अंतःकरण को निर्मल और निश्छल बनाए बिना हमारी गणना उन भक्तों में नहीं हो सकती जो प्रभु से मिलन का लाभ उठा सकने के अधिकारी होते हैं। साथ ही ईश्वर की इच्छानुसार अपने को ढाल लेने का साहस जुटाना पड़ता है । पतिव्रता स्त्री अपने स्वभाव आचरण एवं क्रिया कलाप को पति की इच्छानुरूप ढाल लेती है। इसके बिना दांपत्य जीवन कैसा ? मिलन का आनंद कहाँ ? समर्पण के आधार पर ही अद्वैत के रूप में परिणत हुआ जाता है। ईश्वर की इच्छा को अपनी इच्छा बनाकर उसके संकेत और निर्देशों को ही अपनी आकांक्षा और क्रिया में जोड़ देना, इसी का नाम समर्पण है, मिलन की साधना इसी से पूरी होती है। अपनी इच्छाओं को पूरी करने के लिए ईश्वर के आगे गिड़गिड़ाना और नाक रगड़ना, भला यह भी कोई भक्ति है। लोभ और मोह की पूर्ति के लिए दाँत निपोरना भला यह भी कोई प्रार्थना है। इस प्रकार की भक्ति को "वेश्यावृत्ति" ही कहा जा सकता है। भौतिक स्वार्थ के लिए किए गए क्रिया-कलापों को ईश्वर के दरबार में भक्ति संज्ञा में नहीं गिना जा सकता। वहाँ तो भक्त की कसौटी यह है कि किसने अपनी "कामनाओं" और "वासनाओं" को तिलांजलि देकर ईश्वर की इच्छा को अपनी इच्छा बनाया और उसकी मर्जी के अनुरूप चलने के लिए कठपुतली की तरह कौन तैयार हो गया ? जो इस कसौटी पर खरा उतरता है- वही "भक्त" है। भक्त भगवान को अपनी मर्जी पर चलाने के लिए विवश नहीं करता, वरन् उसकी इच्छा से अपनी इच्छा मिलाकर अपनी विचार प्रणाली एवं कार्य-पद्धति का पुनर्निमाण करता है। तब उसके सामने इस विश्व को अधिक सुंदर, अधिक समुन्नत और अधिक श्रेष्ठ बनाने की ही एकमात्र इच्छा शेष रह जाती है। अपने आपको काया की तथा परिवार की तुच्छता में आबद्ध नहीं करता, वरन् सबमें अपनी आत्मा को और अपनी आत्मा में सबको समाया हुआ समझ कर लोक मंगल के लिए जीता है और वसुधैव कुटुंबकम् के अनुरूप अपनेपन की परिधि अति व्यापक बना लेता है। तब उसे अपनी काया ईश्वर के देव मंदिर जैसी दीखती है और अपनी संपदा ईश्वर की पवित्र अमानत जैसी, जिसका उपयोग ईश्वरीय प्रयोजन के लिए किया जाता है।
इन मान्यताओं को अंतःकरण में गहन श्रद्धा की तरह प्रतिष्ठापित कर लेने वाला व्यक्ति "भक्त" है। उसे ईश्वर दर्शन के रूप में किसी अवतार या देवता की काल्पनिक छवि को आँख से दीख पड़ने की बाल-बुद्धि उठती ही नहीं। वह उसे दिवास्वप्न मात्र मानता और निरर्थक समझता है। उसका ईश्वर दर्शन अधिक वास्तविक और बुद्धि संगत होता है। जो अपनी विचारणा और प्रक्रिया में ईश्वर की प्रेरणा को चरितार्थ होते देखता है जिसकी आत्मा में ईश्वर के सत्पथ पर चलने की पुकार सुनाई पड़ती है, समझना चाहिए, उसमें ईश्वर बोलता है, बात करता है साथ रहता है और अपनी गोदी में उठाने का उपक्रम करता है। भक्ति की सार्थकता इसी स्थिति में है।
सच्चे भक्त बनने का महत्व
भक्ति मानव जीवन का एक पवित्र और दिव्य अंग है। यह केवल भगवान की पूजा और उनके नाम का जाप करने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जीवन को भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण और उनके आदर्शों के अनुसार जीने का एक मार्ग है। सच्चे भक्त बनने के लिए न केवल बाहरी आचरण बल्कि आंतरिक शुद्धता, प्रेम और निष्ठा भी आवश्यक है।
सच्चे भक्त की पहचान
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समर्पण और प्रेम:सच्चे भक्त का हृदय भगवान के प्रति पूर्ण समर्पित होता है। वह भगवान के प्रति निःस्वार्थ प्रेम करता है, जिसमें कोई स्वार्थ, अहंकार या अपेक्षा नहीं होती। उसका जीवन भगवान की इच्छा के अनुरूप होता है।
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आचरण में पवित्रता:सच्चे भक्त का जीवन पवित्रता, विनम्रता और दूसरों के प्रति सहानुभूति से भरा होता है। वह सत्य के मार्ग पर चलता है और धर्म का पालन करता है।
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ईश्वर की आराधना:सच्चा भक्त नियमित रूप से भगवान की आराधना करता है, चाहे वह पूजा-पाठ के माध्यम से हो, भगवान के गुणगान करने से हो, या उनकी लीलाओं का स्मरण करके। उसकी प्रार्थना में भाव और भक्ति की गहराई होती है।
