दत्तात्रेय मुनि की कथा भागवत पुराण के चतुर्थ स्कंध और ग्यारहवें स्कंध में वर्णित है। दत्तात्रेय भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं और त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) के संयुक्त स्वरूप हैं। वे ज्ञान, वैराग्य और तपस्या के प्रतीक हैं। उनकी कथा में अध्यात्म, भक्ति, और आत्मज्ञान का महत्वपूर्ण संदेश निहित है।
दत्तात्रेय का जन्म
पृष्ठभूमि
दत्तात्रेय के पिता अत्रि मुनि और माता अनसूया थीं। अत्रि मुनि ब्रह्मा के मानस पुत्र और महान तपस्वी थे। उनकी पत्नी अनसूया पतिव्रता और अत्यंत धर्मपरायण थीं।
अत्रि मुनि ने अपनी तपस्या से त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) को प्रसन्न किया और उनसे वरदान माँगा कि वे उनके पुत्र के रूप में जन्म लें। त्रिदेवों ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और दत्तात्रेय के रूप में अवतरित हुए।
श्लोक:
त्रिष्वेकरूपं भगवान्महर्षेरात्तरात्मनः।
दत्तमात्युत्तमं रूपं दत्तात्रेय इति श्रुतः।।
(भागवत पुराण 4.1.17)
भावार्थ:
त्रिदेवों ने अत्रि मुनि के घर पुत्र रूप में जन्म लिया और उनका नाम "दत्तात्रेय" रखा गया, जिसका अर्थ है "दत्त" (दिया गया) और "अत्रेय" (अत्रि के पुत्र)।
दत्तात्रेय का तप और ज्ञान
दत्तात्रेय ने बचपन से ही वैराग्य और तपस्या का मार्ग अपनाया। वे संसार के बंधनों से मुक्त होकर केवल आत्मज्ञान और भक्ति में लीन रहे। उन्होंने अपने जीवन से यह सिखाया कि संसार में रहते हुए भी व्यक्ति माया और आसक्ति से ऊपर उठ सकता है।
चौबीस गुरु की शिक्षा
दत्तात्रेय मुनि ने प्रकृति और संसार से 24 गुरुओं से शिक्षा ली। इन गुरुओं से उन्होंने आत्मज्ञान और आध्यात्मिकता के गूढ़ रहस्यों को समझा।
श्लोक:
पृथिवी वायुराकाशम् आपोऽग्निश्चन्द्रमा रविः।
कपोतोजगरः सिन्धुः पतङ्गः मधुकृद्गजः॥
मधुहा हरिणो मीनः पिङ्गला कुररोऽर्भकः।
कुमारी शरकृत् सर्प ऊर्णनाभिः सुपेशकृत्॥
गुरवो मे बहवः स्मृति भूति कुशार्तवः।
पृथिव्यप्तेजो वाय्वाकाशा मृगगोचराः।।
भावार्थ:
दत्तात्रेय ने कहा, "मेरे कई गुरु हैं। मैंने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, पशु-पक्षियों और अन्य जीवों से शिक्षा ली है।"
चौबीस गुरुओं का वर्णन
यह श्लोक श्रीमद्भागवत महापुराण के ग्यारहवें स्कंध (अध्याय 7) में आता है। यह श्लोक महर्षि दत्तात्रेय द्वारा राजा यदु को 24 गुरुओं का वर्णन करते हुए कहा गया है। इसमें उन्होंने बताया है कि प्रकृति, प्राणी, और वस्तुओं से उन्होंने जीवन के गूढ़ सत्य सीखे और उन्हें अपने गुरु के रूप में स्वीकार किया।
श्लोक:
पृथिवी वायुराकाशम् आपोऽग्निश्चन्द्रमा रविः।
कपोतोजगरः सिन्धुः पतङ्गो मधुकृद्गजः॥
मधुहा हरिणो मीनः पिङ्गला कुररोऽर्भकः।
कुमारी शरकृत् सर्प ऊर्णनाभिः सुपेशकृत्॥
श्लोक का अर्थ:
"पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चंद्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंगा, मधुमक्खी, हाथी, शिकारी (मधुहा), हिरण, मछली, पिंगला नामक वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुमारी कन्या, बाण बनाने वाला, सर्प, मकड़ी, और भृंगी (सुपेशकृत) - ये सब मेरे गुरु हैं।"
दत्तात्रेय द्वारा 24 गुरुओं से सीखी गई शिक्षाएं:
- पृथ्वी: सहनशीलता और क्षमा।
- वायु: निर्लिप्तता।
- आकाश: आत्मा की व्यापकता।
- जल: शुद्धता और सेवा का महत्व।
- अग्नि: आत्मा की शुद्धता और तेजस्विता।
- चंद्रमा: भौतिक परिवर्तनों के बावजूद आत्मा का स्थायित्व।
- सूर्य: परोपकार और निस्वार्थता।
- कबूतर: आसक्ति से होने वाले दुख।
- अजगर: संतोष और धैर्य।
- समुद्र: संयम और मर्यादा।
