चौपाई:
"सीता राम चरण रति मोरे।
अनु दिन बढ़उ अनुग्रह तोरे।।"
चौपाई का अर्थ:
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"सीता राम चरण रति मोरे":
भगवान श्रीराम और माता सीता के चरणों में मेरी अनन्य भक्ति बनी रहे। यह भक्ति मेरी आत्मा का आधार बने और मेरी भावना सदा उनके चरणों में ही स्थिर रहे। -
"अनु दिन बढ़उ अनुग्रह तोरे":
हे प्रभु! आपके अनुग्रह (कृपा) से मेरी यह भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती रहे। यह भक्ति मेरी आत्मा में स्थायी रूप से अंकुरित हो और हर क्षण बढ़ती रहे।
चौपाई का भावार्थ:
यह चौपाई भक्त की उस अवस्था को दर्शाती है जब उसका समर्पण पूर्ण हो चुका होता है। भक्त केवल यही चाहता है कि उसकी भक्ति भगवान राम और माता सीता के चरणों में स्थिर और निरंतर बढ़ती रहे। इस प्रार्थना में भगवान की कृपा (अनुग्रह) को सर्वोपरि माना गया है, क्योंकि बिना उनकी कृपा के भक्ति स्थिर नहीं रह सकती।
व्याख्या:
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भक्ति का महत्व:
यह चौपाई भक्ति की शक्ति और उसकी गहराई को रेखांकित करती है। भगवान राम और माता सीता के चरणों में अनन्य भक्ति व्यक्ति को हर प्रकार के संसारिक मोह और बंधन से मुक्त कर सकती है। -
कृपा का स्थान:
भक्त यह स्वीकार करता है कि भक्ति का आधार स्वयं भगवान की कृपा है। मानव अपने प्रयासों से भक्ति को प्राप्त कर सकता है, परंतु उसे स्थिर और बढ़ाने के लिए भगवान की अनुकंपा अनिवार्य है। -
आध्यात्मिक यात्रा:
यह प्रार्थना आत्मा की आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक है। भक्त अपने जीवन का लक्ष्य भगवान के चरणों की भक्ति को मानता है और यह चाहता है कि उसकी भक्ति में निरंतरता और वृद्धि हो।
प्रेरणा और संदेश:
- भगवान राम और माता सीता का नाम प्रेम और समर्पण का प्रतीक है। इस चौपाई से हमें यह शिक्षा मिलती है कि संसार की अस्थिरता और परेशानियों से ऊपर उठकर, हमें अपने जीवन में एक ऐसा केंद्र बनाना चाहिए जो शाश्वत हो।
- यह चौपाई यह भी सिखाती है कि भक्ति स्थिर और पवित्र तभी रह सकती है जब उसे भगवान का आशीर्वाद प्राप्त हो।
आधुनिक संदर्भ:
आज के समय में, जब व्यक्ति कई प्रकार की चिंता और अस्थिरता से घिरा हुआ है, यह चौपाई हमें भगवान में विश्वास और भक्ति के माध्यम से मानसिक शांति और आत्मिक संतोष का मार्ग दिखाती है।
"हे प्रभु, मेरी भक्ति को स्थिर और प्रगाढ़ बनाएँ। यही मेरा जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है।"
सीताराम अर्थात शक्ति (सीता) और ब्रम्ह (राम) के प्रति मेरा पूर्ण समर्पण हो और हे प्रभु यह हर पल, हर दिन निरंतर बढ़ता रहे जिससे सांसारिक माया और बन्धनों से मुक्ति मिलती रहे।
जब तक यह बंधन होगा हर भक्ति (नवधा) मैं शर्त होगी जबकि भक्ति में शर्त नहीं समर्पण होना चाहिए!
