मन्त्र 5 (ईशावास्य उपनिषद) मूल पाठ तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके। तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः।
मन्त्र 5 (ईशावास्य उपनिषद) |
मन्त्र 5 (ईशावास्य उपनिषद)
मूल पाठ
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः।
शब्दार्थ
- तत्: वह (परमात्मा)।
- एजति: चलता है।
- न एजति: नहीं चलता।
- तत् दूरे: वह दूर है।
- तत् अन्तिके: वह निकट है।
- तत् अन्तरस्य सर्वस्य: वह सबके भीतर है।
- तत् सर्वस्य अस्य बाह्यतः: वह सबके बाहर भी है।
अनुवाद
वह (परमात्मा) चलता है और नहीं चलता। वह दूर भी है और निकट भी। वह सबके भीतर भी है और सबके बाहर भी।
व्याख्या
यह मन्त्र परमात्मा के परस्पर विरोधाभासी लेकिन सर्वसम्पूर्ण स्वरूप का वर्णन करता है।
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चलता है और नहीं चलता:परमात्मा एक ही समय में गतिशील (एजति) और अचल (नैजति) है। यह दर्शाता है कि वह समस्त सृष्टि में क्रियाशील है, लेकिन स्वयं स्थिर और अपरिवर्तनीय है।
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दूर और निकट:वह जो परमात्मा को नहीं जानता, उसके लिए वह बहुत दूर है। लेकिन जो उसे जानता है, उसके लिए वह निकटतम है।
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भीतर और बाहर:परमात्मा हर प्राणी के भीतर भी है और सम्पूर्ण सृष्टि के बाहर भी। यह उसकी सर्वव्यापकता और सर्वसत्ता का प्रतीक है।
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सापेक्षता और अद्वैत:यह मन्त्र बताता है कि परमात्मा किसी एक स्थान या अवस्था में सीमित नहीं है। वह सापेक्ष दृष्टिकोण से अलग-अलग रूपों में प्रकट होता है, लेकिन अद्वैत दृष्टिकोण से वह सबमें एक ही है।
आध्यात्मिक संदेश
- परमात्मा की सर्वव्यापकता:परमात्मा समय, स्थान, और स्थिति की सीमाओं से परे हैं। वह प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक स्थान में विद्यमान हैं।
- ज्ञान का दृष्टिकोण:जो व्यक्ति ज्ञान और भक्ति के माध्यम से परमात्मा का अनुभव करता है, उसे वह हर जगह दिखता है।
- संसार और परब्रह्म:यह मन्त्र सिखाता है कि परमात्मा सृष्टि के हर रूप में व्याप्त है। हर वस्तु में उसे देखने की दृष्टि विकसित करनी चाहिए।
आधुनिक संदर्भ में उपयोग
- यह मन्त्र सिखाता है कि सत्य और परम सत्य को समझने के लिए दृष्टिकोण का विस्तार करना चाहिए।
- यह दृष्टिकोण हमें यह समझने में मदद करता है कि जीवन के हर पहलू में दिव्यता छिपी हुई है।
विशेष बात
यह मन्त्र हमें प्रेरित करता है कि हम परमात्मा को स्थिर और गतिशील दोनों रूपों में अनुभव करें। यह विरोधाभासी प्रतीत होता है, लेकिन यही परमात्मा की व्यापकता और सजीवता है।
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