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संसारिक मोह से विमुक्त:सच्चा भक्त संसारिक मोह, लोभ, और आसक्ति से ऊपर उठकर केवल भगवान में मन लगाता है। वह सांसारिक दुख और सुख में समान रहता है और अपने जीवन में भगवान के मार्गदर्शन को स्वीकार करता है।
सच्चे भक्त बनने के लिए आवश्यक गुण
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नम्रता और सहनशीलता:सच्चा भक्त हमेशा नम्र रहता है और हर परिस्थिति को धैर्यपूर्वक सहन करता है। वह दूसरों की आलोचना नहीं करता और हर जीव में भगवान का अंश देखता है।
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निष्ठा और दृढ़ता:भक्ति का मार्ग आसान नहीं है। सच्चा भक्त भगवान की भक्ति में अडिग रहता है, चाहे कितनी भी कठिनाई क्यों न आए। वह अपनी भक्ति को हर परिस्थिति में बनाए रखता है।
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त्याग और परोपकार:सच्चा भक्त अपने स्वार्थ को त्यागकर दूसरों की भलाई में अपना जीवन समर्पित करता है। वह दान, सेवा, और परोपकार के कार्यों से भगवान की भक्ति को व्यावहारिक रूप देता है।
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भगवान पर विश्वास:सच्चा भक्त भगवान पर पूर्ण विश्वास रखता है। वह जानता है कि भगवान हमेशा उसके साथ हैं और हर परिस्थिति में उसकी रक्षा करेंगे।
सच्चे भक्त बनने का महत्व
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आध्यात्मिक उन्नति:सच्चे भक्त का जीवन उसकी आत्मा को शुद्ध करता है और उसे भगवान के निकट ले जाता है। भक्ति के माध्यम से वह जीवन के उद्देश्य को समझता है और भगवान की शरण में शांति पाता है।
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सामाजिक संतुलन:सच्चा भक्त समाज में प्रेम, शांति, और सामंजस्य का संदेश फैलाता है। उसकी विनम्रता और परोपकार समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत बनते हैं।
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जीवन में संतोष:सच्चा भक्त संसारिक सुख और दुख से परे रहता है। भगवान के प्रति उसकी निष्ठा उसे हर परिस्थिति में संतोष प्रदान करती है।
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मोक्ष का मार्ग:सच्चे भक्त का जीवन उसे मोक्ष की ओर ले जाता है। उसकी भक्ति भगवान के साथ उसके अटूट संबंध को प्रकट करती है, जिससे वह जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।
भगवद्गीता में सच्चे भक्त का वर्णन
भगवद्गीता (अध्याय 12) में भगवान श्रीकृष्ण ने सच्चे भक्त के गुणों का वर्णन किया है। उन्होंने कहा कि सच्चा भक्त वह है जो:
- सभी प्राणियों के प्रति करुणा रखता है।
- किसी से द्वेष नहीं करता।
- इच्छाओं से मुक्त रहता है।
- अपने कर्तव्यों को भगवान के प्रति समर्पित करता है।
आधुनिक समय में भक्ति का महत्त्व
आज के युग में, जब लोग तनाव और प्रतिस्पर्धा से घिरे हुए हैं, भक्ति एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है। भक्ति न केवल आत्मिक शांति प्रदान करती है, बल्कि यह व्यक्ति को सही दिशा में चलने की प्रेरणा भी देती है।
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आध्यात्मिक मार्ग:भक्ति व्यक्ति को आत्मा की गहराइयों तक ले जाती है, जहाँ वह अपने जीवन के उद्देश्य को समझता है।
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जीवन में सकारात्मकता:भक्ति व्यक्ति को नकारात्मकता से बचाती है और उसे हर परिस्थिति में सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा देती है।
निष्कर्ष
सच्चे भक्त बनने का अर्थ केवल भगवान की पूजा करना नहीं है, बल्कि उनके आदर्शों को अपने जीवन में अपनाना है। सच्चा भक्त वह है जो भगवान की इच्छा को समझता है, उनके मार्ग पर चलता है, और अपने जीवन को उनके चरणों में समर्पित करता है।
भक्ति का मार्ग हमें सिखाता है कि भगवान हमारे जीवन के हर पहलू में हमारे साथ हैं। उनके प्रति सच्चा समर्पण ही सच्चे भक्त बनने का पहला कदम है।
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