आज हम कभी मंदिर जाते है तो प्रभु को भी तरह तरह का प्रलोभन देकर, कि प्रभु मेरा यह काम हो जायेगा, तो मैं सवा किलो लड्डू चढाउगा, या आपका ब्रत रखूंगा, आदि आदि।
तो भाइया न तो प्रभु को लड्डू की जरूरत है, और न ब्रत की। वे तो आपकी निस्वार्थ भाव से भक्ति के भूखे हैं।
यहां तक तो ठीक है, यदि भगवान से काम नहीं हुआ, तो जैसे आजकल नेता प्रार्टी बदलते हैं, वे भगवान ही बदल देते है, हमें खुद तो कुछ करना नहीं है सब भगवान ही करेंगे।
तुलसी दास जी मानस मे लिखते हैं कि -
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी।
जिमि बालक राखइ महतारी॥
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई।
तहँ राखइ जननी अरगाई॥
भगवान कहते है कि मै अपने भक्तों कि सदा उनकी वैसे ही रखवाली करता हूँ, जैसे माता बालक की रक्षा करती है। छोटा बच्चा जब दौड़कर आग और साँप को पकड़ने जाता है, तो वहाँ माता उसे (अपने हाथों) अलग करके बचा लेती है॥
वैसे मै हमेशा तत्पर रहता हूँ, बश मेरा भक्ति मुझमें विश्वास तो करें, हमें पुकारे तो।
एक बात यह भी जान लो जितना आपको प्रभु की जरूरत है, उससें कही ज्यादा उन्हें आपकी जरूरत है, बस आपके समर्पण की जरूरत है। वे तो आपके लिए बेचैन है, गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है कि -
अनन्याश्चिंतयन्तो मां ये जाना पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योग-क्षेमं वहाम्यहम्।।
कुछ ऐसे भी हैं जो सदा मेरा ही चिन्तन करते हैं और मेरी अनन्य भक्ति में लगे रहते हैं। उनके लिए, जिनका मन हमेशा मुझमें लीन रहता है, मैं उन्हें वह प्रदान करता हूं जो उनके पास है और जो उनके पास पहले से है उसे संरक्षित करता हूं।
एक कहानी के माध्यम से समझते हैं -
परम सिध्द सन्त रामदास जी जब प्रार्थना करते थे तो कभी उनके होंठ नही हिलते थे !
शिष्यों ने पूछा - हम प्रार्थना करते हैं, तो होंठ हिलते हैं।
आपके होंठ नहीं हिलते ? आप पत्थर की मूर्ति की तरह खडे़ हो जाते हैं। आप कहते क्या है अन्दर से ?
क्योंकि अगर आप अन्दर से भी कुछ कहेंगे, तो होंठो पर थोड़ा कंपन आ ही जाता है। चहेरे पर बोलने का भाव आ जाता है।लेकिन वह भाव भी नहीं आता !
सन्त रामदास जी ने कहा - मैं एक बार राजधानी से गुजरा और राजमहल के सामने द्वार पर मैंने सम्राट को खडे़ देखा, और एक भिखारी को भी खडे़ देखा !
वह भिखारी बस खड़ा था। फटे--चीथडे़ थे शरीर पर। जीर्ण - जर्जर देह थी, जैसे बहुत दिनो से भोजन न मिला हो !
शरीर सूख कर कांटा हो गया। बस आंखें ही दीयों की तरह जगमगा रही थी। बाकी जीवन जैसे सब तरफ से विलीन हो गया हो !
वह कैसे खड़ा था यह भी आश्चर्य था। लगता था अब गिरा -तब गिरा !
सम्राट उससे बोला - बोलो क्या चाहते हो ?
उस भिखारी ने कहा - अगर मेरे आपके द्वार पर खडे़ होने से, मेरी मांग का पता नहीं चलता, तो कहने की कोई जरूरत नहीं !
क्या कहना है और ? मै द्वार पर खड़ा हूं, मुझे देख लो। मेरा होना ही मेरी प्रार्थना है। "
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा।
करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
सन्त रामदास जी ने कहा -उसी दिन से मैंने प्रार्थना बंद कर दी। मैं परमात्मा के द्वार पर खड़ा हूं। वह देख लेगें । मैं क्या कहूं ?
हामरा तो मानना है -
अब कछु नाथ ना चाहिए मोरे।
दीनदयाल अनुग्रह तोरे।।
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