोक 38
श्लोकार्धं श्लोकपादं वा पठेत् भागवतं च यः ।
नित्यं पुण्यं अवाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः ॥
अनुवाद:
"जो श्रीमद्भागवत का आधा श्लोक या चौथाई श्लोक भी पढ़ता है, वह नित्य राजसूय और अश्वमेध यज्ञ के समान पुण्य प्राप्त करता है।"
श्लोक 39
उक्तं भागवतं नित्यं कृतं च हरिचिन्तनम् ।
तुलसीपोषणं चैव धेनूनां सेवनं समम् ॥
अनुवाद:
"श्रीमद्भागवत का नित्य पाठ और हरि का चिंतन तुलसी के पोषण और गायों की सेवा के समान पुण्य प्रदान करता है।"
श्लोक 40
अन्तकाले तु येनैव श्रूयते शुकशास्त्रवाक् ।
प्रीत्या तस्यैव वैकुण्ठं गोविन्दोऽपि प्रयच्छति ॥
अनुवाद:
"जो व्यक्ति अंत समय में प्रेमपूर्वक श्रीमद्भागवत के वचनों को सुनता है, उसे गोविंद स्वयं वैकुंठ प्रदान करते हैं।"
श्लोक 41
हेमसिंहयुतं चैतत् वैष्णवाय ददाति च ।
कृष्णेन सह सायुज्यं स पुमान् लभते ध्रुवम् ॥
अनुवाद:
"जो व्यक्ति स्वर्णसिंहासन सहित श्रीमद्भागवत को किसी वैष्णव को दान करता है, वह निश्चित रूप से श्रीकृष्ण के साथ सायुज्य (एकत्व) को प्राप्त करता है।"
श्लोक 42
आजन्ममात्रमपि येन शठेन किंचित्
चित्तं विधाय शुकशास्त्रकथा न पीता ।
चाण्डालवत् च खरवत् बत तेन नीतं
मिथ्या स्वजन्म जननी जनिदुःखभाजा ॥
अनुवाद:
"जो व्यक्ति जन्मभर अपनी बुद्धि का उपयोग न करके श्रीमद्भागवत कथा का रसास्वादन नहीं करता, वह चांडाल या गधे के समान जीवन व्यतीत करता है और अपनी माता के जन्म के दुःख को व्यर्थ करता है।"
श्लोक 43
जीवच्छवो निगदितः स तु पापकर्मा
येन श्रुतं शुककथावचनं न किंचित् ।
धिक् तं नरं पशुसमं भुवि भाररूपम्
एवं वदन्ति दिवि देवसमाजमुख्याः ॥
अनुवाद:
"जो व्यक्ति श्रीमद्भागवत कथा को नहीं सुनता, वह पापी और जीवित लाश के समान है। ऐसे व्यक्ति को देवताओं की सभा में भर्त्सना और पशु के समान कहा जाता है।"
श्लोक 44
दुर्लभैव कथा लोके श्रीमद्भागवतोद्भवा ।
कोटिजन्मसमुत्थेन पुण्येनैव तु लभ्यते ॥
अनुवाद:
"श्रीमद्भागवत कथा इस संसार में दुर्लभ है। इसे केवल करोड़ों जन्मों के संचित पुण्य के परिणामस्वरूप ही प्राप्त किया जा सकता है।"
श्लोक 45
तेन योगनिधे धीमन् श्रोतव्या सा प्रयत्नतः ।
दिनानां नियमो नास्ति सर्वदा श्रवणं मतम् ॥
अनुवाद:
"हे योगियों के आश्रय! वह कथा प्रयत्नपूर्वक सुनी जानी चाहिए। इसके श्रवण के लिए किसी विशेष दिन का नियम नहीं है; इसे सदा सुना जा सकता है।"
श्लोक 46
सत्येन ब्रह्मचर्येण सर्वदा श्रवणं मतम् ।
अशक्यत्वात् कलौ बोध्यो विशेषोऽत्र शुकाज्ञया ॥
अनुवाद:
"सत्य और ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए इसका श्रवण सदा किया जा सकता है। परंतु कलियुग में यह कठिन होने के कारण, विशेष रूप से शुकदेवजी के निर्देशानुसार सप्ताहिक श्रवण की व्यवस्था की गई।"
