"आत्मा" और "परमात्मा" की दो परम सत्ताओं के परस्पर मिलन के प्रयत्न को ही 'योग' कहते हैं। 'योग' शब्द का अर्थ ही जोड़ना या मिलन है। किसका जोड़ किससे जोड़
"आत्मा और परमात्मा का योग"
आत्मा और परमात्मा का परिचय
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आत्मा (जीवात्मा):आत्मा वह चैतन्य तत्व है, जो प्रत्येक जीव के भीतर स्थित है। इसे शाश्वत, अविनाशी और सत्य माना गया है। भगवद्गीता (2.20) के अनुसार:"न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।"(आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है, यह सदा के लिए अजर, अमर और शाश्वत है।)
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परमात्मा:परमात्मा को ब्रह्म, ईश्वर, या सर्वव्यापी चेतना के रूप में जाना जाता है। वह सृष्टि का मूल स्रोत और संचालनकर्ता है। परमात्मा सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, और सर्वत्र व्याप्त है। उपनिषदों में इसे अद्वैत सत्य के रूप में वर्णित किया गया है।"सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म।"(ब्रह्म सत्य है, ज्ञानमय है और अनंत है।)
आत्मा और परमात्मा का संबंध
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उपनिषदों का दृष्टिकोण:उपनिषदों में आत्मा और परमात्मा के संबंध को "अद्वैत" (अभेद) के रूप में समझाया गया है।"अहम् ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) और "तत्त्वमसि" (तू वही है) जैसे महावाक्य बताते हैं कि आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है।
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योग का दृष्टिकोण:पतंजलि योग सूत्रों में आत्मा और परमात्मा का योग "कैवल्य" कहा गया है, जहाँ जीवात्मा अपनी सीमाओं को पार करके परमात्मा के साथ एक हो जाती है।
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भगवद्गीता का दृष्टिकोण:गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:"ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।"(सभी जीव मेरी ही सनातन अंश हैं।)आत्मा परमात्मा का ही अंश है, और दोनों का संबंध अभिन्न है।
आत्मा और परमात्मा के योग का अर्थ
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योग का परिभाषा:"योग" का अर्थ है मिलन। आत्मा और परमात्मा का योग मनुष्य की चेतना का उच्चतम अवस्था में पहुँच जाना है।
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अद्वैत का सिद्धांत:आत्मा और परमात्मा के योग का अर्थ अद्वैत सिद्धांत में वर्णित है, जहाँ दोनों का भेद समाप्त हो जाता है और आत्मा परमात्मा के साथ एकरूप हो जाती है।
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साधना और भक्ति:आत्मा और परमात्मा का योग ध्यान, साधना, और भक्ति के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।
आत्मा और परमात्मा का योग कैसे संभव है?
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ज्ञान योग:आत्मा और परमात्मा के योग का पहला चरण है आत्मा के स्वभाव और परमात्मा के स्वभाव को समझना।
- उपनिषदों के अध्ययन से व्यक्ति अपने भीतर की आत्मा को जान सकता है।
- "नेति नेति" (यह नहीं, यह नहीं) के माध्यम से व्यक्ति को यह अनुभव होता है कि वह आत्मा है और शरीर, मन, या बुद्धि नहीं।
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भक्ति योग:भगवान के प्रति प्रेम और समर्पण आत्मा और परमात्मा के योग का सबसे सरल मार्ग है।
- संत तुलसीदास और मीरा बाई ने भक्ति योग के माध्यम से परमात्मा का अनुभव किया।
- गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं:"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।"(भक्ति के माध्यम से ही मुझे समझा जा सकता है।)
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ध्यान योग:ध्यान योग में व्यक्ति अपनी चेतना को परमात्मा पर केंद्रित करता है। यह प्रक्रिया व्यक्ति को आत्मा और परमात्मा के योग की ओर ले जाती है।
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कर्म योग:निष्काम कर्म के माध्यम से, व्यक्ति आत्मा और परमात्मा के बीच संबंध स्थापित कर सकता है। गीता में कहा गया है:"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"(कर्म करो, लेकिन फल की इच्छा मत करो।)
आत्मा और परमात्मा के योग का प्रभाव
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आध्यात्मिक उन्नति:आत्मा और परमात्मा का योग व्यक्ति को आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान प्रदान करता है।
