### **अध्याय 1: परिचय और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि** --- ### **1.1 सनातन धर्म का अर्थ और परिभाषा** **सनातन धर्म** का अर्थ है "शाश्वत धर्म" या "अनादि सत्य
सनातन धर्म (अध्याय 1): परिचय और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि |
अध्याय 1: परिचय और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
1.1 सनातन धर्म का अर्थ और परिभाषा
सनातन धर्म का अर्थ है "शाश्वत धर्म" या "अनादि सत्य।"
- "सनातन" का अर्थ है शाश्वत, अनंत, और अपरिवर्तनीय।
- "धर्म" का अर्थ है वह सिद्धांत और नियम जो सृष्टि को संतुलित और संरक्षित रखते हैं।संयुक्त रूप में, सनातन धर्म वह धर्म है जो शाश्वत, अनादि और सार्वभौमिक सत्य पर आधारित है।
शास्त्रीय परिभाषाएँ
- ऋग्वेद (10.190.1): "ऋतं च सत्यं चाभीद्धात तपसो अधिजायते।" (ऋत और सत्य तप से उत्पन्न होते हैं।)
- "ऋत" का अर्थ ब्रह्मांडीय सत्य है।
- मनुस्मृति (6.92): "धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।"
- यह धर्म के दस लक्षण (सत्य, धैर्य, क्षमा, आदि) बताता है।
धर्म का उद्देश्य
- आत्मा और परमात्मा का संबंध समझाना।
- व्यक्ति, समाज, और प्रकृति के बीच संतुलन स्थापित करना।
- जीवन के चार पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष) के माध्यम से आत्मोन्नति।
1.2 सनातन धर्म की उत्पत्ति और इतिहास
सनातन धर्म की उत्पत्ति
- सनातन धर्म को "अनादि" माना जाता है, अर्थात इसका कोई आरंभ नहीं।
- इसकी उत्पत्ति वेदों से मानी जाती है, जिन्हें दिव्य ज्ञान के रूप में श्रवण किया गया।
- सृष्टि के आरंभ में ही धर्म का निर्माण हुआ, जिसे "ऋत" (ब्रह्मांडीय नियम) के रूप में जाना गया।
इतिहास और कालक्रम
- वैदिक काल (1500 ईसा पूर्व - 500 ईसा पूर्व):
- वेदों की रचना।
- यज्ञ और कर्मकांड का विकास।
- धर्म का आधार प्रकृति पूजा थी।
- उत्तर वैदिक काल (500 ईसा पूर्व - 200 ईसा पूर्व):
- उपनिषदों और दर्शन का उदय।
- यज्ञों से ध्यान और ज्ञान की ओर झुकाव।
- महाकाव्य काल (200 ईसा पूर्व - 200 ईस्वी):
- रामायण और महाभारत का प्रभाव।
- धर्म की व्याख्या कर्म, भक्ति, और ज्ञान के माध्यम से।
- भक्ति और पुराण काल (500 ईस्वी - 1500 ईस्वी):
- भक्ति आंदोलन का उदय।
- पुराणों ने धर्म को लोककथाओं और लोकधर्म के माध्यम से सरल बनाया।
1.3 वेदों और वैदिक सभ्यता का महत्व
वेदों का परिचय
- वेद चार हैं: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद।
- यह ज्ञान श्रुति (श्रवण) के माध्यम से ऋषियों को प्राप्त हुआ।
वेदों के उद्देश्य
- ऋग्वेद: देवताओं की स्तुति और यज्ञ पर बल।
- यजुर्वेद: यज्ञ और कर्मकांड की विधियाँ।
- सामवेद: संगीत और भक्ति का महत्व।
- अथर्ववेद: चिकित्सा, तंत्र, और सामाजिक कल्याण।
वैदिक सभ्यता का महत्व
- धर्म और समाज का आधार।
- यज्ञ और कर्मकांड से प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने का प्रयास।
- वर्ण और आश्रम व्यवस्था ने सामाजिक संरचना को व्यवस्थित किया।
1.4 धर्म के चार स्तंभ: धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष
1. धर्म (कर्तव्य और नैतिकता):
- नैतिकता, सत्य, और कर्तव्य का पालन।
- समाज और व्यक्ति के जीवन को संतुलित रखना।
2. अर्थ (संसारिक साधन):
- धन और संसाधनों का नैतिक अर्जन।
- धर्म और काम की प्राप्ति के लिए साधन।
3. काम (इच्छाएँ और सुख):
- इच्छाओं और सुखों की पूर्ति धर्म और अर्थ के मार्गदर्शन में।
- जीवन के सौंदर्य और आनंद का अनुभव।
4. मोक्ष (मुक्ति और आत्मज्ञान):
- जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति।
- आत्मा और परमात्मा का मिलन।
चारों स्तंभों का संतुलन व्यक्ति और समाज की पूर्णता का आधार है।
1.5 "वसुधैव कुटुंबकम्" का आदर्श और मानवता
मूल सिद्धांत
- महाउपनिषद (6.72):"अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्।उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥"(यह मेरा है और वह तुम्हारा है - यह भेदभाव केवल संकीर्ण सोच वालों के लिए है। उदार दृष्टिकोण वाले लोग संपूर्ण विश्व को अपना परिवार मानते हैं।)
अर्थ और महत्व
- यह सिद्धांत सह-अस्तित्व, सहिष्णुता, और वैश्विक एकता का प्रतीक है।
- व्यक्ति, समाज, और प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित करता है।
- धर्म, जाति, और राष्ट्रीयता से परे, यह मानवता के कल्याण का संदेश देता है।
आधुनिक प्रासंगिकता
- अंतरराष्ट्रीय शांति और सहिष्णुता के लिए मार्गदर्शक।
- पर्यावरण संरक्षण और वैश्विक समृद्धि का आधार।
- धर्म के सार्वभौमिक और शाश्वत स्वरूप को उजागर करता है।
निष्कर्ष
सनातन धर्म की उत्पत्ति और विकास सृष्टि के प्रारंभिक सत्य, नैतिकता, और आध्यात्मिकता पर आधारित है। इसके चार स्तंभ और "वसुधैव कुटुंबकम्" जैसे आदर्श इसे न केवल प्राचीन काल में, बल्कि आज के युग में भी अत्यधिक प्रासंगिक बनाते हैं।
"सनातन धर्म" केवल एक धर्म नहीं, बल्कि जीवन जीने की शाश्वत शैली और सत्य की ओर मार्गदर्शन है।
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