लक्षणा का विस्तार |
लक्षणा का विस्तार:
"सा शब्दस्यार्पिता स्वाभाविकेतरा ईश्वरानुद्भाविता वा शक्तिर्लक्षणा नाम।"
- सा (वह)
- शब्दस्य (शब्द की)
- अर्पिता (आरोपित)
- स्वाभाविक-एतराः (स्वाभाविक या भिन्न)
- ईश्वर-अनुद्भाविता (ईश्वर द्वारा उत्पन्न)
- वा (या)
- शक्तिः (शक्ति)
- लक्षणा नाम (लक्षणा कहलाती है)।
अनुवाद: वह शक्ति, जो स्वाभाविक, भिन्न या ईश्वर द्वारा उत्पन्न हो, उसे लक्षणा कहा जाता है।
"पूर्वत्र हेतुः रूढिः प्रसिद्धिरेव। उत्तरत्र 'गङ्गातटे घोषः' इति प्रतिपादनालभ्यस्य शीतत्वपावनत्वातिशयस्य बोधनरूपं प्रयोजनं।"
- पूर्वत्र (पहले)
- हेतुः (कारण)
- रूढिः (रूढ़ि)
- प्रसिद्धिः (प्रसिद्धि)
- एव (ही)।
- उत्तरत्र (बाद में)
- 'गङ्गातटे घोषः' (गंगा के तट पर गांव)
- इति (इस प्रकार)
- प्रतिपादन-अलभ्यस्य (प्रतिपादन से प्राप्त)
- शीतत्व-पावनत्व-आतिशयस्य (शीतलता और पवित्रता की अधिकता)
- बोधन-रूपं (बोध कराने का स्वरूप)
- प्रयोजनं (उद्देश्य)।
अनुवाद: पहले, इसका कारण रूढ़ि (प्रसिद्धि) है। बाद में, "गङ्गातटे घोषः" में गंगा के तट की शीतलता और पवित्रता का बोध कराने का प्रयोजन है।
लक्षणा के उदाहरण:
"केचित्तु 'कर्मणि कुशलः' इति रूढावुदाहरन्ति।"
- केचित् (कुछ लोग)
- तु (किन्तु)
- 'कर्मणि कुशलः' ("कर्म में निपुण")
- इति (इस प्रकार)
- रूढौ (रूढ़ि में)
- उदाहरन्ति (उदाहरण देते हैं)।
अनुवाद: कुछ लोग "कर्मणि कुशलः" (कर्म में निपुण) को रूढ़ि का उदाहरण मानते हैं।
"तत्र 'कुशां लाती' इति व्युत्पत्तिलभ्यः कुशग्राहिरूपो मुख्योऽर्थः।"
- तत्र (वहाँ)
- 'कुशां लाती' ("कुश लाता है")
- इति (इस प्रकार)
- व्युत्पत्ति-लभ्यः (व्युत्पत्ति से प्राप्त)
- कुश-ग्राहि-रूपः (कुश पकड़ने वाले के रूप में)
- मुख्यः अर्थः (मुख्य अर्थ)।
अनुवाद: यहाँ "कुशां लाती" (कुश लाता है) का व्युत्पत्तिगत अर्थ "कुश पकड़ने वाला" मुख्य अर्थ है।
गौण लक्षणा (उपचालन से युक्त लक्षणा):
"मुख्यार्थस्येतराक्षेपो वाक्यार्थेऽन्वयसिद्धये। स्यादात्मनोऽप्युपादानादेषोपादानलक्षणा।।" (सूत्र 2.6)
- मुख्यार्थस्य (मुख्यार्थ का)
- इतर-आक्षेपः (दूसरे को ग्रहण करना)
- वाक्यार्थे (वाक्यार्थ में)
- अन्वय-सिद्धये (संबंध सिद्धि के लिए)
- स्यात् (होता है)
- आत्मनः-अपि (स्वयं का भी)
- उपादानात् (ग्रहण के कारण)
- एषः (यह)
- उपादान-लक्षणा (उपादान-लक्षणा)।
अनुवाद: मुख्यार्थ को छोड़कर दूसरे अर्थ को ग्रहण करना, वाक्यार्थ में संबंध सिद्ध करने के लिए होता है। यदि यह आत्म (मुख्यार्थ) को भी ग्रहण करता है, तो इसे उपादान-लक्षणा कहते हैं।
लक्षणा के अन्य प्रकार:
"अर्पणं स्वस्य वाक्यार्थे परस्यान्वयसिद्धये। उपलक्षणहेतुत्वादेषा लक्षणलक्षणा।।" (सूत्र 2.7)
- अर्पणं (त्याग करना)
- स्वस्य (अपना)
- वाक्यार्थे (वाक्यार्थ में)
- परस्य (दूसरे का)
- अन्वय-सिद्धये (संबंध सिद्धि के लिए)
- उपलक्षण-हेतुत्वात् (उपलक्षण का कारण होने के कारण)
- एषा (यह)
- लक्षण-लक्षणा (लक्षण-लक्षणा)।
अनुवाद: स्वयं का त्याग कर, दूसरे के अर्थ में वाक्यार्थ सिद्ध करने की प्रक्रिया लक्षण-लक्षणा कहलाती है।
लक्षणा का वर्गीकरण (सारूप्य और अन्य संबंध):
"सारोपाध्यवसानाभ्यां प्रत्येकं ता अपि द्विधा।"
- सारूप-अध्यवसानाभ्यां (समानता और निश्चितता के आधार पर)
- प्रत्येकं (प्रत्येक को)
- ता अपि (वे भी)
- द्विधा (दो भागों में)।
अनुवाद: समानता और निश्चितता के आधार पर, लक्षणा को भी दो भागों में विभाजित किया जाता है।
गौण लक्षणा का उदाहरण:
"गौर्जल्पति।"
- गौर् (गाय)
- जल्पति (बोलती है)।
अनुवाद: "गाय बोलती है।" (यह गौण लक्षणा का उदाहरण है)।
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