यं प्रव्रजन्त श्लोक की सप्रसंग व्याख्या(भागवत 1.2..2)

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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श्लोक:

यं प्रव्रजन्तम् अनुपेतम् अपेतकृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुः
तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि॥
(भागवत 1.2..2)


संदर्भ:

यह श्लोक श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रारंभिक भाग का हिस्सा है। इसमें महर्षि वेदव्यास द्वारा उनके पुत्र श्री शुकदेव मुनि की महानता और उनके प्रति गहन प्रेम का वर्णन है। यह श्लोक उन दिव्य घटनाओं को दर्शाता है, जब शुकदेव मुनि सांसारिक जीवन के बंधनों को त्यागकर ज्ञान और वैराग्य की खोज में वन को प्रस्थान कर गए।


शब्दार्थ:

  1. यं प्रव्रजन्तम्:

    • जो वन की ओर प्रस्थान कर रहा था।
    • यहाँ शुकदेव मुनि की बात हो रही है।
  2. अनुपेतम्:

    • जिन्होंने किसी प्रकार की औपचारिक शिक्षा, गृहस्थ जीवन, या सांसारिक रीति-रिवाजों का पालन नहीं किया।
  3. अपेतकृत्यं:

    • जिन्होंने संसार के सभी कर्तव्यों और बंधनों का त्याग कर दिया।
  4. द्वैपायनः:

    • महर्षि वेदव्यास, जिन्हें द्वैपायन कहा जाता है क्योंकि उनका जन्म एक द्वीप में हुआ था।
  5. विरहकातर:

    • जो अपने पुत्र के वियोग में अत्यंत व्याकुल हो गए।
  6. आजुहाव:

    • पुकारने लगे।
  7. पुत्रेति:

    • "पुत्र" कहकर।
  8. तन्मयतया:

    • उनके आत्मीय और भावपूर्ण पुकार के कारण।
  9. तरवः:

    • वृक्ष।
  10. अभिनेदुः:

  • उत्तर देने लगे।
  1. सर्वभूतहृदयं:
  • जो सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हैं।
  1. मुनिम्:
  • श्री शुकदेव मुनि।
  1. आनतः अस्मि:
  • मैं उन्हें नमन करता हूँ।

श्लोक का भावार्थ:

प्रथम पंक्ति:

यं प्रव्रजन्तम् अनुपेतम् अपेतकृत्यं।

  • इस पंक्ति में शुकदेव मुनि का वर्णन है, जिन्होंने बिना किसी सामाजिक बंधन या गृहस्थ कर्तव्यों को पूरा किए, संसार के सभी संबंधों को त्यागकर वन की ओर प्रस्थान किया।
  • वे जन्म से ही ब्रह्मज्ञानी थे और सांसारिक जीवन से विरक्त थे।

द्वितीय पंक्ति:

द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव।

  • उनके पिता महर्षि वेदव्यास, जो स्वयं महान ऋषि थे, पुत्र के वियोग में अत्यंत व्याकुल हो गए।
  • वेदव्यास ने "पुत्र! पुत्र!" कहकर उन्हें पुकारा, लेकिन शुकदेव मुनि वैराग्य के मार्ग पर बिना मुड़कर चलते रहे।

तृतीय पंक्ति:

पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुः।

  • वेदव्यास की पुकार इतनी भावपूर्ण और गहन थी कि आसपास के वृक्ष भी उनकी पुकार को प्रतिध्वनित करने लगे।
  • यह प्रकृति और भावना के अद्भुत सामंजस्य को दर्शाता है।

चतुर्थ पंक्ति:

तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि।

  • अंत में वेदव्यास ने शुकदेव मुनि को "सर्वभूतहृदय" कहा, जो सभी प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं।
  • वेदव्यास उन्हें नमन करते हैं, क्योंकि शुकदेव मुनि परम ब्रह्मज्ञान के प्रतीक हैं।

शुकदेव मुनि की विशेषताएँ:

  1. जन्म से ब्रह्मज्ञानी:

    • शुकदेव मुनि जन्म से ही ब्रह्मज्ञान से युक्त थे। वे वेदांत के सिद्धांतों को जानते थे।
  2. संसार से वैराग्य:

    • उन्होंने किसी भी सांसारिक बंधन को स्वीकार नहीं किया। यहाँ तक कि माता-पिता का स्नेह भी उन्हें नहीं रोक सका।
  3. भविष्यद्रष्टा:

    • शुकदेव मुनि ने भागवत कथा का प्रवचन राजा परीक्षित को किया और उन्हें मोक्ष का मार्ग दिखाया।
  4. सर्वभूतहृदय:

    • वे न केवल ज्ञानी थे, बल्कि सभी प्राणियों के प्रति उनकी करुणा और प्रेम अद्वितीय थी।

प्रेरणा:

  1. वैराग्य और ज्ञान:

    • शुकदेव मुनि का जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए वैराग्य और तपस्या आवश्यक है।
  2. पुत्र-पिता का प्रेम:

    • इस श्लोक में महर्षि वेदव्यास के पुत्र प्रेम को दर्शाया गया है। यह भाव हमें सिखाता है कि माता-पिता का स्नेह कितना गहरा होता है।
  3. प्रकृति और भावना का संबंध:

    • इस श्लोक में वृक्षों द्वारा "पुत्र" की ध्वनि देना यह दर्शाता है कि जब भावना गहन और सच्ची होती है, तो प्रकृति भी उसका उत्तर देती है।

उपसंहार:

यह श्लोक श्री शुकदेव मुनि की दिव्यता और महर्षि वेदव्यास के वात्सल्य को प्रकट करता है। यह श्लोक हमें वैराग्य, ज्ञान, और गहन प्रेम के महत्व को सिखाता है।

🙏 श्री शुकदेव मुनि और महर्षि वेदव्यास को कोटि-कोटि नमन।

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