उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 47, 48 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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Here is depiction of the serene, emotional scene with Rama, Sita in her radiant shadow form, and Vasanti. The atmosphere reflects deep sorrow, longing, and a mystical connection between the characters.
Here is depiction of the serene, emotional scene with Rama, Sita in her radiant shadow form, and Vasanti. The atmosphere reflects deep sorrow, longing, and a mystical connection between the characters.

संस्कृत पाठ और हिन्दी अनुवाद


संस्कृत पाठ:

सीता:
नमः सुकृतपुण्यजनदर्शनीयाभ्यामार्यपुत्रचरणकमलाभ्याम्।
(इति मूर्च्छति)।

तमसा:
समाश्वसिहि।

सीता (आश्वस्य):
कियच्चिरं वो मेघान्तरेण पूर्णचन्द्रदर्शनम्?

तमसा:
अहो! संविधानकम्।
एको रसः करुण एव निमित्तभेदा-
द्भिन्नः पृथक्पृथगिव श्रयते विवर्तान्।
आवर्तबुद्बुदतरङ्गमयान्विकारा-
नम्भो यथा, सलिलमेव हि तत्समस्तम्॥ ४७ ॥

रामः:
विमानराज! इत इतः।
(सर्व उत्तिष्ठन्ति)।

तमसा-वासंत्यौ (सीता-रामौ प्रति):

अवनिरमरसिन्धुः सार्धमस्मद्विधाभिः
स च कुलपतिराद्यश्छन्दसां यः प्रयोक्ता।
स च मुनिरनुयातारुन्धतीको वसिष्ठ-
स्तव वितरतु भद्रं भूयसे मङ्गलाय॥ ४८ ॥

(इति निष्क्रान्ताः सर्वे)
इति महाकविभवभूतिविरचिते उत्तररामचरिते छाया नाम तृतीयोऽङ्कः॥ ३ ॥


हिन्दी अनुवाद:

सीता:
सुकृतों (अच्छे कर्मों) और पुण्य से दर्शन योग्य
आर्यपुत्र के चरणकमलों को मेरा नमस्कार।
(यह कहते हुए मूर्छित हो जाती हैं)।

तमसा:
शांत हो जाओ।

सीता (शांत होकर):
कितना समय बीत गया,
जैसे बादलों के बीच से पूर्णचंद्र का दर्शन होता है।

तमसा:
आह! यह अद्भुत है।
करुणा केवल एक ही रस है,
जो विभिन्न कारणों से विभाजित होकर
अलग-अलग रूपों में प्रकट होती है।
जैसे जल अपने भँवर, बुलबुले और तरंगों के माध्यम से
अलग-अलग रूपों में दिखाई देता है,
लेकिन अंततः सब कुछ केवल जल ही होता है।

राम:
विमानराज, यहाँ आओ।
(सभी खड़े होते हैं)।

तमसा और वासंती (सीता-राम के प्रति):
पृथ्वी, अमृतस्वरूप समुद्र और हमारे जैसी सेविकाएँ,
जो सृष्टि के आरंभ में छंदों के आचार्य (वसिष्ठ) द्वारा स्थापित हुईं,
और जो ऋषि वसिष्ठ अपनी पत्नी अरुंधती के साथ तुम्हारे अनुगामी हैं,
वे तुम्हारे लिए
भविष्य के मंगल कार्यों के लिए भद्र प्रदान करें।

(सभी मंच से प्रस्थान करते हैं)

इस प्रकार महाकवि भवभूति द्वारा रचित उत्तररामचरित में "छाया" नामक तृतीय अंक समाप्त होता है।


शब्द-विश्लेषण

1. सुकृतपुण्यजनदर्शनीयाभ्याम्

  • संधि-विच्छेद: सुकृत + पुण्य + जन + दर्शनीयाभ्याम्।
    • सुकृत: अच्छे कर्म;
    • पुण्यजन: पुण्य से सम्पन्न व्यक्ति;
    • दर्शनीयाभ्याम्: दर्शन योग्य।
  • अर्थ: अच्छे कर्म और पुण्य के कारण दर्शन योग्य।

2. करुण एव निमित्तभेदात् भिन्नः

  • संधि-विच्छेद: करुणः + एव + निमित्त + भेदात् + भिन्नः।
    • करुणः: दया, करुणा;
    • निमित्तभेदात्: कारणों के अंतर से;
    • भिन्नः: विभाजित।
  • अर्थ: करुणा विभिन्न कारणों से विभाजित होकर अलग-अलग रूप में प्रकट होती है।

3. आवर्तबुद्बुदतरङ्गमयान्विकारान्

  • संधि-विच्छेद: आवर्त + बुद्बुद + तरङ्ग + मयान् + विकारान्।
    • आवर्त: भँवर;
    • बुद्बुद: बुलबुले;
    • तरङ्ग: तरंगें;
    • विकारान्: परिवर्तनों को।
  • अर्थ: भँवर, बुलबुले और तरंगों जैसे परिवर्तनों को।

4. वसिष्ठस्तव वितरतु भद्रं

  • संधि-विच्छेद: वसिष्ठः + तव + वितरतु + भद्रं।
    • वसिष्ठः: ऋषि वसिष्ठ;
    • तव: तुम्हारे लिए;
    • वितरतु: प्रदान करें;
    • भद्रं: कल्याण।
  • अर्थ: ऋषि वसिष्ठ तुम्हारे लिए कल्याण प्रदान करें।

व्याख्या:

इस अंश में सीता और राम की भावनाएँ अपने चरम पर हैं:

  • सीता: आर्यपुत्र के चरणों को देखकर आत्मसमर्पण की स्थिति में हैं, और उनका मूर्छित होना उनके प्रेम और समर्पण की गहराई को दर्शाता है।
  • तमसा: करुणा के विभिन्न रूपों की व्याख्या कर यह दिखाती हैं कि करुणा, चाहे कितने भी प्रकार की हो, अंततः एक ही स्रोत से आती है।
  • राम: विमानराज को बुलाकर यात्रा के लिए तैयार हैं।
  • तमसा और वासंती: सीता और राम के भविष्य के मंगल कार्यों की कामना करती हैं।

यह प्रेम, कर्तव्य, और शुभकामना का एक सुंदर समापन है।

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