मनुष्य को केवल कृष्णभावनामृत की सुगम विधि का अभ्यास करना होता है, और अपने आपको अनन्य भक्ति में प्रवृत्त करना होता है। किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति को चाह
श्लोक का संदर्भ और अर्थ
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एते च अंशकलाः पुंसःश्लोक में अन्य देवताओं और अवतारों को "अंश" या "कलाएँ" कहा गया है। इसका अर्थ है कि जितने भी देवता, जैसे कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव, या अन्य अवतार (मछ, कच्छप, वराह, वामन आदि), वे सभी भगवान के अंश हैं।
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कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्लेकिन भगवान श्रीकृष्ण स्वयं भगवान हैं। वे किसी अंश या अवतार के रूप में नहीं आए, बल्कि पूर्ण परमेश्वर के रूप में प्रकट हुए।
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इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगेजब-जब अधर्म बढ़ता है और संसार संकट में होता है, तब-तब भगवान धर्म की रक्षा और अधर्म के विनाश के लिए अवतार लेते हैं। श्रीकृष्ण का जन्म भी इसी उद्देश्य से हुआ।
कृष्ण का स्वरूप और महत्त्व
1. श्रीकृष्ण का पूर्णावतार:
श्रीकृष्ण को पूर्णावतार माना गया है। भागवत पुराण और अन्य ग्रंथों में भगवान विष्णु के सभी अवतारों में उन्हें सर्वोच्च स्थान दिया गया है।
- उनका जीवन लीला (खेल) से भरा है, जो यह दर्शाता है कि उनका कार्य केवल संसार को बचाना नहीं, बल्कि भक्ति, प्रेम, और आनंद का प्रसार करना है।
- श्रीकृष्ण के साथ सृष्टि की सभी शक्तियाँ जुड़ी हुई हैं। वे साकार और निराकार दोनों रूपों में पूजनीय हैं।
2. भागवत पुराण में महत्त्व:
- गोलोक धाम: श्रीकृष्ण का निवास गोलोक धाम है, जो वैकुंठ से भी उच्च स्थान पर है।
- वे रासलीला में गोपियों के साथ, गीता के उपदेश में अर्जुन के साथ, और महाभारत के युद्ध में धर्म के लिए कार्यरत रहते हैं।
3. गीता के माध्यम से शिक्षा:
भगवद्गीता में, श्रीकृष्ण ने "अहम् सर्वस्य प्रभवः" (मैं हर चीज का मूल हूं) कहकर यह स्पष्ट किया कि वे ही सर्वोच्च भगवान हैं।
4. भक्ति का केन्द्र:
कृष्ण को सखा, प्रेमी, गुरु, और स्वामी के रूप में पूजा जाता है। उनकी भक्ति में:
- गोपी प्रेम: प्रेम की चरम अवस्था को दिखाता है।
- अर्जुन की भक्ति: कर्म और ज्ञान का मार्ग।
- सुदामा की भक्ति: सच्चे मित्रता का उदाहरण।
दर्शन: "कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्"
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अद्वैत और भक्ति का समन्वय:श्रीकृष्ण न केवल निर्गुण ब्रह्म हैं (जो अद्वैत दर्शन में कहा गया है), बल्कि सगुण ब्रह्म भी हैं।
- निर्गुण रूप में, वे सृष्टि के कण-कण में व्याप्त हैं।
- सगुण रूप में, वे मुरलीधर, गोपाल, और रणछोड़ के रूप में प्रकट होते हैं।
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लीला और तत्वज्ञान:श्रीकृष्ण की हर लीला (चाहे वह माखन चोरी हो, रासलीला, या महाभारत) में गूढ़ तत्व छिपा है। उनकी लीलाएँ यह सिखाती हैं कि:
- प्रेम में स्वार्थ नहीं होना चाहिए।
- धर्म की स्थापना के लिए कर्म करना आवश्यक है।
- अपने कर्तव्य का पालन करें, लेकिन फल की चिंता न करें।
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भक्ति और प्रेम का सर्वोच्च स्वरूप:गोपियों का कृष्ण के प्रति प्रेम, भक्ति की चरम अवस्था को दर्शाता है। यह प्रेम सांसारिक मोह-माया से परे, केवल भगवान की ओर समर्पित है।
श्रीकृष्ण और भक्तिकाल का प्रभाव
1. भक्त कवियों पर प्रभाव:
"कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्" का भाव भारतीय भक्ति आंदोलन में गहराई से पाया जाता है। सूरदास, मीराबाई, और नरोत्तमदास जैसे भक्तों ने श्रीकृष्ण को अपनी रचनाओं का केन्द्र बनाया।
- सूरदास:श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन।
- मीराबाई:श्रीकृष्ण के प्रति अद्वितीय प्रेम और समर्पण।
2. वैष्णव परंपरा:
श्रीकृष्ण को वैष्णव परंपरा में भगवान का सर्वोच्च रूप माना गया है। इस परंपरा में रासलीला, गोवर्धन पूजा, और जन्माष्टमी जैसे उत्सव उनकी दिव्यता को प्रकट करते हैं।