श्लोक 47
मनोवृत्तिजयश्चैव नियमाचरणं तथा ।
दीक्षां कर्तुं अशक्यत्वात् सप्ताहश्रवणं मतम् ॥
अनुवाद:
"मन को वश में करने और नियमों का पालन करना कठिन होने के कारण, कलियुग में सप्ताहिक भागवत श्रवण को ही श्रेयस्कर माना गया।"
श्लोक 48
श्रद्धातः श्रवणे नित्यं माघे तावद्धि यत्फलम् ।
तत्फलं शुकदेवेन सप्ताहश्रवणे कृतम् ॥
अनुवाद:
"माघ मास में नित्य भागवत श्रवण से जो फल प्राप्त होता है, वही फल शुकदेवजी ने सप्ताहिक श्रवण से प्रदान करने की व्यवस्था की।"
श्लोक 49
मनसश्च अजयात् रोगात् पुंसां चैवायुषः क्षयात् ।
कलेर्दोषबहुत्वाच्च सप्ताहश्रवणं मतम् ॥
अनुवाद:
"मन की अशांति, रोग, आयु की क्षीणता और कलियुग के दोषों के कारण सप्ताहिक श्रवण को उपयुक्त माना गया।"
श्लोक 50
यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना ।
अनायासेन तत्सर्वं सप्ताहश्रवणे लभेत् ॥
अनुवाद:
"जो फल तप, योग, या समाधि से भी प्राप्त नहीं होता, वह सप्ताहिक भागवत श्रवण से बिना किसी कठिनाई के प्राप्त हो जाता है।"
श्लोक 51
यज्ञात् गर्जति सप्ताहः सप्ताहो गर्जति व्रतात् ।
तपसो गर्जति प्रोच्चैः तीर्थान्नित्यं हि गर्जति ॥
अनुवाद:
"यज्ञ से अधिक प्रभावशाली सप्ताहिक भागवत श्रवण है। यह व्रत, तपस्या और तीर्थ यात्रा से भी अधिक महिमा संपन्न है।"
श्लोक 52
योगात् गर्जति सप्ताहो ध्यानात् ज्ञानाच्च गर्जति ।
किं ब्रूमो गर्जनं तस्य रे रे गर्जति गर्जति ॥
अनुवाद:
"सप्ताहिक भागवत श्रवण योग, ध्यान और ज्ञान से भी अधिक प्रभावशाली है। इसकी महिमा इतनी बड़ी है कि इसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है।"
श्लोक 53
साश्चर्यमेतत्कथितं कथानकं
ज्ञानादिधर्मान् विगणय्य साम्प्रतम् ।
निःश्रेयसे भागवतं पुराणं
जातं कुतो योगविदादिसूचकम् ॥
अनुवाद:
"यह आश्चर्यजनक कथा है, जो ज्ञान और धर्म के अन्य मार्गों को पीछे छोड़ते हुए परम कल्याणकारी भागवत पुराण को सामने लाती है। यह योग, वेद और धर्म के सभी रहस्यों को प्रकाशित करती है।"
श्लोक 54
यदा कृष्णो धरां त्यक्त्वा स्वपदं गन्तुमुद्यतः ।
एकादशं परिश्रुत्यापि उद्धवो वाक्यमब्रवीत् ॥
अनुवाद:
"जब श्रीकृष्ण ने पृथ्वी को त्यागकर अपने धाम जाने का विचार किया, तब उद्धव ने उन्हें ग्यारहवें स्कंध के उपदेश की प्रार्थना की।"
श्लोक 55
त्वं तु यास्यसि गोविन्द भक्तकार्यं विधाय च ।
मच्चित्ते महती चिन्ता तां श्रुत्वा सुखमावह ॥
अनुवाद:
"उद्धव ने कहा: 'हे गोविंद! आप भक्तों का कार्य संपन्न करके जा रहे हैं। परंतु मेरे मन में बड़ी चिंता है। कृपया उसे सुनकर मेरा समाधान करें।'"
श्लोक 56
आगतोऽयं कलिर्घोरो भविष्यन्ति पुनः खलाः ।
तत्संगेनैव सन्तोऽपि गमिष्यन्ति उग्रतां यदा ॥
अनुवाद:
