"धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो" का गहन विश्लेषण

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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"धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो" का गहन विश्लेषण श्रीमद्भागवत महापुराण (1.1.2) के संदर्भ में किया जाता है। यह वाक्य श्रीमद्भागवत की विषय-वस्तु और उद्देश्य का सार प्रस्तुत करता है। इसमें धर्म के वास्तविक स्वरूप और उसके शुद्ध रूप का वर्णन किया गया है।


1. श्लोक का संदर्भ

श्रीमद्भागवत 1.1.2:

धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां वेद्यं।
वास्तवम् अत्र वस्तु शिवदं ताप्त्रयोन्मूलनं।
श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैः ईश्वरः।
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिः तत्क्षणात्॥

अनुवाद:

"इस ग्रंथ में धर्म के सभी प्रकार के कपट (कैतव) को त्यागकर केवल शुद्ध और परम धर्म का वर्णन किया गया है। यह निर्मल हृदय वाले साधुओं के लिए जानने योग्य है। इसमें वास्तविक सत्य का वर्णन है, जो केवल कल्याणकारी है और तीनों प्रकार के कष्टों को समाप्त करता है।"


2. "धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो" का शब्द-शब्द विश्लेषण

  1. धर्मः:

    • धर्म का सामान्य अर्थ है "कर्तव्य" या "जीवन का सही मार्ग"।
    • यहाँ "धर्मः" का अर्थ "परम धर्म" है, जो शुद्ध भक्ति है। यह भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति और उनके प्रति पूर्ण समर्पण को संदर्भित करता है।
  2. प्रोज्झित:

    • "प्रोज्झित" का अर्थ है "त्याग देना" या "पूरी तरह हटा देना"।
    • यहाँ इसका तात्पर्य है कि इस ग्रंथ में उन धर्मों को हटा दिया गया है, जो कपट, स्वार्थ, और सांसारिक इच्छाओं से प्रेरित हैं।
  3. कैतवः:

    • "कैतव" का अर्थ है "कपट", "छल", या "स्वार्थपरता"।
    • इसका संदर्भ उन धर्मों से है, जो स्वार्थी उद्देश्यों (जैसे अर्थ, काम, और मोक्ष) की पूर्ति के लिए अपनाए जाते हैं।
    • यहाँ कपट धर्म से तात्पर्य उन धार्मिक कार्यों से है, जो केवल भौतिक लाभ या व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए किए जाते हैं।
  4. अत्र:

    • "अत्र" का अर्थ है "यहाँ", अर्थात श्रीमद्भागवत महापुराण में।
  5. परमो:

    • "परम" का अर्थ है "सर्वोच्च", "श्रेष्ठ", या "अत्यंत पवित्र"।
    • यहाँ इसका तात्पर्य शुद्ध भक्ति के सर्वोच्च धर्म से है, जो भगवान श्रीकृष्ण को पूर्ण रूप से समर्पित है।

संयुक्त अर्थ:

"इस ग्रंथ में धर्म के सभी प्रकार के कपटों को पूरी तरह त्याग दिया गया है और केवल परम और शुद्ध धर्म का वर्णन किया गया है।"


3. दार्शनिक और आध्यात्मिक अर्थ

(i) शुद्ध धर्म का स्वरूप:

  • "परमो धर्मः" का तात्पर्य है कि श्रीमद्भागवत में केवल उस धर्म का वर्णन है, जो भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति पर आधारित है।
  • यह धर्म स्वार्थ, कपट, और भौतिक लाभों से रहित है। इसे "निःस्वार्थ भक्ति" या "शुद्ध भक्ति" कहा गया है।

(ii) कपट धर्म का त्याग:

  • "प्रोज्झितकैतवः" यह संकेत करता है कि श्रीमद्भागवत में उन सभी धार्मिक कृत्यों को त्याग दिया गया है, जो:
    • व्यक्तिगत लाभ (जैसे धन, प्रसिद्धि, या स्वर्ग प्राप्ति) के लिए किए जाते हैं।
    • धर्म का उपयोग सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए करते हैं।
    • भगवान की भक्ति के शुद्ध स्वरूप से भटकाते हैं।