आधुनिक संदर्भ में "कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्"
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शिक्षा:श्रीकृष्ण का जीवन सिखाता है कि:
- कर्म करते रहो, लेकिन अहंकार से दूर रहो।
- प्रेम और भक्ति के माध्यम से जीवन को सुंदर बनाओ।
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प्रेरणा:आज के समय में, जब मनुष्य तनाव और संघर्ष में है, श्रीकृष्ण का संदेश हमें शांत, सकारात्मक, और धर्म के प्रति निष्ठावान रहने की प्रेरणा देता है।
निष्कर्ष
विशेष
- भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, जो अपने सारे कार्यों को मुझमें अर्पित करके तथा अविचलित भाव से मेरी भक्ति करते हुए मेरी पूजा करते हैं और अपने चित्तों को मुझ पर स्थिर करके निरन्तर मेरा ध्यान करते हैं, उनके लिए हे पार्थ! मैं जन्म-मृत्यु के सागर से शीघ्र उद्धार करने वाला हूँ।
- भक्तजन अत्यन्त भाग्यशाली हैं कि भगवान् उनका इस भवसागर से तुरन्त ही उद्धार कर देते हैं। शुद्ध भक्ति करने पर मनुष्य को इसकी अनुभूति होने लगती है कि ईश्वर महान हैं और जीवात्मा उनके अधीन है। उसका कर्त्तव्य है कि वह भगवान् की सेवा करे और यदि वह ऐसा नहीं करता, तो उसे माया की सेवा करनी होगी।
- केवल भक्ति से ही परमेश्वर को जाना जा सकता है। अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह पूर्ण रूप से भक्त बने। भगवान् को प्राप्त करने के लिए वह अपने मन को कृष्ण में पूर्णतया एकाग्र करे। वह कृष्ण के लिए ही कर्म करे। चाहे वह जो भी कर्म करे लेकिन वह कर्म केवल कृष्ण के लिए होना चाहिए। भक्ति का यही आदर्श है।
- शुद्ध भक्त भगवान् को प्रसन्न करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहता। उसके जीवन का उद्देश्य कृष्ण को प्रसन्न करना होता है और कृष्ण की तुष्टि के लिए वह सब कुछ उत्सर्ग कर सकता है जिस प्रकार अर्जुन ने कुरुक्षेत्र के युद्ध में किया था।
- यह विधि अत्यन्त सरल है। मनुष्य अपने कार्य में लगा रह कर भी नाम जप सकता है। निरन्तर जप से भक्त भगवान की ओर स्वयं खिंचा चला जाता है।
- यहाँ पर भगवान् वचन देते हैं कि वे ऐसे शुद्ध भक्त को तुरन्त ही भवसागर से उद्धार कर देंगे, जो योगाभ्यास में बढ़े चढ़े हैं, वे योग द्वारा अपनी आत्मा को इच्छानुसार किसी भी लोक में ले जा सकते हैं और अन्य लोग इस अवसर को विभिन्न प्रकार से उपयोग में लाते हैं, लेकिन जहाँ तक भक्त का सम्बन्ध है, उसके लिए यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि स्वयं भगवान् ही उसे ले जाते हैं।
- भक्त को वैकुण्ठ में जाने के पूर्व अनुभवी बनने के लिए प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। वराह पुराण में एक श्लोक आया है-
नयामि परमं स्थानमर्चिरादिगतिं विना।
गरुडस्कन्धमारोप्य यथेच्छमनिवारितः।।
- तात्पर्य यह है कि वैकुण्ठलोक में आत्मा को ले जाने के लिए भक्त को अष्टांगयोग साधने की आवश्यकता नहीं है। इसका भार भगवान् स्वयं अपने ऊपर लेते हैं। वे यहाँ पर स्पष्ट कर रहे हैं कि वे स्वयं ही उद्धारक बनते हैं।
- बालक अपने माता-पिता द्वारा अपने आप रक्षित होता रहता है, जिससे उसकी स्थिति सुरक्षित रहती है। इसी प्रकार भक्त को योगाभ्यास द्वारा अन्य लोकों में जाने के लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती, अपितु भगवान् अपने अनुग्रहवश स्वयं ही अपने पक्षीवाहन गरुड़ पर सवार होकर तुरन्त आते हैं और भक्त को भवसागर से उबार लेते हैं।
- कोई कितना ही कुशल तैराक क्यों न हो, और कितना ही प्रयत्न क्यों न करे, किन्तु समुद्र में गिर जाने पर वह अपने को नहीं बचा सकता। किन्तु यदि कोई आकर उसे जल से बहार निकाल ले, तो वह आसानी से बच जाता है।
- इसी प्रकार भगवान् भक्त को इस भवसागर से निकाल लेते हैं। मनुष्य को केवल कृष्णभावनामृत की सुगम विधि का अभ्यास करना होता है, और अपने आपको अनन्य भक्ति में प्रवृत्त करना होता है। किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह अन्य समस्त मार्गों की अपेक्षा भक्तियोग को चुने।