देवासुर संग्राम (देवताओं और असुरों का युद्ध) का वर्णन भागवत पुराण के विभिन्न स्कंधों में मिलता है। यह संग्राम सृष्टि में धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य, तथा ईश्वर भक्ति और अहंकार के बीच संघर्ष का प्रतीक है। इन संग्रामों में भगवान विष्णु विभिन्न अवतारों के माध्यम से देवताओं की सहायता करते हैं और धर्म की पुनर्स्थापना करते हैं।
देवता और असुरों के स्वभाव का वर्णन
देवताओं और असुरों का मूल स्वभाव उनके गुणों से निर्धारित होता है:
1. देवता: सत्त्वगुणी, धर्मपरायण, और भगवान विष्णु के भक्त होते हैं।
2. असुर: रजोगुण और तमोगुण से प्रेरित होकर अधर्म और अहंकार का पालन करते हैं।
श्लोक:
सत्त्वं विष्णुस्त्वभिज्ञाय राजसः प्रजापतिः।
तमसोऽसुरतन्मात्रं शूरं तद्विजयत्सदा।।
(भागवत पुराण 6.7.1)
भावार्थ:
सत्त्वगुण भगवान विष्णु का प्रतीक है, जो देवताओं में प्रकट होता है। रजोगुण और तमोगुण असुरों का स्वभाव है, जो अधर्म और अहंकार का पालन करते हैं।
मुख्य देवासुर संग्राम भागवत पुराण में
1. हिरण्याक्ष और वराह अवतार का संग्राम (तृतीय स्कंध)
- हिरण्याक्ष, असुरों का राजा और हिरण्यकशिपु का भाई, अत्यंत बलवान था। उसने पृथ्वी को पाताल में छिपा दिया और देवताओं को पराजित कर दिया।
- पृथ्वी की रक्षा के लिए भगवान विष्णु ने वराह अवतार धारण किया।
- वराह रूप में भगवान विष्णु ने हिरण्याक्ष का वध किया और पृथ्वी को समुद्र से बाहर निकाला।
श्लोक:
तं गदापाणिना देवं विष्णुं वरदमभ्ययात्।
तिर्यगूर्ध्वमधः स्पन्दन्नदृश्यत्ते जयोऽभवत्।।
(भागवत पुराण 3.18.5)
भावार्थ:
भगवान वराह ने हिरण्याक्ष से युद्ध कर उसे पराजित किया और पृथ्वी की रक्षा की।
2. हिरण्यकशिपु और नृसिंह अवतार का संग्राम (सप्तम स्कंध)
- हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा से वरदान प्राप्त कर देवताओं को स्वर्ग से भगा दिया और भगवान विष्णु का विरोध किया।
- हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु के परम भक्त थे।
- हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को मारने का प्रयास किया, लेकिन भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार में प्रकट होकर हिरण्यकशिपु का वध किया।
श्लोक:
सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं।
व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः।
अदृष्ट रूपं उदितः तथाऽव्ययं।
स्तंभे सभायां न मृगं न मानुषम्।।
(भागवत पुराण 7.8.17)
सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं।
व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः।
अदृष्ट रूपं उदितः तथाऽव्ययं।
स्तंभे सभायां न मृगं न मानुषम्।।
(भागवत पुराण 7.8.17)
भावार्थ:
भगवान नृसिंह ने प्रह्लाद की रक्षा के लिए स्तंभ से प्रकट होकर हिरण्यकशिपु का वध किया।
3. समुद्र मंथन और देवासुर संग्राम (अष्टम स्कंध)
- देवता और असुर अमृत प्राप्त करने के लिए क्षीरसागर का मंथन करते हैं।
- असुरों ने अमृत कलश पर कब्जा कर लिया।
- भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार धारण कर अमृत को असुरों से छीनकर देवताओं को वितरित किया।
- असुरों को अमृत नहीं मिला और देवताओं ने अमरत्व प्राप्त किया।
श्लोक:
मोहिन्या मोहिता दैत्या अमृतं सुरसङ्घेभ्यः।
ददौ मायामयं रूपं विष्णुर्मायामयान्विनः।।
(भागवत पुराण 8.9.22)
भावार्थ:
भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप में अमृत को देवताओं में वितरित किया और असुरों को वंचित कर दिया।
4. बलि और वामन अवतार का संग्राम (अष्टम स्कंध)
- असुरराज बलि ने तपस्या से स्वर्ग पर अधिकार कर लिया।
- देवताओं की रक्षा के लिए भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया।
- वामन ने बलि से तीन पग भूमि मांगी और पूरे स्वर्ग और पृथ्वी को अपने पगों में समेट लिया।
- बलि को पाताल भेज दिया गया और स्वर्ग देवताओं को वापस मिल गया।
श्लोक:
वामनः पृथिवीं त्रैणिं त्रिविक्रमः सुरेन्द्राय।
अमृतं प्रापयामास सुरेभ्यः स्वर्गं नयाम्यहम्।।
(भागवत पुराण 8.22.16)
भावार्थ:
भगवान वामन ने बलि से स्वर्ग को पुनः देवताओं को सौंप दिया।
5. देवताओं और असुरों के अनेक छोटे युद्ध
- देवता और असुरों के बीच छोटे-छोटे संग्राम हमेशा होते रहे।
- प्रत्येक युद्ध में देवताओं ने भगवान विष्णु की शरण लेकर विजय प्राप्त की।
श्लोक:
सदा युध्यन्ति देवासुराः स्वर्गं प्रति बलिनः।
विष्णुभक्तिं परं दृष्ट्वा धर्मः तेषां जयाय च।।
(भागवत पुराण 6.7.24)
भावार्थ:
देवता भगवान विष्णु की भक्ति और धर्म के पालन से हमेशा विजयी होते हैं।
कथा का संदेश
1. धर्म और अधर्म का संघर्ष:
देवासुर संग्राम धर्म और अधर्म के बीच निरंतर चलने वाले संघर्ष को दर्शाता है।
2. भगवान की शरण:
देवताओं की जीत का मुख्य कारण उनका भगवान विष्णु के प्रति समर्पण है।
3. अधर्म की हार:
असुर चाहे कितने भी शक्तिशाली क्यों न हों, अंततः अधर्म की हार और धर्म की विजय होती है।
4. सामूहिक प्रयास:
समुद्र मंथन जैसे प्रसंग यह सिखाते हैं कि बड़े कार्यों के लिए सहयोग और धैर्य आवश्यक है।
निष्कर्ष
भागवत पुराण के अनुसार, देवासुर संग्राम केवल भौतिक युद्ध नहीं, बल्कि धर्म और अधर्म, भक्ति और अहंकार के बीच का संघर्ष है। भगवान विष्णु हर बार धर्म की रक्षा और भक्तों के उद्धार के लिए प्रकट होते हैं। यह कथा हमें सिखाती है कि धर्म, भक्ति और भगवान की शरणागति ही अंतिम विजय का मार्ग है।
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