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सांसारिक दुखों से मुक्ति:जब आत्मा और परमात्मा का योग होता है, तो व्यक्ति जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।
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आत्मिक शांति:आत्मा और परमात्मा के योग से व्यक्ति को आंतरिक शांति और आनंद का अनुभव होता है।
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मोक्ष:आत्मा और परमात्मा का योग मोक्ष की ओर ले जाता है, जो भारतीय दर्शन में जीवन का अंतिम लक्ष्य है।
आधुनिक जीवन में आत्मा और परमात्मा का योग
आज के युग में, आत्मा और परमात्मा का योग और भी महत्वपूर्ण हो गया है। तनाव, चिंता, और भौतिकता के बीच, यह योग व्यक्ति को शांति और उद्देश्य प्रदान करता है।
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योग और ध्यान का महत्व:आधुनिक जीवन में, योग और ध्यान आत्मा और परमात्मा के योग का एक सरल माध्यम है।
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आध्यात्मिक जागरूकता:आत्मा और परमात्मा का योग व्यक्ति को आत्म-जागरूकता और सही दिशा में प्रेरित करता है।
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भक्ति और सेवा:भगवान के प्रति प्रेम और समाज की सेवा के माध्यम से व्यक्ति आत्मा और परमात्मा के योग को प्राप्त कर सकता है।
निष्कर्ष
"आत्मा और परमात्मा का योग" भारतीय दर्शन का केंद्रीय सिद्धांत है। यह योग न केवल व्यक्तिगत चेतना को उच्चतम अवस्था में ले जाता है, बल्कि जीवन को आनंद, शांति, और संतोष से भर देता है।
आत्मा और परमात्मा का योग हमें यह सिखाता है कि हमारी आत्मा परमात्मा का ही अंश है और उसका अंतिम लक्ष्य उसी में विलीन होना है। यह योग जीवन को सही दिशा और उद्देश्य प्रदान करता है, जिससे व्यक्ति मोक्ष और ब्रह्मानंद प्राप्त करता है।
"आत्मा" और "परमात्मा" की दो परम सत्ताओं के परस्पर मिलन के प्रयत्न को ही 'योग' कहते हैं। 'योग' शब्द का अर्थ ही जोड़ना या मिलन है। किसका जोड़ किससे जोड़-इसका एक ही उत्तर है "आत्मा" से "परमात्मा" का मिलन। यह प्रक्रिया संपन्न की जा सके तो उसके परिणाम और फलितार्थ भी उतने ही अद्भुत हो सकते हैं जितने कि ये दोनों तत्त्व स्वयं में अद्भुत हैं। बूँद समुद्र में मिल जाए, तो वह खोती कुछ नहीं अपनी व्यापकता बढ़ाकर स्वयं समुद्र बन जाती है। पानी दूध में मिलकर कुछ खोता नहीं, अपना मूल्य ही बढ़ा लेता है। लोहा पारस को छूकर घाटे में थोड़े ही रहता है। यह स्पर्श उसके सम्मान की वृद्धि ही करता है। "आत्मा" और "परमात्मा" का मिलन निस्संदेह आत्मा के लिए बहुत ही श्रेयस्कर है, पर इसके योगदान से परमात्मा भी कम प्रसन्न नहीं होता। इस व्यक्त विश्व में उसकी अव्यक्त सत्ता रहस्यमय ही बनी रहती है, जो हो रहा है वह परदे के पीछे अदृश्य ही तो है। उसे मूर्तिमान दृश्य बनाने के लिए ही तो यह विश्व सृजा गया था। जड़ पदार्थों से वह प्रयोजन पूरा कहाँ होता है। चैतन्य जीवधारी के बिना इस धरती का समस्त वैभव सूना अनजाना ही पड़ा रहेगा।
पदार्थों का मूल्य तभी है जब उनका उपयोग संभव हो और उपयोग "चेतन आत्मा" ही कर सकती है। इस विश्व में जो चेतन समाया हुआ है उसका प्रतीक प्रतिनिधि मनुष्य है। मनुष्य के सहयोग के बिना परमात्मा का वह प्रयोजन पूरा नहीं होता, जिसके निमित्त इस सृष्टि को सृजा गया था। परमेश्वर अकेला था, उसने बहुत होने की इच्छा की। बहुत बने तो जरूर पर यदि उसके अनुरूप, उस जैसे न हुए तो उस सृजन का उद्देश्य कहाँ पूरा हुआ ? आनंद तो समान स्तर की उपलब्धि में होता है। बंदर और सूअर का साथ कहाँ जमेगा ? आदमी की शादी कुतिया से कैसे होगी ? पानी में लोहा कैसे घुलेगा ? बच्चों का खेल बच्चों में और विद्वानों की गोष्ठी विद्वानों में जमती है, हलवाई और पहलवान का संग कब तक चलेगा ? कसाई और पंडित की दिशा अलग है। मनुष्यों में ऐसे भी कम नहीं हैं जो परमेश्वर की इच्छा और दिशा से बिल्कुल विमुख होकर चलते हैं। असुरता को पसंद और वरण करने वाले लोगों की कमी कहाँ है ? सच पूछा जाए तो माया ने सभी की बुद्धि को तमसाछन्न बनाकर अज्ञानांधकार में भटका दिया है और वे सुख की तलाश आत्म तत्त्व में करने की अपेक्षा उन जड़ पदार्थों में करते हैं जहाँ उसके मिलन की कोई संभावना नहीं है। मृगतृष्णा में भटकने का दोष बेचारे नासमझ हिरन पर ही लगाया जाता है।
वस्तुतः हम सब "समझदार" कहलाने पर भी "नासमझ" की भूमिका ही प्रस्तुत कर रहे हैं और आत्मानुभूतियों का द्वार खोलने की अपेक्षा जड़ पदार्थों में सुख पाने-बालू में तेल निकालने जैसी विडंबनाओं में उलझे पड़े हैं। जिस उपहासास्पद स्थिति में हमारा चेतन उलझ गया है उसमें न उसे सुख मिलता है न शांति ही, उलटी शोक-संताप भरी उलझनें ही सामने आकर खिन्नता उत्पन्न करती हैं।