यह चित्र भगवान शिव को एक पारंपरिक डमरू बजाते हुए दर्शाता है जिससे माहेश्वर सूत्र निकल रहे हैं। शिव को इस दिव्य वाद्ययंत्र को बजाते हुए खगोलीय पृष्ठभूमि और दिव्यता के साथ दिखाया गया है। |
संज्ञा प्रकरणम् (अनुवाद):
नत्वा सरस्वतीं देवीं शुद्धां गुण्यां करोम्यहम् ।
पाणिनीयप्रवेशाय लघुसिद्धान्तकौमुदीम् ॥
१. अइउण् । २. ऋऌक् । ३. एओङ् । ४. ऐऔच् । ५. हयवरट् । ६. लण् । ७. ञमङणनम् । ८. झभञ् । ९. घढधष् । १०. जबगडदश् । ११. खफछठथचटतव् । १२. कपय् । १३. शषसर् । १४. हल् ॥ इति माहेश्वराणि सूत्राण्यणादिसंज्ञार्थानि । एषामन्त्याः इतः । हकारादिष्वकार उच्चारणार्थः । लण्मध्ये त्वित्संज्ञकः ॥
सरस्वती देवी को नमन करता हूं, जो शुद्ध और गुणवान हैं। मैं पाणिनीय व्याकरण में प्रवेश के लिए "लघु सिद्धांत कौमुदी" का अध्ययन करता हूं।
महेश्वर सूत्र:
- अइउण्।
- ऋऌक्।
- एओङ्।
- ऐऔच्।
- हयवरट्।
- लण्।
- ञमङणनम्।
- झभञ्।
- घढधष्।
- जबगडदश्।
- खफछठथचटतव्।
- कपय्।
- शषसर्।
- हल्।
- किसे नमन करके? सरस्वती को (नत्वा)।
- कैसी सरस्वती? देवी, शुद्ध, और गुणवान।
- किस उद्देश्य से? पाणिनीय व्याकरण में प्रवेश के लिए।
शब्दों के अर्थ:
- सरस्वती: ज्ञान से युक्त।
- देवी: दिव्यता वाली।
- शुद्ध: पवित्र।
- गुण्य: गुणों से युक्त।
- पाणिनीय: पाणिनि से संबंधित।
- लघु सिद्धांत कौमुदी: वैयाकरणिक सिद्धांतों को सरल और संक्षेप में प्रस्तुत करने वाला ग्रंथ।
कौमुदी का अर्थ:
- कौमुदी (चंद्रिका) प्रकाश करती है और संताप (कष्ट) दूर करती है।
अनुबंध चतुष्टय:
- विषय: लघु वैयाकरणिक सिद्धांत।
- प्रयोजन: सरल और शीघ्र ज्ञान।
- अधिकारि: बालक या प्रारंभिक शिक्षार्थी।
- सम्बंध: ग्रंथ और ज्ञान के बीच।
विशेष
- यहां पाणिनीय व्याकरण के मूलभूत महेश्वर सूत्रों को बताया गया है, जो भगवान महेश्वर (शिव) द्वारा प्रकट किए गए थे।
"अइउण्", "ऋलृक्", "एओङ्", "ऐऔच्", "हयवरट्", "लण्" आदि सूत्र सभी प्रथमान्त (नामवाचक) और संज्ञा सूत्र हैं।
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"हयवरट्" में "ह" का उपयोग "अट्-अश्-हश्-इण्" जैसे स्थानों पर "ह" को शामिल करने के लिए किया गया है।
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इसका फल है कि "अर्हेण" में, "अड्व्यवायेऽपि" नियम से "णत्व" होता है।
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"देवा हसन्ति" में "भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि" नियम से "रोर्यत्व" होता है।
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"देवो हसति" में "हशि च" नियम से "उत्व" होता है।
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"लिलिहिध्वे" में "विभाषेटः" नियम से "ढत्व" का विकल्प होता है।
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"हल्" सूत्र का उपयोग "वल्-रल्-झल्-शल्" जैसे स्थानों पर "ह" को शामिल करने के लिए होता है।
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इसका फल है कि "रुदिहि" में "रुदादिभ्यः सार्वधातुके" नियम से "इट्" लगता है।
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"स्निहित्वा" में "रलो व्युपधाद्धलादेः संश्च" नियम से "कित्त्व" होता है।
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"अदाग्धाम्" में "झलो झलि" नियम से "सकार" का लोप होता है।
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"अलिक्षत" में "शल इगुपधादनिटः क्सः" नियम से "सिच्" का "क्सादेश" होता है।
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शास्त्र के अनुसार, इन महेश्वर सूत्रों को भगवान पाणिनि ने भगवान शिव से प्राप्त किया।
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यह माना जाता है कि भगवान शिव ने अपने डमरू के माध्यम से इन 14 सूत्रों को प्रकट किया।
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नन्दिकेश्वर द्वारा कहा गया है: - नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्च(१४)वारम् । उद्धर्त्तुकामः सनकादिसिद्धानेतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ॥ इति
"नृत्य के अंत में नटराज (शिव) ने 14 बार डमरू बजाया।
इससे 'शिव सूत्र' प्रकट हुए, जो सनकादि मुनियों को व्याकरण सिखाने के उद्देश्य से थे।" -
इन सूत्रों में "इत" चिह्न महेश्वर द्वारा ही जोड़े गए हैं।
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इनका उद्देश्य धातु और अन्य शब्दों के उपयोग को स्पष्ट करना है।
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सूत्र को इस प्रकार परिभाषित किया गया है:"अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद्विश्वतोमुखम्।अस्तोभमनवद्यञ्च सूत्रं सूत्रविदो विदुः।"
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सूत्र के छह प्रकार हैं:
- संज्ञा सूत्र।
- परिभाषा सूत्र।
- विधि सूत्र।
- नियम सूत्र।
- अतिदेश सूत्र।
- अधिकार सूत्र।
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संज्ञा सूत्र का कार्य शक्ति का निर्धारण करना है।
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उदाहरण के लिए, "अइउण्" जैसे सूत्र वर्णों की पहचान और उनके क्रम को स्पष्ट करते हैं।
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"अइउण्" आदि महेश्वर सूत्रों में स्वर और व्यंजन स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किए गए हैं।
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वर्णों का क्रम और उनकी पहचान "अणादि संज्ञा" के माध्यम से होती है।
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"ह" आदि वर्णों के पुनरावृत्ति का उद्देश्य उनके उच्चारण को सरल बनाना है।
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"लण्" सूत्र में मध्यस्थ "अ" को "इत" संज्ञा दी गई है, जो विशेष उपयोग के लिए है।
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महेश्वर सूत्र पाणिनीय व्याकरण के मूल हैं।
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इनका उद्देश्य व्याकरण को सरल और स्पष्ट बनाना है।
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इन सूत्रों का उपदेश भगवान शिव के आशीर्वाद से पाणिनि को प्राप्त हुआ।
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