उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 27 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण,अयि कठोर! यशः किल ते प्रियं किमयशो ननु घोरमतः परम्? किमभवद्विपिने हरिणीदृशः?
संस्कृत पाठ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत पाठ:
(इति मुह्यति)
तमसा:
स्थाने वाक्यनिवृत्तिर्मोहश्च।
रामः:
सखि! समाश्वसिहि समाश्वसिहि।
वासंती:
(समाश्वस्य)
तत्किमिदमकार्यमनुष्ठितं देवेन?
सीता:
सखि वासंती! विरम विरम।
रामः:
लोको न मृष्यतीति।
वासंती:
कस्य हेतोः?
रामः:
स एव जानाति किमपि।
तमसा:
चिरादुपालम्भः।
वासंती:
अयि कठोर! यशः किल ते प्रियं
किमयशो ननु घोरमतः परम्?
किमभवद्विपिने हरिणीदृशः?
कथय नाथ! कथं बत! मन्यसे?॥ २७ ॥
हिन्दी अनुवाद:
(सीता मूर्छित हो जाती हैं)
तमसा:
यह उचित ही है कि वाक्य रुक गए और मोह छा गया।
राम:
सखी! शांत हो जाओ, शांत हो जाओ।
वासंती:
(शांत होकर)
हे देव! यह क्या अनुचित कार्य आपने किया है?
सीता:
हे सखी वासंती! रुक जाओ, रुक जाओ।
राम:
लोक इसे सहन नहीं करेगा।
वासंती:
किस कारण?
राम:
इसका कारण वही जानता है।
तमसा:
यह तो बहुत समय बाद का उलाहना है।
वासंती:
अरे कठोर! तुम्हें तो यश ही प्रिय है,
लेकिन क्या यह अपयश उससे भी अधिक भयानक नहीं है?
वन में उन हरिणी-दृश्य (मृगनयनी) पर क्या बीता?
हे नाथ! बताइए, आप यह सब कैसे सह सकते हैं?
शब्द-विश्लेषण
1. वाक्यनिवृत्तिः मोहश्च
- संधि-विच्छेद: वाक्य + निवृत्तिः + मोहः + च।
- वाक्य: शब्द या कथन;
- निवृत्तिः: रुक जाना;
- मोहः: भ्रम।
- अर्थ: शब्दों का रुक जाना और भ्रम उत्पन्न होना।
2. समाश्वसिहि समाश्वसिहि
- धातु: √श्वस् (साँस लेना), उपसर्ग सम्।
- अर्थ: शांत हो जाओ, धैर्य रखो।
3. तत्किमिदमकार्यमनुष्ठितं
- संधि-विच्छेद: तत् + किम् + इदम् + अकार्यम् + अनुष्ठितम्।
- अकार्यम्: अनुचित कार्य;
- अनुष्ठितम्: किया गया।
- अर्थ: यह अनुचित कार्य क्या किया गया?
4. लोको न मृष्यतीति
- संधि-विच्छेद: लोकः + न + मृष्यति + इति।
- लोको: संसार;
- मृष्यति: सहन करता है।
- अर्थ: संसार इसे सहन नहीं करेगा।
5. चिरादुपालम्भः
- समास: तत्पुरुष समास (चिर + उपालम्भः)।
- चिर: लंबे समय बाद;
- उपालम्भः: उलाहना।
- अर्थ: लंबे समय बाद का उलाहना।
6. किमभवद्विपिने हरिणीदृशः
- संधि-विच्छेद: किम् + अभवत् + विपिने + हरिणी + दृशः।
- हरिणीदृशः: मृगनयनी, सुंदर नेत्रों वाली स्त्री।
- अर्थ: वन में उस मृगनयनी (सीता) पर क्या बीता?
7. यशः किल ते प्रियं
- संधि-विच्छेद: यशः + किल + ते + प्रियं।
- यशः: प्रसिद्धि;
- प्रियं: प्रिय।
- अर्थ: तुम्हें प्रसिद्धि प्रिय है।
व्याख्या:
यह अंश राम, सीता और वासंती के संवाद के माध्यम से गहरी भावनात्मक उथल-पुथल को दर्शाता है।
- राम: अपने कर्तव्यों के कारण पीड़ा सहते हुए, लोक निंदा से बचने की बात करते हैं।
- वासंती: राम पर कठोर शब्दों से उलाहना देती हैं, उन्हें यश और अपयश की तुलना करने के लिए प्रेरित करती हैं।
- सीता: वासंती को शांत रहने का आग्रह करती हैं, क्योंकि उनके लिए राम हर स्थिति में पूज्य हैं।
इस अंश में कर्तव्य, प्रेम, और समाज के बीच का संघर्ष स्पष्ट है।
COMMENTS