(iii) धर्म का अंतिम उद्देश्य:

  • धर्म का वास्तविक उद्देश्य आत्मा को भगवान से जोड़ना और परम शांति प्राप्त करना है।
  • "कैतव धर्म" वह है, जो इस उद्देश्य से भटकाता है और भौतिक इच्छाओं में उलझा रहता है।

(iv) शुद्ध भक्ति:

  • श्रीमद्भागवत में प्रस्तुत "परम धर्म" केवल शुद्ध भक्ति (प्रेममय भक्ति) है, जो भगवान श्रीकृष्ण को पूर्ण समर्पण के साथ की जाती है।
  • यह धर्म किसी भी फल की इच्छा से मुक्त है, जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता (9.27-28) में वर्णित है: "जो कुछ भी तुम करते हो, जो कुछ भी तुम खाते हो, उसे मेरे लिए अर्पण करो।"

4. मानव जीवन में "धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो" का महत्व

(i) भक्ति का सर्वोच्च मार्ग:

  • यह वाक्य सिखाता है कि भक्ति का मार्ग सबसे सरल, सीधा, और प्रभावी है।
  • यह भक्ति कपट और स्वार्थ से रहित होनी चाहिए, तभी वह भगवान के साथ जुड़ने में सहायक होती है।

(ii) धर्म के नाम पर कपट का त्याग:

  • आज के युग में, जहाँ धर्म का उपयोग स्वार्थ और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए किया जाता है, यह संदेश अत्यंत प्रासंगिक है।
  • धर्म को केवल सच्चाई, निःस्वार्थता, और शुद्ध प्रेम के साथ अपनाया जाना चाहिए।

(iii) आत्मा की शुद्धि:

  • शुद्ध भक्ति आत्मा को सांसारिक बंधनों और इच्छाओं से मुक्त करती है। यह हमें भगवान के प्रति प्रेम और समर्पण सिखाती है।

5. आधुनिक संदर्भ में "धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो"

(i) धार्मिक पाखंड का नाश:

  • यह वाक्य धर्म के नाम पर होने वाले पाखंड और स्वार्थपूर्ण कृत्यों को नकारता है।
  • यह प्रेरणा देता है कि धर्म को केवल भगवान की शरणागति और आत्मा की शुद्धि के लिए अपनाना चाहिए।

(ii) सच्चा अध्यात्म:

  • "परमो धर्मः" आज के जटिल और भौतिकतावादी जीवन में सच्चे अध्यात्म की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
  • यह दर्शाता है कि आत्मा का अंतिम लक्ष्य भगवान की भक्ति और उनके साथ संबंध स्थापित करना है।

(iii) शांति और संतोष:

  • कपट और स्वार्थ से रहित धर्म हमें मानसिक शांति और आत्मिक संतोष प्रदान करता है, जो आधुनिक जीवन में अत्यंत दुर्लभ है।

6. निष्कर्ष

"धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो" यह स्पष्ट करता है कि श्रीमद्भागवत महापुराण का उद्देश्य केवल शुद्ध और निःस्वार्थ भक्ति का प्रचार करना है। यह धर्म के उन सभी स्वरूपों को नकारता है, जो स्वार्थ, कपट, और सांसारिक इच्छाओं से प्रेरित हैं।

यह वाक्य हमें सिखाता है:

  1. धर्म का वास्तविक स्वरूप भगवान की भक्ति है।
  2. धर्म को निःस्वार्थ, कपट-रहित, और प्रेमपूर्ण होना चाहिए।
  3. यह जीवन में शांति, संतोष, और भगवान के प्रति समर्पण का मार्ग दिखाता है।

"धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो" का संदेश है कि सच्चा धर्म केवल भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति में है, और यही जीवन का अंतिम उद्देश्य है।

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