प्रचेतागणों की कथा भागवत पुराण के चतुर्थ स्कंध के अध्याय 30-31 में विस्तार से वर्णित है। यह कथा तपस्या, भक्ति, और ईश्वर के प्रति समर्पण की शिक्षा देती
प्रचेतागणों की कथा भागवतपुराण के चौथे स्कंध (अध्याय 24-31) में विस्तृत रूप से वर्णित है। यह कथा न केवल राजधर्म, तपस्या और भक्ति का मार्ग दिखाती है, बल्कि सृष्टि विस्तार के महत्त्व को भी उजागर करती है। आइए इसे चरणबद्ध तरीके से विस्तार से समझते हैं।
1. पृष्ठभूमि और प्रचेतागणों का जन्म
राजा प्राचीनबर्हि अपने यज्ञ-कर्मों और धर्म-पालन के लिए प्रसिद्ध थे। वे दक्ष प्रजापति के वंशज थे और अपने दस पुत्रों, प्रचेतागण, को सृष्टि विस्तार का कार्य सौंपना चाहते थे। राजा ने उन्हें आदेश दिया कि वे तपस्या करें और अपनी संतानों के माध्यम से सृष्टि को समृद्ध करें।
भागवतपुराण 4.24.8-9
ततोऽहं तप एष्यामि यत्र मे हरिरिष्यते।
पित्रा प्रोक्तास्तथा चक्रुस्ते पितुः परमादरात्।।
अनुवाद:
पिता के आदेश को सिरोधार्य करते हुए, प्रचेतागण समुद्र तट पर तपस्या के लिए चले गए।
2. तपस्या और भगवान शिव का प्रकट होना
प्रचेतागण ने सागर के भीतर जाकर घोर तपस्या शुरू की। उनके तप से देवताओं ने भगवान शिव से सहायता मांगी। भगवान शिव प्रचेतागणों के समक्ष प्रकट हुए। उन्होंने उनकी तपस्या और भक्ति देखकर उन्हें आशीर्वाद दिया और रुद्रगीत का उपदेश दिया।
भगवान शिव की प्रकटता (4.24.27-30)
एवं तपस्युपरतं प्रचेतसो महद्भयम्।
शम्भुः प्रीतोऽन्ववर्तन्त कृपया भूतभावनः।।
अनुवाद:
प्रचेतागणों की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने कृपा की और उन्हें उपदेश दिया।
रुद्रगीत का प्रमुख श्लोक (4.24.33-34)
यथा ह्यध्वन एवैकः पुरुषः समुपास्यते।
कर्मभिर्विविधैरभ्रीन्मामेवैकं सुरादयः।।
अनुवाद:
भगवान शिव ने कहा, "सभी देवताओं की पूजा वास्तव में एक ही परम पुरुष, भगवान विष्णु की पूजा है।"
शिवजी का उपदेश (4.24.36-39)
सङ्कर्षणाय सुकृताय लोकपालाय शान्ताय।
नमः कृष्णाय देवायं हृदयार्तिशमाय च।।
अनुवाद:
भगवान शिव ने प्रचेतागणों को विष्णु की शरण लेने का उपदेश दिया, जो सभी दुखों का नाश करने वाले हैं।
3. भगवान विष्णु का दर्शन और आशीर्वाद
भगवान शिव के उपदेश के अनुसार, प्रचेतागणों ने 10,000 वर्षों तक समुद्र के जल में तपस्या की। भगवान विष्णु उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर प्रकट हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया।
भगवान विष्णु का संवाद (4.30.6-9)
प्रचेतसां तपः सिद्धं तव धर्मार्थकामदम्।
द्रक्ष्यथ मेऽखिलं रूपं सत्त्वेन भूतात्मनिष्ठितम्।।
अनुवाद:
भगवान विष्णु ने कहा, "तुम्हारी तपस्या पूर्ण हो गई है। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि तुम्हारे प्रयास धर्म, अर्थ और काम को संतुलित करेंगे।"
भगवान ने उन्हें यह भी कहा कि उनके कार्यों से सृष्टि का संतुलन बनेगा और वे संसार में धर्म को पुनः स्थापित करेंगे।
