महाराज जड़ भरत की कथा, भागवत पुराण,पंचम स्कंध, अध्याय 8-13,भरत का पूर्वजन्म और वैराग्य, हिरण की ममता का कारण अगले जन्म का बंधन,जड़ भरत के रूप में जन्म
महाराज जड़ भरत की कथा भागवत पुराण के पंचम स्कंध, अध्याय 8-13 में वर्णित है। यह कथा वैराग्य, भक्ति, और आत्मज्ञान का अनुपम उदाहरण है। जड़ भरत राजा ऋषभदेव के सबसे बड़े पुत्र भरत का दूसरा जन्म है। भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।
भरत का पूर्वजन्म और वैराग्य
भरत राजा ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे। अपने पिता के बाद उन्होंने राज्य का कार्यभार संभाला और धर्मपूर्वक शासन किया। लेकिन बाद में उन्होंने वैराग्य धारण कर दिया और ध्यान तथा भक्ति के लिए वन में चले गए।
हिरण की ममता का कारण अगले जन्म का बंधन
वन में ध्यान के दौरान भरत का मन एक हिरण के प्रति ममता में उलझ गया। मृत्यु के समय उनका ध्यान हिरण पर था, जिससे उन्हें अगले जन्म में हिरण की योनि प्राप्त हुई।
श्लोक:
यद्यद्भावं स्मरेद्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।
(भागवत पुराण 5.8.9)
भावार्थ:
मृत्यु के समय जो व्यक्ति जिस वस्तु का स्मरण करता है, वह उसी के अनुरूप अगले जन्म को प्राप्त करता है।
जड़ भरत के रूप में जन्म
हिरण के जीवन में अपनी गलती को समझने के बाद भरत ने अगला जन्म मानव के रूप में लिया। लेकिन इस जन्म में वे संसार से पूर्णतः विरक्त हो गए। उन्होंने अपनी आत्मा को संसार के मोह और ममता से बचाने के लिए जड़ता का अभिनय किया। इसी कारण वे जड़ भरत कहलाए।
जड़ भरत का साधारण जीवन
जड़ भरत ने सांसारिक बातों से बचने के लिए अपने शरीर और व्यवहार को साधारण और उपेक्षित बनाए रखा। वे खेतों में काम करने लगे और हर स्थिति में मौन रहकर अपनी साधना करते रहे।
श्लोक:
वसन्नेकत्रा च तत्रापि गृहेषु
सुतारिवद्व्यर्थकृतः कृतार्थः।
लोकं विमृश्यात्मनि निर्विकल्पं
विविक्त एष स्वयमेव तुष्येत्।।
(भागवत पुराण 5.10.4)
भावार्थ:
जड़ भरत सांसारिक कर्म करते हुए भी आत्मा में स्थित थे और संसार से निरपेक्ष रहकर आनंदित रहते थे।
राजा रहूगण और जड़ भरत का संवाद
जड़ भरत की सबसे प्रसिद्ध घटना राजा रहूगण के साथ हुई। एक दिन जड़ भरत को राजा रहूगण के पालकी ढोने वाले के रूप में मजबूर किया गया। जड़ भरत चलते समय चींटियों को बचाने के लिए असमान गति से चलने लगे, जिससे पालकी डगमगाने लगी।
राजा रहूगण ने जड़ भरत को डांटा। लेकिन जड़ भरत ने आत्मज्ञान से भरे शब्दों में उत्तर दिया, जिसने राजा का अहंकार चूर-चूर कर दिया।
जड़ भरत का उपदेश
श्लोक:
यं यस्य कस्य च विभुः श्वसतेऽस्य सोऽहं।
नाहं तु जातु नृप ते भविता न भावी।
बंधः स मृत्युमपि याति स्वे च देहे।
सर्वं नरेन्द्र मन एव समं मृषा वा।।
(भागवत पुराण 5.11.12)
भावार्थ:
जड़ भरत ने कहा, "हे राजा! यह शरीर, जिसे तुम मैं मानते हो, नश्वर है। आत्मा इस शरीर से अलग है। संसार में सभी प्रकार के संबंध और भौतिक वस्तुएं केवल मन की कल्पनाएं हैं।"
रहूगण का आत्मज्ञान
राजा रहूगण को जड़ भरत की वाणी सुनकर आत्मज्ञान हुआ। उन्होंने अपने अहंकार के लिए क्षमा मांगी और उनसे भक्ति और ज्ञान का मार्गदर्शन मांगा।
जड़ भरत का वैराग्यपूर्ण जीवन
जड़ भरत ने संसार के बंधनों और मान-सम्मान की परवाह किए बिना अपने साधनापूर्ण जीवन को जारी रखा। वे अंततः आत्मज्ञान और मोक्ष को प्राप्त कर भगवान के दिव्य धाम चले गए।
श्लोक:
स्वधर्मं शुद्धमेतं नृपस्य।
यथाव्रजं नृप निर्यस्य योगम्।
विविक्त आत्मा सुखं आत्मनीनं।
व्रजत्यनन्तं परि सर्वरूपम्।।
(भागवत पुराण 5.13.23)
भावार्थ:
जड़ भरत ने आत्मज्ञान और वैराग्य से संसार का त्याग कर भगवान के परमधाम को प्राप्त किया।
जड़ भरत की कथा का संदेश
1. संसार से विरक्ति: इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि भक्ति और ध्यान के लिए संसार के मोह और ममता को त्यागना आवश्यक है।
2. आत्मा और शरीर का भेद: जड़ भरत ने सिखाया कि आत्मा शाश्वत और अमर है, जबकि शरीर नश्वर है।
3. अहंकार का त्याग: राजा रहूगण की घटना यह सिखाती है कि अहंकार आत्मज्ञान में सबसे बड़ी बाधा है।
4. वैराग्य और भक्ति: भक्ति और वैराग्य के मार्ग पर चलकर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
निष्कर्ष
जड़ भरत की कथा आत्मज्ञान, वैराग्य, और भक्ति की अद्वितीय प्रेरणा है। यह कथा यह सिखाती है कि भौतिक जीवन में उलझे बिना मनुष्य को आत्मा के ज्ञान और भगवान की भक्ति की ओर अग्रसर होना चाहिए।
COMMENTS