उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 36, 37 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण,वेलोल्लोलक्षुभितकरुणोज्जृम्भणस्तम्भनार्थं,अस्मिन्नेव लतागृहे त्वमभवस्तन्
संस्कृत पाठ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत पाठ:
सीता:
एवमपि मन्दभागिन्यहं या पुनरायासकारिणी आर्यपुत्रस्य।
रामः:
एवमतिगूढस्तम्भितान्तःकरणस्यापि मम संस्तुतवस्तुदर्शनादद्यायमावेगः।
तथा हि—
वेलोल्लोलक्षुभितकरुणोज्जृम्भणस्तम्भनार्थं
यो यो यत्नः कथमपि समाधीयते तं तमन्तः।
हित्वा भित्त्वा प्रसरति बलात्कोऽपि चेतोविकारः
स्तोयस्येवाप्रतिहतरयः सैकतं सेतुमोघः॥ ३६ ॥
सीता:
आर्यपुत्रस्यैतेन दुर्वारदारुणारम्भेण
दुःखसंयोगेन परिमुषितनिजदुःखं
प्रमुक्तजीवितं मे दयं स्फुटति।
वासंती (स्वगतम्):
कष्टमत्यासक्तो देवः। तदाक्षिपामि तावत्।
(प्रकाशम्)
चिरपरिचितानिदानीं जनस्थानभागानवलोकनेन मानयतु देवः।
रामः:
एवमस्तु।
(इत्युत्थाय परिक्रामति।)
सीता:
संदीपन एव दुःखस्य प्रियसख्या विनोदनोपाय इति तर्कयामि।
वासंती:
देव, देव!
अस्मिन्नेव लतागृहे त्वमभवस्तन्मार्गदत्तेक्षणः
सा हंसैः कृतकौतुका चिरमभूद्गोदावरीसैकते।
आयान्त्या परिदुर्मनायितमिव त्वां वीक्ष्य बद्धस्तया
कातर्यादरविन्दकुड्मलनिभो मुग्धः प्रणामाञ्जलिः॥ ३७ ॥
हिन्दी अनुवाद:
सीता:
फिर भी, मैं कितनी दुर्भाग्यशाली हूँ कि आर्यपुत्र के लिए कष्ट और दुःख का कारण बन गई हूँ।
राम:
भले ही मेरा हृदय भीतर से दृढ़ और शांत प्रतीत होता है,
आज प्रिय वस्तुओं के दर्शन से भावनाओं का प्रबल वेग उमड़ रहा है।
क्योंकि—
मेरी करुणा, जो भीतर से उथल-पुथल करती है और प्रकट होने को तैयार है,
उसको रोकने के लिए जो भी प्रयास किया जाता है, वह विफल हो जाता है।
अंततः, यह भावनात्मक परिवर्तन बलपूर्वक हृदय को तोड़कर बह निकलता है,
जैसे जल का बहाव बालू के बांध को तोड़कर निरंतर प्रवाहित होता है।
सीता:
आर्यपुत्र के इस दुर्वार और कठोर दुःख के कारण,
उनके साथ अपने दुःख के मेल से मेरा हृदय टूट चुका है।
मेरा जीवन मानो समाप्त हो गया है।
वासंती (स्वगत):
देव राम अत्यधिक व्याकुल हो गए हैं।
मुझे उनका ध्यान हटाना होगा।
(प्रकाश में):
हे देव! अब इन चिरपरिचित जनस्थान के स्थानों को देखिए और सम्मान दीजिए।
राम:
ऐसा ही हो।
(यह कहते हुए राम उठकर परिक्रमा करने लगते हैं।)
सीता:
मुझे लगता है कि प्रिय सखी का यह विनोद दुःख को प्रज्वलित करने वाला है।
वासंती:
हे देव!
यहीं इस लता-कुंज में,
जब तुम पथ-निर्देशन करते थे,
वह सीता, जो गोदावरी के तट पर हंसों के साथ खेल में मग्न थी,
तुम्हारे आगमन पर, अपनी उदासी को छिपाती हुई,
शरमाते हुए, कमल की कली के समान मुग्ध,
तुम्हें प्रणाम करने के लिए हाथ जोड़ खड़ी हो गई थी।
शब्द-विश्लेषण
1. वेलोल्लोलक्षुभितकरुणोज्जृम्भणस्तम्भनार्थम्
- समास: तत्पुरुष समास (वेग + उल्लोल + क्षुभित + करुणा + उज्जृम्भण + स्तम्भन + अर्थम्)।
- वेलोल्लोल: उमड़ती लहर;
- क्षुभित: व्याकुल;
- करुणा: दया;
- उज्जृम्भण: प्रकट होना;
- स्तम्भनार्थम्: रोकने के उद्देश्य से।
- अर्थ: उमड़ती हुई करुणा को रोकने के लिए।
2. अपहरामि च मोहितेव एतैरार्यपुत्रस्य प्रियवचनैः
- संधि-विच्छेद: अपहरामि + च + मोहितेव + एतैः + आर्यपुत्रस्य + प्रियवचनैः।
- अपहरामि: मैं ग्रहण करती हूँ;
- मोहितेव: मोहित होकर;
- प्रियवचनैः: प्रिय वचनों द्वारा।
- अर्थ: मैं जैसे मोहित होकर आर्यपुत्र के इन प्रिय वचनों को ग्रहण करती हूँ।
3. दुर्वारदारुणारम्भेण
- समास: कर्मधारय समास (दुर्वार + दारुण + आरम्भेण)।
- दुर्वार: रोकने में असमर्थ;
- दारुण: कठोर;
- आरम्भेण: प्रयास द्वारा।
- अर्थ: रोकने में असमर्थ कठोर प्रयास से।
4. चिरपरिचितानिदानीं जनस्थानभागानवलोकनेन
- समास: तत्पुरुष समास (चिर + परिचित + जनस्थान + भागान् + अवलोकनेन)।
- चिरपरिचित: लंबे समय से परिचित;
- जनस्थानभागान्: जनस्थान के क्षेत्र;
- अवलोकनेन: देखने के द्वारा।
- अर्थ: चिरपरिचित जनस्थान के क्षेत्र को देखने के द्वारा।
5. अरविन्दकुड्मलनिभः
- समास: उपमान कर्मधारय समास (अरविन्द + कुड्मल + निभः)।
- अरविन्द: कमल;
- कुड्मल: कली;
- निभः: के समान।
- अर्थ: कमल की कली के समान।
व्याख्या:
यह अंश राम और सीता के बीच के गहरे भावनात्मक संघर्ष को प्रकट करता है।
- राम: अपनी भीतर की करुणा को नियंत्रित करने में असमर्थ हैं। उनकी भावनाएँ उमड़ती हैं, जैसे जल का बहाव बालू के बाँध को तोड़कर बाहर निकलता है।
- सीता: राम के दुःख को देखकर अपना दुःख भूल जाती हैं और महसूस करती हैं कि उनके कारण राम को दुःख सहना पड़ रहा है।
- वासंती: राम का ध्यान हटाने के लिए उन्हें चिरपरिचित जनस्थान का दृश्य दिखाने का प्रयास करती हैं।
यह अंश प्रेम, वियोग और सहानुभूति का गहन चित्रण है।
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