4. मारिषा से विवाह और संतानों का जन्म
भगवान विष्णु के आशीर्वाद के बाद प्रचेतागणों ने अपना तप समाप्त किया और राज्य में लौटे। वहां उन्होंने मारिषा नामक कन्या से विवाह किया। मरीषा दक्ष प्रजापति की पुत्री थीं और चंद्रमा (सोम) के वंश की थीं।
मारिषा का परिचय (4.31.3-4)
सा चन्द्रवंशजा कुमारी दक्षकन्यकान्वयात्।
जज्ञे मारिषा प्रचेतसां पत्नी भवतु ते यथा।।
अनुवाद:
मरीषा दक्ष प्रजापति के वंश की थीं और प्रचेतागणों ने उनसे विवाह किया।
उनके विवाह से प्रजापति दक्ष का पुनर्जन्म हुआ। दक्ष ने सृष्टि के विस्तार का कार्य संभाला और नई संततियों का जन्म दिया।
5. प्रचेतागणों की संतानों का योगदान
प्रचेतागण और मारिषा के दस पुत्र हुए, जिनमें से एक दक्ष प्रजापति ने संसार के सृष्टि कार्य का संचालन किया। दक्ष ने असंख्य जीव-जंतुओं, मनुष्यों और प्रजातियों की उत्पत्ति में योगदान दिया।
सृष्टि विस्तार (4.31.6-8)
दक्षो हि सर्वभूतानां सृष्ट्यादिकारणं मतः।
प्रचेतसो महात्मानः धर्मे स्थिता इति स्मृताः।।
अनुवाद:
दक्ष ने सृष्टि के सभी भूतों की उत्पत्ति का कार्य किया और प्रचेतागण धर्म में स्थिर रहे।
6. प्रचेतागणों का तपस्या में लीन होना
सृष्टि विस्तार का कार्य पूर्ण करने के बाद, प्रचेतागणों ने राज्य का कार्यभार अपने पुत्रों को सौंप दिया और पुनः तपस्या में लीन हो गए।
अंतिम तपस्या (4.31.10)
प्रचेतसोऽन्वशायन्त धर्मे स्थिता युगान्तरे।
तपसा परमं प्राप्तं विष्णुधाम गता यथा।।
अनुवाद:
प्रचेतागण तपस्या में लीन होकर अंततः भगवान विष्णु के परमधाम को प्राप्त हुए।
रुद्रगीत के अन्य महत्वपूर्ण श्लोक
भगवान शिव द्वारा गाए गए रुद्रगीत में भगवान विष्णु की स्तुति और उनके गुणों का वर्णन है। कुछ प्रमुख श्लोक:
रुद्रगीत का स्तुति श्लोक (4.24.52)
नमो नमः कर्मणि भूषणाय विशुद्धसत्त्वाय सदाभियुक्ताय।
नमो विरक्ताय सहस्रशक्तये नमः सुरेन्द्राय भवन्तकाय ते।।
अनुवाद:
"हे भगवान! जो कर्मों को शुद्ध करते हैं, जो सदा भक्ति में लीन रहते हैं, जो वैराग्यवान हैं और जिनमें अनंत शक्तियां हैं, आपको नमस्कार है।"
शिवजी का परमज्ञान (4.24.65)
सर्वत्र संमतं सौम्य रूपं तव हि चक्षुषाम्।
यथा हि भावमायातं तत्रैवोपलभामहे।।
अनुवाद:
"भगवान का रूप सब जगह समान है। जैसा भाव भक्तों का होता है, भगवान उसी रूप में प्रकट होते हैं।"
कथा का गहन संदेश
- कर्तव्य और धर्मपालन: प्रचेतागणों ने पिता की आज्ञा को सर्वोपरि मानकर धर्म और सृष्टि विस्तार का कार्य किया।
- तपस्या और भक्ति: शिव और विष्णु की कृपा पाने के लिए घोर तपस्या आवश्यक है।
- प्रकृति और सृष्टि संतुलन: मरीषा के माध्यम से सृष्टि और प्रकृति का संतुलन स्थापित हुआ।
- वैराग्य और मोक्ष: संसार का कार्य पूरा करने के बाद प्रचेतागणों ने वैराग्य अपनाकर मोक्ष प्राप्त किया।
यह कथा न केवल धार्मिक है, बल्कि जीवन के गहन अर्थों को समझने और जीने की प्रेरणा देती है।
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