"अब कलियुग आ गया है, जो अत्यंत भयंकर है। इसके प्रभाव से संत भी दुष्ट प्रवृत्ति की ओर अग्रसर हो जाएंगे।"
श्लोक 57
तदा भारवती भूमिः गोरूपेयं कमाश्रयेत् ।
अन्यो न दृश्यते त्राता त्वत्तः कमललोचन ॥
अनुवाद:
"तब यह पृथ्वी गौ-रूप में किसका आश्रय लेगी? हे कमलनयन! आपसे बढ़कर कोई रक्षक नहीं है।"
श्लोक 58
अतः सस्तु दयां कृत्वा भक्तवत्सल मा व्रज ।
भक्तार्थं सगुणो जातो निराकारोऽपि चिन्मयः ॥
अनुवाद:
"इसलिए हे भक्तवत्सल! कृपा करके अपने भक्तों के लिए पृथ्वी पर ही रहें। आप निराकार होते हुए भी भक्तों के लिए सगुण स्वरूप में प्रकट हुए हैं।"
श्लोक 59
त्वद् वियोगेन ते भक्ताः कथं स्थास्यन्ति भूतले ।
निर्गुणोपासने कष्टं अतः किंचिद् विचारय ॥
अनुवाद:
"आपके वियोग से भक्त इस पृथ्वी पर कैसे रह पाएंगे? निर्गुण उपासना कठिन है, इसलिए कृपया कुछ उपाय कीजिए।"
श्लोक 60
इति उद्धववचः श्रुत्वा प्रभासेऽचिन्तयत् हरिः ।
भक्तावलम्बनार्थाय किं विधेयं मयेति च ॥
अनुवाद:
"उद्धव के इन वचनों को सुनकर प्रभास क्षेत्र में श्रीहरि ने चिंतन किया कि भक्तों का सहारा बनने के लिए मुझे क्या करना चाहिए।"
श्लोक 61
स्वकीयं यद् भवेत् तेजः तच्च भागवतेऽदधात् ।
तिरोधाय प्रविष्टोऽयं श्रीमद् भागवतार्णवम् ॥
अनुवाद:
"श्रीहरि ने अपनी दिव्य ऊर्जा को श्रीमद्भागवत में समाहित किया और स्वयं उसमें विलीन हो गए।"
श्लोक 62
तेनेयं वाङ्मयी मूर्तिः प्रत्यक्षा वर्तते हरेः ।
सेवनात् श्रवणात् पाठात् दर्शनात् पापनाशिनी ॥
अनुवाद:
"इस प्रकार श्रीमद्भागवत श्रीहरि का प्रत्यक्ष वांग्मयी स्वरूप बन गया। इसका पाठ, श्रवण, सेवा और दर्शन पापों का नाश करता है।"
श्लोक 63
सप्ताहश्रवणं तेन सर्वेभ्योऽप्यधिकं कृतम् ।
साधनानि तिरस्कृत्य कलौ धर्मोऽयमीरितः ॥
अनुवाद:
"भगवान ने सप्ताहिक भागवत श्रवण को अन्य सभी साधनों से श्रेष्ठ बताया और कलियुग में इसे धर्म का सर्वोत्तम मार्ग घोषित किया।"
श्लोक 64
दुःखदारिद्र्य दौर्भाग्य पापप्रक्षालनाय च ।
कामक्रोध जयार्थं हि कलौ धर्मोऽयमीरितः ॥
अनुवाद:
"कलियुग में दुख, दरिद्रता, दुर्भाग्य, और पापों के नाश के लिए तथा काम और क्रोध पर विजय पाने के लिए यही धर्म (भागवत श्रवण) उपयुक्त है।"
श्लोक 65
अन्यथा वैष्णवी माया देवैरपि सुदुस्त्यजा ।
कथं त्याज्या भवेत् पुम्भिः सप्ताहोऽतः प्रकीर्तितः ॥
अनुवाद:
"वैष्णवी माया को देवता भी छोड़ने में असमर्थ हैं। मनुष्य इसे कैसे त्याग सकेगा? इसलिए सप्ताहिक भागवत श्रवण की व्यवस्था की गई।"
श्लोक 66
एवं नगाहश्रवणोरुधर्मे
प्रकाश्यमाने ऋषिभिः सभायाम् ।
आश्चर्यमेकं समभूत् तदानीं
तदुच्यते संश्रृणु शौनको त्वम् ॥
अनुवाद:
"इस प्रकार जब ऋषियों ने सभा में भागवत श्रवण की महिमा प्रकट की, तो एक अद्भुत घटना हुई। शौनक, सुनो मैं उसे तुम्हें बताता हूं।"
श्लोक 67
भक्तिः सुतौ तौ तरुणौ गृहीत्वा
