संस्कृत पाठ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत पाठ:
सीता (स्वगतम्):
अवशेनैतेनात्मना लज्जापितास्मि भगवत्या तमसया।
किमिति किलैषा मंस्यत ‘एष परित्याग एषोऽभिषङ्ग’ इति।
रामः (सर्वतोऽवलोक्य):
हा! कथं नास्त्येव।
नन्वकरुणे वैदेहि!
सीता:
अकरुणास्मि, यैवंविधं त्वां पश्यन्त्येव जीवामि।
रामः:
क्वासि प्रिये! देवि! प्रसीद प्रसीद।
न मामेवंविधं परित्यक्तुमर्हसि।
सीता:
अयि आर्यपुत्र! विप्रतीपमिव।
वासंती:
देव! प्रसीद प्रसीद।
स्वेनैव लोकोत्तरेण धैर्येण संस्तम्भयातिभूमिं गतमात्मानम्।
कुत्र मे प्रियसखी?
रामः:
व्यक्तं नास्त्येव।
कथमन्यथा वासन्त्यपि न पश्येत्?
अपि खलु स्वप्न एष स्यात्?
न चास्मि सुप्तः।
कुतो रामस्य निद्रा?
सर्वथापि स एवैष भगवाननेकवारपरिकल्पितो
विप्रलम्भः पुनः पुनरनुबध्नाति माम्।
सीता:
मयैव दारुणया विप्रलब्ध आर्यपुत्रः।
वासंती:
देव! पश्य पश्य।
पौलस्त्यस्य जटयुषा विघटितः कार्ष्णायसोऽयं रथः।
स्ते चैते पुरतः पिशाचवदनाः कङ्कालशेषाः खराः।
खड्गच्छिन्नजटायुपक्षतिरितः सीतां चलन्तीं वह-
न्नन्तर्व्यापृतविद्युदम्बुद इव द्यामभ्युदस्थादरिः॥ ४३ ॥
हिन्दी अनुवाद:
सीता (मन में):
हे दुर्भाग्य! इस शरीर के वश में होकर मैं भगवती तमसा के सामने लज्जित हो गई हूँ।
यह क्या सोचेंगी? ‘‘यह तो त्याग है या यह एक बंधन है?’’
राम (चारों ओर देखते हुए):
आह! यह कैसे संभव है कि वह यहाँ नहीं हैं?
हे वैदेहि! क्या तुम सचमुच इतनी निर्दयी हो?
सीता:
मैं निर्दयी हूँ, क्योंकि तुम्हें इस प्रकार देखते हुए भी जीवित हूँ।
राम:
हे प्रिये! हे देवि! कृपा करो, कृपा करो।
मुझे इस प्रकार त्यागकर मत जाओ।
सीता:
हे आर्यपुत्र! यह तो विपरीत जैसा लगता है।
वासंती:
हे देव! कृपा करें।
आप अपने अतुलनीय धैर्य से अपने आप को स्थिर करें।
मेरी प्रिय सखी कहाँ हैं?
राम:
यह स्पष्ट है कि वह यहाँ नहीं हैं।
अन्यथा वासंती भी उन्हें देख लेतीं।
क्या यह स्वप्न है?
पर मैं तो जागा हुआ हूँ।
राम को नींद कहाँ?
निस्संदेह, यह वही दुखद भ्रम है,
जो बार-बार मेरी पीड़ा को बढ़ाता है।
सीता:
हे आर्यपुत्र! यह मैं ही हूँ जिसने अपनी कठोरता से आपको धोखा दिया।
वासंती:
हे देव! देखो, देखो।
राक्षस रावण द्वारा मारा गया जटायु यहाँ पड़ा है।
यह लोहे का रथ टूट गया है।
वह खर जैसे दानव कंकाल मात्र रह गए हैं।
जटायु का कटे हुए पंखों से रक्त बह रहा है।
राक्षस रावण विद्युत-पुंजयुक्त बादल के समान सीता को उठाकर
आकाश में चढ़ गया।
शब्द-विश्लेषण
1. परित्याग एषोऽभिषङ्ग
- संधि-विच्छेद: परित्यागः + एषः + अभिषङ्गः।
- परित्याग: त्याग;
- अभिषङ्ग: बंधन।
- अर्थ: यह त्याग है या बंधन?
2. विप्रलम्भः पुनः पुनरनुबध्नाति
- संधि-विच्छेद: विप्रलम्भः + पुनः + पुनः + अनुबध्नाति।
- विप्रलम्भ: धोखा या भ्रम;
- अनुबध्नाति: बाँधता है।
- अर्थ: यह भ्रम बार-बार मुझे बाँधता है।
3. खड्गच्छिन्नजटायुपक्षतिरितः
- समास: कर्मधारय समास (खड्ग + छिन्न + जटायुः + पक्ष + तिरितः)।
- खड्गच्छिन्न: तलवार से कटे हुए;
- जटायुपक्ष: जटायु के पंख;
- तिरितः: रक्त से सिक्त।
- अर्थ: जटायु के पंख तलवार से कटकर रक्तसिक्त हो गए हैं।
4. विद्युदम्बुद इव
- समास: उपमान कर्मधारय समास (विद्युत् + अम्बुद + इव)।
- विद्युत्: बिजली;
- अम्बुद: बादल;
- इव: के समान।
- अर्थ: बिजली से भरे बादल के समान।
व्याख्या:
यह अंश राम, सीता और वासंती की गहरी भावनाओं और पीड़ा को प्रकट करता है।
- सीता: अपनी स्थिति को लेकर शर्मिंदा हैं और महसूस करती हैं कि वह राम को पीड़ा दे रही हैं।
- राम: सीता के बिना दुख और भ्रम में हैं, और सोचते हैं कि यह सब एक स्वप्न है।
- वासंती: राम को ढांढस बँधाने का प्रयास करती हैं, लेकिन सीता और राम के दुःख को देखकर स्वयं भी व्याकुल हैं।
- जटायु का दृश्य: सीता के अपहरण के दौरान जटायु का बलिदान और रावण की दुष्टता को रेखांकित करता है।
यह अंश प्रेम, पीड़ा, और वीरता के संघर्ष को दर्शाता है।
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