- पतंगा: इंद्रिय सुखों के प्रति अनियंत्रित आकर्षण का विनाशकारी परिणाम।
- मधुमक्खी: आवश्यकता से अधिक संग्रह करने का त्याग।
- हाथी: वासनाओं का नियंत्रण।
- शिकारी (मधुहा): लोभ और लालच का परिणाम।
- हिरण: ध्यान और एकाग्रता का महत्व।
- मछली: लालच से बचने की सीख।
- पिंगला (वेश्या): निराशा से वैराग्य और भक्ति की ओर बढ़ना।
- कुरर पक्षी: संग्रह के त्याग का महत्व।
- बालक: निर्दोषता और आनंदमय जीवन।
- कुमारी कन्या: एकांत और आत्मसंयम।
- बाण बनाने वाला: कार्य में एकाग्रता।
- सर्प: अकेले रहना और अनावश्यक संपर्क से बचना।
- मकड़ी (ऊर्णनाभि): सृष्टि की रचना और लय का ज्ञान।
- भृंगी (सुपेशकृत): ध्यान और एकाग्रता का प्रभाव।
महत्व:
दत्तात्रेय जी ने इन 24 गुरुओं से जो शिक्षाएं ग्रहण कीं, वे जीवन के हर पहलू को सरलता से समझाती हैं। यह श्लोक हमें सिखाता है कि हम अपने चारों ओर की प्रकृति और घटनाओं से भी महत्वपूर्ण जीवन दर्शन प्राप्त कर सकते हैं। यह आत्मज्ञान, वैराग्य, और भक्ति का मार्ग दिखाने वाला अद्भुत उदाहरण है।
श्लोक:
एते मम गुरवो राजंस्तावदात्मकृतात्मनः।
शिष्यार्थं शिक्षयन्ति स्म यथावदनुपूर्वशः।।
(भागवत पुराण 11.9.23)
भावार्थ:
दत्तात्रेय ने कहा, "इन गुरुओं से मैंने यह सीखा कि आत्मा को स्वतंत्र और निर्मल बनाए रखना ही सच्चा ज्ञान है।"
दत्तात्रेय की शिक्षाएँ
1. भक्ति और ज्ञान का समन्वय:
दत्तात्रेय ने सिखाया कि भक्ति और ज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं। भगवान का स्मरण और आत्मज्ञान से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
2. संसार में निर्लिप्त रहना:
उन्होंने कहा कि व्यक्ति को संसार में रहते हुए भी माया और आसक्ति से बचना चाहिए।
3. प्रकृति से शिक्षा लेना:
प्रकृति के हर तत्व और जीव से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है।
दत्तात्रेय का वैराग्यपूर्ण जीवन
दत्तात्रेय ने सांसारिक बंधनों को त्यागकर पूरे जीवन आत्मज्ञान, ध्यान और भक्ति में बिताया। वे कभी-कभी नग्न अवस्था में विचरण करते, जिससे उनकी पूर्ण वैराग्य भावना का पता चलता है।
भागवत पुराण में दत्तात्रेय के उपदेश
भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कंध में दत्तात्रेय ने राजा यदु को आत्मज्ञान का उपदेश दिया। उन्होंने बताया कि आत्मा शाश्वत है, और संसारिक सुख-दुःख केवल माया का खेल है।
श्लोक:
आत्मन्यवस्थितं विश्वं स्वप्नोऽवभासवत्तथा।
विपर्ययधियां चेतो विक्षिप्तं वितथं स्मृतम्।।
(भागवत पुराण 11.10.3)
भावार्थ:
"यह सारा संसार आत्मा में ही स्थित है, जैसे स्वप्न में दृश्य होते हैं। केवल माया के कारण इसे सत्य माना जाता है।"
कथा का संदेश
1. आत्मज्ञान का महत्व:
दत्तात्रेय ने सिखाया कि आत्मा का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है।
2. वैराग्य और तपस्या:
उन्होंने बताया कि संसार में रहते हुए भी माया और आसक्ति से बचना ही मोक्ष का मार्ग है।
3. प्रकृति से शिक्षा:
उन्होंने प्रकृति और साधारण जीवों से जीवन के महत्वपूर्ण पाठ सीखने का महत्व बताया।
4. भक्ति और समर्पण:
दत्तात्रेय ने भगवान के प्रति भक्ति और समर्पण को जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य बताया।
निष्कर्ष
दत्तात्रेय मुनि की कथा हमें भक्ति, वैराग्य, और आत्मज्ञान का महत्व सिखाती है। उनका जीवन एक आदर्श प्रस्तुत करता है कि व्यक्ति कैसे प्रकृति और संसार से शिक्षा लेकर भगवान के प्रति समर्पित हो सकता है। भागवत पुराण में उनकी शिक्षाएँ हर युग में प्रासंगिक और प्रेरणादायक हैं।
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