उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 44 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण,उपायानां भावादविरलविनोदव्यतिकरै,कटुस्तूष्णीं सह्यो निरवधिरयं तु प्रविलयः॥ ४४
संस्कृत पाठ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत पाठ:
सीता (सभयम्):
आर्यपुत्र! तातो व्यापाद्यते। तस्मात् परित्रायस्व, परित्रायस्व। अहमप्यपह्रये।
रामः (सवेगमुत्थाय):
आः पाप! तातप्राणसीतापहारिन्! लङ्कापते! क्व यास्यासि?
वासंती:
अयि देव!
राक्षसकुलप्रलयधूमकेतो!
किमद्यापि ते मन्युविषयः?
सीता:
अहो! उद्भ्रान्तास्मि।
रामः:
अन्य एवायमधुना विपर्ययो वर्तते।
उपायानां भावादविरलविनोदव्यतिकरै-
र्विमर्दैर्वीराणां जनितजगदत्यद्भुतरसः।
वियोगो मुग्धाक्ष्याः स खलु रिपुघातावधिरभूत्
कटुस्तूष्णीं सह्यो निरवधिरयं तु प्रविलयः॥ ४४ ॥
हिन्दी अनुवाद:
सीता (डरते हुए):
हे आर्यपुत्र!
तात (जटायु) का वध किया जा रहा है।
इसलिए कृपया उनकी रक्षा करें, उनकी रक्षा करें।
मैं भी यहाँ से हटा ली जाऊँ।
राम (साहसपूर्वक उठते हुए):
हे पापी!
तात के प्राण और सीता का अपहरण करने वाले राक्षस!
हे लंका के राजा (रावण)!
अब तुम कहाँ जाओगे?
वासंती:
हे देव!
हे राक्षसों का विनाश करने वाले और प्रलय की अग्नि के समान!
क्या अब भी तुम्हारा क्रोध कम नहीं हुआ?
सीता:
अहो! मैं भ्रमित हो गई हूँ।
राम:
अब स्थिति पूरी तरह से विपरीत हो गई है।
वीरों की योजनाओं और उनके लगातार प्रयासों से,
जो अद्भुत रस उत्पन्न होता है, वह संसार को आश्चर्यचकित कर देता है।
लेकिन उस कोमल नयन वाली (सीता) का वियोग,
जो शत्रु के वध का अंतिम उद्देश्य बन गया,
वह अब तीखा और मौन सहन करने योग्य है।
लेकिन यह कभी न समाप्त होने वाला यह दुख,
पूर्णतया भस्म कर देने वाला है।
शब्द-विश्लेषण
1. तातप्राणसीतापहारिन्
- संधि-विच्छेद: तात + प्राण + सीता + अपहारिन्।
- तात: पिता, जटायु;
- प्राण: जीवन;
- सीता: सीता का नाम;
- अपहारिन्: अपहरण करने वाला।
- अर्थ: जटायु के जीवन और सीता का अपहरण करने वाला।
2. राक्षसकुलप्रलयधूमकेतुः
- समास: कर्मधारय समास (राक्षस + कुल + प्रलय + धूम + केतुः)।
- राक्षसकुल: राक्षसों का समूह;
- प्रलय: विनाश;
- धूमकेतुः: धूम्रकेतु (उल्का)।
- अर्थ: राक्षसों के कुल का विनाश करने वाले।
3. उपायानां भावादविरलविनोदव्यतिकरैः
- समास: षष्ठी तत्पुरुष समास (उपायानां + भावात् + अविरल + विनोद + व्यतिकरैः)।
- उपायानां भावात्: योजनाओं के माध्यम से;
- अविरलविनोद: लगातार प्रयासों से उत्पन्न आनंद;
- व्यतिकरैः: टकरावों द्वारा।
- अर्थ: योजनाओं और निरंतर प्रयासों के अद्भुत परिणामों से।
4. कटुस्तूष्णीं सह्यः
- संधि-विच्छेद: कटुः + तूष्णीं + सह्यः।
- कटुः: तीखा;
- तूष्णीं: मौन;
- सह्यः: सहने योग्य।
- अर्थ: तीखा और मौन सहन करने योग्य।
5. निरवधिरयं तु प्रविलयः
- संधि-विच्छेद: निरवधिः + अयम् + तु + प्रविलयः।
- निरवधिः: अनंत, जिसका अंत न हो;
- प्रविलयः: भस्म कर देने वाला।
- अर्थ: यह अनंत दुख पूर्णतया भस्म कर देने वाला है।
व्याख्या:
इस अंश में राम, सीता और वासंती के संवाद से गहरी भावनाएँ व्यक्त होती हैं।
- सीता: जटायु और अपनी रक्षा को लेकर भयभीत और भ्रमित हैं।
- राम: रावण के प्रति क्रोध और अपने कर्तव्य का बोध प्रकट करते हैं, साथ ही सीता के वियोग का तीखा दुःख सहते हैं।
- वासंती: राम को उनके क्रोध और स्थिति की गहराई का स्मरण कराती हैं।
- राम का दुःख: यह उनके भीतर की पीड़ा और वियोग से उत्पन्न निरंतर जलन को दर्शाता है, जो अब असहनीय बन गया है।
यह अंश प्रेम, कर्तव्य और दुःख के संघर्ष को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करता है।