साहित्यदर्पण के प्रथम परिच्छेद का यह भाग काव्य के स्वरूप, उसके उद्देश्य और उपयोगिता पर विस्तार से चर्चा करता है। यहाँ इसका हिन्दी में सारांश और अनुवाद प्रस्तुत है:
ग्रंथारंभ और वाग्देवी का आवाहन:
ग्रंथ के प्रारंभ में, लेखन में बाधा न हो और सफलता प्राप्त हो, इसके लिए वाणी की देवी सरस्वती का आह्वान किया गया है:
श्लोक:
"शरदिन्दुसुन्दररुचिश्चेतसि सा मे गिरं देवी।
अपहृत्य तमः संततमर्थानखिलान्प्रकाशयतु।।"
भावार्थ:
सरस्वती देवी, जिनकी आभा शरद पूर्णिमा के चंद्रमा जैसी है, वे मेरे मन में स्थित होकर तमस (अज्ञान) को दूर करें और सत्यार्थों को प्रकाशित करें।
काव्य का उद्देश्य (सूत्र 1.2):
श्लोक:
"चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि।
काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूपं निरूप्यते।।"
अनुवाद:
काव्य का मुख्य उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष (चतुर्वर्ग) की प्राप्ति कराना है। यहाँ तक कि अल्पबुद्धि वाले लोग भी इसे पढ़कर सुख प्राप्त कर सकते हैं। अतः, काव्य के स्वरूप को समझाया जाएगा।
व्याख्या:
- चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष):
काव्य व्यक्ति को यह सिखाता है कि राम जैसे आदर्श पुरुषों के पथ का अनुसरण करना चाहिए, न कि रावण जैसे अधर्मियों के मार्ग पर चलना। - काव्य की उपयोगिता:
यह धर्म के लिए नारायण स्तुति करता है, अर्थ के लिए व्यावहारिक ज्ञान देता है, काम को नियंत्रित करता है और मोक्ष के लिए मार्ग प्रशस्त करता है।
उदाहरण के रूप में भामह का कथन दिया गया है:
"धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च।
करोति कीर्तिं प्रीतिं च साधुकाव्यनिषेवणम्।।"
अर्थात, काव्य धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष में निपुणता लाता है और कीर्ति व आनंद प्रदान करता है।
काव्य की तुलना वेद और शास्त्र से:
काव्य का महत्व शास्त्रों के कठोर उपदेशों के स्थान पर कोमलता से मार्गदर्शन देने में है।
उदाहरण:
कटु औषधि की तुलना में मीठी शर्करा से रोगी अधिक लाभान्वित होता है। इसी प्रकार, काव्य वेद और शास्त्र के कठिन मार्ग को सरल बनाकर चतुर्वर्ग की प्राप्ति कराता है।
काव्य की परिभाषा और लक्षण:
काव्य क्या है?
किसी ने कहा:
"तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनवालंकृती पुनः क्वपि।"
अर्थात, दोष रहित, गुणयुक्त, और अलंकारों से अलंकृत शब्द और अर्थ काव्य कहलाते हैं।
चिंतन:
यह परिभाषा संपूर्ण नहीं है। उदाहरण स्वरूप, कुछ दोषयुक्त रचनाएँ भी अपने रस (भाव) के कारण उत्कृष्ट काव्य मानी जाती हैं।
श्लोक:
"न्यक्कारो ह्ययमेव मे यदरयस्तत्राप्यसौ तापसः।
सोऽप्यत्रैव निहन्ति राक्षसकुलं जीवत्यहो रावणः।।"
यहाँ रचना में दोष होने पर भी उसका रस काव्य को श्रेष्ठ बनाता है।
काव्य का स्वरूप:
निष्कर्ष:
"वाक्यं रसात्मकं काव्यम्।"
अर्थात, रसपूर्ण वाक्य ही काव्य है।
रस का महत्व:
रस काव्य का आत्मा है। बिना रस के काव्य को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
उदाहरण:
"शून्यं वासगृहं विलोक्य शयनादुत्थाय किञ्चिच्छनैः..."
यहाँ शृंगार रस को प्रस्तुत किया गया है।
दोष, गुण और अलंकार:
- दोष:
दोष वे हैं जो काव्य के रस को कम करते हैं, जैसे अशुद्ध शब्द या अप्रसिद्ध अर्थ। - गुण:
गुण काव्य के उत्कर्ष का कारण बनते हैं, जैसे उचित शब्द प्रयोग और भाव। - अलंकार:
अलंकार आभूषण की तरह काव्य को सजाते हैं।
उपसंहार:
साहित्यदर्पण के इस भाग में काव्य को रसात्मक वाक्य के रूप में परिभाषित किया गया है। यह स्पष्ट किया गया है कि काव्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं है, बल्कि धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष को प्राप्त करना भी है। काव्य का रस, गुण, दोष, और अलंकार इसे उत्कृष्ट बनाते हैं।
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