अभिधामूल व्यंजना का विस्तृत विवरण |
अभिधामूल व्यंजना का विस्तृत विवरण:
"सशङ्खचक्रो हरिः' इति शङ्खचक्रयोगेन हरिशब्दो विष्णुमेवाभिधत्ते।"
- सशङ्खचक्रः (शंख और चक्र से युक्त)
- हरिः (हरि)
- इति (इस प्रकार)
- शङ्खचक्र-योगेन (शंख और चक्र के संबंध से)
- हरि-शब्दः (हरि शब्द)
- विष्णुमेव (केवल विष्णु को)
- अभिधत्ते (अभिव्यक्त करता है)।
अनुवाद: "सशङ्खचक्रः हरिः" (शंख और चक्र से युक्त हरि) में शंख और चक्र के संबंध के कारण हरि शब्द केवल विष्णु को व्यक्त करता है।
"अशङ्खचक्रो हरिः' इति तद्वियोगेन तमेव।"
- अशङ्खचक्रः (शंख और चक्र के बिना)
- हरिः (हरि)
- इति (इस प्रकार)
- तद्वियोगेन (उसके अभाव से)
- तमेव (उसी को)।
अनुवाद: "अशङ्खचक्रो हरिः" (शंख और चक्र के बिना हरि) में उनके अभाव के कारण हरि शब्द फिर भी विष्णु को ही व्यक्त करता है।
लक्षणामूल व्यंजना:
"गङ्गायां घोषः' इत्यादौ जलमयाद्यर्थबोधनादभिधायां तटाद्यर्थबोधनाच्च लक्षणायां विरतायां यया शीतत्वपावनत्वाद्यतिशयादिर्बोध्यते।"
- गङ्गायां घोषः ("गंगा में गांव")
- इत्यादौ (आदि में)
- जलमय-आदि-अर्थ-बोधनात् (जलमय आदि अर्थ व्यक्त करने से)
- अभिधायाम् (अभिधा में)
- तट-आदि-अर्थ-बोधनात् (तट आदि का अर्थ व्यक्त करने से)
- लक्षणायां (लक्षणा में)
- विरतायाम् (समाप्त होने पर)
- यया (जिससे)
- शीतत्व-पावनत्व-आदि-अतिशयादिः (शीतलता, पवित्रता आदि विशेषता)
- बोध्यते (बोध कराई जाती है)।
अनुवाद: "गङ्गायां घोषः" (गंगा में गांव) में अभिधा द्वारा जल का बोध होता है, लक्षणा द्वारा तट का, और जब ये समाप्त हो जाते हैं, तो व्यंजना द्वारा शीतलता और पवित्रता जैसे विशेष गुणों का बोध होता है।
प्रस्ताव, देश, और समय से उत्पन्न व्यंजना:
"वक्तृबोद्धव्यवाक्यानामन्यसंनिधिवाच्ययोः।
प्रस्तावदेशकालानां काकोश्चेष्टादिकस्य च।"
- वक्तृ-बोद्धव्य-वाक्यानाम् (वक्ता, श्रोता और वाक्य के)
- अन्य-संनिधि-वाच्ययोः (दूसरे की उपस्थिति से संबंधित)
- प्रस्ताव-देश-कालानाम् (प्रस्ताव, स्थान और समय के)
- काक-उच्चेष्ट-आदिकस्य च (कौवे की गतिविधियों आदि के)।
अनुवाद: व्यंजना वक्ता, श्रोता, और वाक्य, या अन्य की उपस्थिति, प्रस्ताव, स्थान, समय, और कौवे की गतिविधियों से भी उत्पन्न हो सकती है।
व्यंजना का उदाहरण:
"कालो मधुः कुपित एष च पुष्पधन्वा।"
- कालः (वसंत ऋतु)
- मधुः (मधुर)
- कुपितः (क्रोधित)
- एषः (यह)
- च (और)
- पुष्पधन्वा (कामदेव)।
अनुवाद: "वसंत ऋतु मधुर है, लेकिन कामदेव क्रोधित हैं।" इसमें वसंत के सौंदर्य और कामदेव की ऊर्जा का गूढ़ बोध व्यंजना के माध्यम से होता है।
त्रैविध्य में व्यंजना का स्थान:
"त्रैविध्यादियमर्थानां प्रत्येकं त्रिविधा मता।"
- त्रैविध्यात् (तीन प्रकारों से)
- इयम् (यह)
- अर्थानाम् (अर्थों की)
- प्रत्येकं (प्रत्येक को)
- त्रिविधा (तीन प्रकार की)
- मता (मानी गई)।
अनुवाद: अर्थों के तीन प्रकार (वाच्य, लक्ष्य, और व्यंग्य) के आधार पर व्यंजना को भी तीन प्रकारों में विभाजित किया गया है।
निष्कर्ष:
यह पाठ व्यंजना, लक्षणा, और अभिधा की बारीकियों को गहराई से समझाने का प्रयास करता है। इसमें प्रत्येक शक्ति का स्वरूप, उनके भेद, और उनके उपयोग के उदाहरण दिए गए हैं। यह दृष्टिकोण काव्य और भाषा की समृद्धि को उजागर करता है।
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