प्रेमैकरूपा सहसाऽविरासीत् ।
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे
नाथेति नामानि मुहुर्वदन्ती ॥
अनुवाद:
"भक्ति देवी अपने दो युवा पुत्रों (ज्ञान और वैराग्य) को लेकर प्रेममयी स्वरूप में वहां प्रकट हुईं। वे बार-बार 'श्रीकृष्ण, गोविंद, हरे, मुरारे, नाथ' का नाम ले रही थीं।"
श्लोक 68
तां चागतां भागवतार्थभूषां
सुचारुवेषां ददृशुः सदस्याः ।
कथं प्रविष्टा कथमागतेयं
मध्ये मुनीनामिति तर्कयन्तः ॥
अनुवाद:
"सभा के सदस्यों ने देखा कि भक्ति देवी भागवत अर्थ से अलंकृत होकर सुंदर वेश में वहां प्रकट हुईं। वे सोचने लगे कि यह यहां कैसे आईं।"
श्लोक 69
ऊचुः कुमारा वचनं तदानीं
कथार्थतो निश्पतिताधुनेयम् ।
एवं गिरः सा ससुता निशम्य
सनत्कुमारं निजगाद नम्रा ॥
अनुवाद:
"तब कुमारों ने कहा: 'यह भक्ति श्रीमद्भागवत की कथा के प्रभाव से प्रकट हुई हैं।' यह सुनकर भक्ति देवी सनत्कुमार के समक्ष विनम्र होकर बोलीं।"
श्लोक 70
भवद्भिः अद्यैव कृतास्मि पुष्टा
कलिप्रणष्टापि कथारसेन ।
क्वाहं तु तिष्ठाम्यधुना ब्रुवन्तु
ब्राह्मा इदं तां गिरमूचिरे ते ॥
अनुवाद:
"भक्ति देवी ने कहा: 'आपके द्वारा आज मैं फिर से पुष्ट हुई हूं। कलियुग में लुप्त हो जाने के बाद, कथा के रस से मैंने पुनः प्रकट होकर बल प्राप्त किया है। अब मैं कहां निवास करूं?' ब्रह्मा ने इसका उत्तर दिया।"
श्लोक 71
भक्तेषु गोविन्दसरूपकर्त्री
प्रेमैकधर्त्री भवरोगहन्त्री ।
सा त्वं च तिष्ठस्व सुधैर्यसंश्रया
निरंतरं वैष्णवमानसानि ॥
अनुवाद:
"भक्ति देवी! आप प्रेममयी होकर गोविंद के भक्तों के हृदय में वास करें। आप भवरोग का नाश करने वाली हैं, इसलिए धैर्यपूर्वक वैष्णवों के मन में निवास करें।"
श्लोक 72
ततोऽपि दोषाः कलिजा इमे त्वां
द्रष्टुं न शक्ताः प्रभवोऽपि लोके ।
एवं तदाज्ञावसरेऽपि भक्तिः
तदा निषण्णा हरिदासचित्ते ॥
अनुवाद:
"कलियुग के दोष और संसार की शक्तियां भी आपको देखने में असमर्थ होंगी। ऐसा आदेश मिलने के बाद भक्ति देवी हरिदास (वैष्णव) के हृदय में निवास कर गईं।"
श्लोक 73
सकलभुवनमध्ये निर्धनास्तेऽपि धन्या
निवसति हृदि येषां श्रीहरेर्भक्तिरेका ।
हरिरपि निजलोकं सर्वथातो विहाय
प्रविशति हृदि तेषां भक्तिसूत्रोपनद्धः ॥
अनुवाद:
"संसार के वे निर्धन भी धन्य हैं, जिनके हृदय में श्रीहरि की भक्ति निवास करती है। भगवान हरि अपने धाम को छोड़कर भी ऐसे भक्तों के हृदय में प्रवेश करते हैं।"
श्लोक 74
ब्रूमोऽद्य ते किमधिकं महमानमेवं
ब्रह्मात्मकस्य भुवि भागवताभिधस्य ।
यत्संश्रयात् निगदिते लभते सुवक्ता
श्रोतापि कृष्णसमतामलमन्यधर्मैः ॥
अनुवाद:
"हम और क्या कहें? श्रीमद्भागवत को आश्रय लेने वाला वक्ता और श्रोता दोनों कृष्ण के समान निर्मल और समत्व को प्राप्त कर लेते हैं।"
COMMENTS