महाराज ययाति की कथा, भागवत पुराण, नवम स्कंध, अध्याय 18-19। महाराज ययाति का परिचय।देवयानी और शर्मिष्ठा का प्रसंग। ययाति का भोगवृत्ति और शुक्राचार्य।
महाराज ययाति की कथा भागवत पुराण के नौवें स्कंध, अध्याय 18-19 में वर्णित है। महाराज ययाति चंद्रवंश के एक महान राजा थे, जिनकी कथा कर्म, भोग, और वैराग्य का अद्भुत संदेश देती है। उनकी कथा उनके पाँच पुत्रों (यदु, पुरु, तुर्वसु, अनु, और द्रुहु) और उनके जीवन के विभिन्न उतार-चढ़ावों के माध्यम से धर्म, त्याग, और आत्मज्ञान की शिक्षा देती है।
महाराज ययाति का परिचय
- ययाति चंद्रवंश के राजा नहुष के पुत्र थे।
- वे धर्म, पराक्रम, और सत्यनिष्ठा के लिए प्रसिद्ध थे।
- उनका विवाह शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से हुआ था।
श्लोक:
नहुषस्य सुतो राजन् ययातिः परमेश्वरः।
धर्मिष्ठः सत्यसन्धश्च लोकपालसमो बले।।
(भागवत पुराण 9.18.1)
भावार्थ:
महाराज ययाति, राजा नहुष के पुत्र थे। वे धर्म और सत्य के पालन में अद्वितीय थे।
देवयानी और शर्मिष्ठा का प्रसंग
देवयानी का विवाह
- शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी एक दिन जल में गिर गईं और राजा ययाति ने उनकी सहायता की।
- देवयानी ने ययाति से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की।
- शुक्राचार्य ने ययाति को अपनी पुत्री का पति स्वीकार कर लिया।
शर्मिष्ठा का आगमन
- देवयानी की सहेली शर्मिष्ठा, जो असुरराज वृषपर्वा की पुत्री थीं, देवयानी के साथ राजा ययाति के महल में आईं।
- शर्मिष्ठा भी राजा ययाति से प्रभावित हुईं और उनसे विवाह कर लिया।
श्लोक:
देवयानीं तथाभिप्रेक्ष्य शर्मिष्ठा सहिता वने।
श्रियं ददौ महायशाः ययातिः सत्यधर्मवित्।।
(भागवत पुराण 9.18.8)
भावार्थ:
राजा ययाति ने देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों से विवाह किया।
ययाति का भोगवृत्ति और शुक्राचार्य का श्राप
- ययाति ने शर्मिष्ठा से भी संबंध बनाए, जिससे देवयानी नाराज हो गईं।
- देवयानी ने अपने पिता शुक्राचार्य से शिकायत की।
- शुक्राचार्य ने ययाति को वृद्ध होने का श्राप दिया।
श्लोक:
तदा पितुर्वचः श्रुत्वा देवयानी समादिशत्।
श्रप्स्यते त्वां कृतघ्नं यत्कृतं शर्मिष्ठया सखे।।
(भागवत पुराण 9.18.20)
भावार्थ:
देवयानी ने अपने पिता से ययाति की शिकायत की, और शुक्राचार्य ने उन्हें वृद्ध होने का श्राप दिया।
युवावस्था की इच्छा और पुत्रों की परीक्षा
- ययाति ने शुक्राचार्य से अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी।
- शुक्राचार्य ने कहा कि यदि उनका कोई पुत्र उन्हें अपनी युवावस्था देगा, तो वे श्राप से मुक्त हो सकते हैं।
- ययाति ने अपने पाँच पुत्रों (यदु, तुर्वसु, द्रुहु, अनु, और पुरु) से अपनी युवावस्था मांगी।
यदु, तुर्वसु, द्रुहु, और अनु का इनकार
चारों पुत्रों ने अपनी युवावस्था देने से इनकार कर दिया।
श्लोक:
यद्वं यदुश्च तुर्वसुरनुर्द्रुहुः सुतास्तव।
नोक्त्वा पितुर्नाश्रद्दधुः प्रथमेऽधर्मसम्भवे।।
(भागवत पुराण 9.19.2)
भावार्थ:
यदु, तुर्वसु, द्रुहु, और अनु ने अपनी युवावस्था देने से मना कर दिया, जिसे अधर्म कहा गया।
पुरु का समर्पण
- ययाति के सबसे छोटे पुत्र पुरु ने अपनी युवावस्था उन्हें दे दी।
- इससे ययाति को पुनः भोग करने का अवसर मिला।
श्लोक:
पुरुस्त्वं पितृभक्तस्तु यौवनं दत्तवान्स्वकम्।
तेन तुष्टः पिता चास्यं राज्यं चाप्यवशिष्यत।।
(भागवत पुराण 9.19.4)
भावार्थ:
पुरु ने अपने पिता को अपनी युवावस्था दी और ययाति ने उसे आशीर्वाद दिया।
भोग-विलास का त्याग और वैराग्य
- ययाति ने कई वर्षों तक युवावस्था में भोग-विलास किया।
- अंततः उन्होंने यह समझा कि इंद्रियों की तृप्ति से इच्छाओं का अंत नहीं होता।
- उन्होंने भोग को त्यागकर वैराग्य धारण किया और पुरु को राज्य सौंप दिया।
श्लोक:
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।।
(भागवत पुराण 9.19.14)
भावार्थ:
ययाति ने कहा, "कामनाएँ भोग से समाप्त नहीं होतीं, बल्कि और बढ़ जाती हैं।"
ययाति का अंत
- ययाति ने तपस्या करते हुए अपने जीवन का अंत किया।
- उन्होंने भगवान की शरण ली और मोक्ष प्राप्त किया।
श्लोक:
तपोवने महायज्ञं कृत्वा ययातिः स्वर्गं गतः।
पुरुवंशं च प्राप्येति स्वपुण्यं फलमाप्स्यति।।
(भागवत पुराण 9.19.16)
भावार्थ:
तपस्या के बल पर ययाति ने मोक्ष प्राप्त किया और अपने वंश को समृद्ध किया।
ययाति के वंश की शाखाएँ
1. पुरु वंश:
पुरु के वंशजों में पांडव और कौरव प्रसिद्ध हुए।
2. यदु वंश:
यदु के वंश में भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ।
3. अनु, तुर्वसु, और द्रुहु वंश:
इनके वंशज विभिन्न दिशाओं में बस गए।
कथा का संदेश
1. इंद्रियों का संयम:
इच्छाओं की तृप्ति भोग से नहीं, बल्कि त्याग से संभव है।
2. त्याग और सेवा:
पुरु ने अपने पिता की सेवा के लिए युवावस्था दी, जिससे वह आदर्श पुत्र बने।
3. भोग का क्षणिक स्वभाव:
ययाति का अनुभव सिखाता है कि भोग-विलास क्षणिक हैं, और अंततः वैराग्य ही शांति देता है।
4. धर्म और कर्तव्य:
जीवन में धर्म और कर्तव्य का पालन सबसे महत्वपूर्ण है।
निष्कर्ष
महाराज ययाति की कथा भोग और वैराग्य के द्वंद्व को स्पष्ट रूप से दर्शाती है। यह कथा सिखाती है कि जीवन का असली उद्देश्य आत्मसंयम और ईश्वर की भक्ति में है। ययाति के अनुभव और उनके पुत्र पुरु का त्याग हमें धर्म और सेवा का महत्व समझाते हैं। भागवत पुराण में यह कथा कर्म, भक्ति, और वैराग्य का अद्भुत संदेश देती है।
COMMENTS