उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 45 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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Here is depiction of the serene, emotional scene with Rama, Sita in her radiant shadow form, and Vasanti. The atmosphere reflects deep sorrow, longing, and a mystical connection between the characters.
Here is depiction of the serene, emotional scene with Rama, Sita in her radiant shadow form, and Vasanti. The atmosphere reflects deep sorrow, longing, and a mystical connection between the characters.

संस्कृत पाठ और हिन्दी अनुवाद


संस्कृत पाठ:

सीता:
बहुमानितास्मि पूर्वविरहे। निरवधिरिति हा! हतास्मि।

रामः:
कष्टं भोः!
व्यर्थ यत्र कपीन्द्रसख्यमपि मे, वीर्यं हरीणां वृथा,
प्रज्ञाजाम्बवतो न यत्र, न गतिः पुत्रस्य वायोरपि।
मार्गं यत्र न विश्वकर्मतनयः कर्तुं नलोऽपि क्षमः,
सौमित्रेरपि पत्त्रिणामविषये तत्र प्रिये! क्वासि मे?॥ ४५ ॥

सीता:
बहुमानितास्मि पूर्वविरहे।

रामः:
सखि वासंती! दुःखायैव सुदामिदानीं रामदर्शनम्।
कियच्चिरं त्वां रोदयिष्यमि।
तदनुजानीहि मां गमनाय।

सीता:
(सोद्वेगमोहं तमसामाश्लिष्य)
हा! भगवति तमसे! गच्छतीदानीमार्यपुत्रः।
किं करोमि? (इति मूर्च्छति)।

तमसा:
वत्से जानकि! समाश्वसिहि, समाश्वसिहि।
विधिस्तवानुकूलो भविष्यति।
तदायुष्मतोः कुशलवयोर्वर्षर्द्धिमङ्गलानि सम्पादयितुं
भागीरथीपदान्तिकमेव गच्छावः।


हिन्दी अनुवाद:

सीता:
मैंने पूर्व के वियोग में सम्मान पाया था,
परंतु अब यह अनंत दुःख मुझे नष्ट कर रहा है।

राम:
अरे, कितना दुःख है!
जहाँ मेरी कपीन्द्र (हनुमान) के साथ मित्रता भी व्यर्थ है,
जहाँ वीर वानरों का बल बेकार है,
जहाँ प्रज्ञा के प्रतीक जाम्बवान की बुद्धि भी निष्फल है,
जहाँ वायुपुत्र हनुमान भी पहुँचना असमर्थ हैं,
जहाँ विश्वकर्मा के पुत्र नल भी मार्ग बनाने में असमर्थ हैं,
और जहाँ सौमित्र (लक्ष्मण) जैसे धनुर्धर भी असहाय हैं,
हे प्रिये! तुम मेरे लिए वहाँ कहाँ हो?

सीता:
मैंने पूर्व वियोग में सम्मान पाया था, लेकिन अब...।

राम:
हे वासंती!
राम का दर्शन अब केवल दुःख का कारण बन गया है।
मैं कितने समय तक तुम्हें रुलाता रहूँगा?
इसलिए मुझे जाने की अनुमति दो।

सीता:
(व्याकुल होकर तमसा को आलिंगन करते हुए)
हे भगवती तमसा!
अब आर्यपुत्र जा रहे हैं।
मैं क्या करूँ?
(यह कहते हुए मूर्छित हो जाती हैं)।

तमसा:
वत्से जानकी!
शांत हो जाओ, शांत हो जाओ।
विधाता तुम्हारे अनुकूल होगा।
इसलिए, तुम्हारे पुत्रों कुश और लव के
वर्षपूर्ति और मंगल कार्यों की सिद्धि के लिए
हम भागीरथी के पवित्र तट की ओर चलें।


शब्द-विश्लेषण

1. बहुमानितास्मि पूर्वविरहे

  • संधि-विच्छेद: बहुमानिता + अस्मि + पूर्व + विरहे।
    • बहुमानिता: सम्मानित हुई;
    • पूर्वविरहे: पहले के वियोग में।
  • अर्थ: पहले के वियोग में मुझे सम्मान मिला था।

2. निरवधिरिति हा! हतास्मि

  • संधि-विच्छेद: निरवधिः + इति + हा + हतास्मि।
    • निरवधिः: अनंत;
    • हतास्मि: मैं नष्ट हो गई हूँ।
  • अर्थ: यह अनंत दुःख है, मैं नष्ट हो गई हूँ।

3. व्यर्थ यत्र कपीन्द्रसख्यमपि मे

  • समास: षष्ठी तत्पुरुष समास (कपीन्द्र + सख्यम्)।
    • कपीन्द्र: वानरों के राजा (हनुमान);
    • सख्यम्: मित्रता।
  • अर्थ: जहाँ मेरी हनुमान के साथ मित्रता भी व्यर्थ है।

4. कुशलवयोर्वर्षर्द्धिमङ्गलानि

  • संधि-विच्छेद: कुशलवयोः + वर्ष + ऋद्धि + मङ्गलानि।
    • कुशलवयोः: कुश और लव;
    • वर्षर्द्धि: वर्षपूर्ति;
    • मङ्गलानि: शुभ कार्य।
  • अर्थ: कुश और लव के वर्षपूर्ति और शुभ कार्य।

व्याख्या:

यह अंश राम और सीता के वियोग और उनकी गहन पीड़ा को दर्शाता है।

  • सीता: पहले के वियोग में सम्मान पाने की बात करती हैं, लेकिन अब की स्थिति से निराश हैं।
  • राम: सीता की अनुपस्थिति और अपनी असमर्थता को व्यक्त करते हैं। उनके लिए सीता को ढूँढना अब लगभग असंभव हो गया है।
  • तमसा: सीता को समझाती हैं कि विधाता अनुकूल होगा और कुश-लव के शुभ कार्यों के लिए उनका ध्यान भटकाने का प्रयास करती हैं।

यह अंश प्रेम, वियोग, और भविष्य की आशा का अद्भुत मिश्रण है।

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