उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 17 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण
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उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 17 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण
संस्कृत पाठ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत पाठ:
सीता:
भगवति तमसे! अयं तावदीदृशो जातः। तौ पुनर्न जानाम्येतावता कालेन कुशलवौ कीदृशौ संवृताविति?
तमसा:
यादृशोऽयं, तादृशौ तावपि।
सीता:
ईदृश्यस्मि मन्दभागिनी, यस्याः न केवलमार्यपुत्रविरहः, पुत्रविरहोऽपि।
तमसा:
भवितव्यतेयमीदृशी।
सीता:
किं वा मया प्रसूतया? येनैतादृशं मम पुत्रकयोरीषद्विरलधवलदशनकुड्मलोज्ज्वलमनुबद्धमुग्धकाकलीविहसितं
नित्योज्जवलं मुखपुण्डरीकयुगलं न परिचुम्बितमार्यपुत्रेण।
तमसा:
अस्तु देवताप्रसादात्।
सीता:
भगवति तमसे! एतेनापत्यसंस्मरणेनोच्छ्वसितप्रस्नुतस्तनी इदानीं वत्सयोः पितुः सन्निधानेन क्षणमात्रं संसारिणी संवृत्तास्मि।
तमसा:
किमत्रोच्यते? प्रसवः खलु प्रकृष्टपर्यन्तः स्नेहस्य। परं चैतदन्योन्यसंश्लेषणं पित्रोः।
अन्तःकरणतत्त्वस्य दम्पत्योः स्नेहसंश्रयात्।
आनन्दग्रन्थिरेकोऽयमपत्यमिति पठ्यते॥ १७ ॥
हिन्दी अनुवाद:
सीता:
हे भगवती तमसे! मेरा यह पुत्र ऐसा हो गया है।
लेकिन इतने समय के बाद मुझे यह नहीं पता कि कुश और लव अब कैसे हैं।
तमसा:
जैसे यह पुत्र है, वैसे ही वे दोनों भी होंगे।
सीता:
मैं कितनी दुर्भाग्यशाली हूँ कि मुझे केवल आर्यपुत्र (राम) से ही नहीं,
अपने पुत्रों से भी वियोग सहना पड़ा।
तमसा:
यह नियति ही ऐसी है।
सीता:
मुझे प्रसव का यह सुख क्यों प्राप्त हुआ,
जब मेरे उन पुत्रों का, जिनके दाँतों की हल्की-सी सफेदी और
जिनकी मधुर काकली जैसी हँसी उनके कमल जैसे मुख पर चमकती है,
आर्यपुत्र (राम) द्वारा चुम्बन नहीं किया गया?
तमसा:
देवताओं की कृपा से यह संभव हो।
सीता:
हे भगवती तमसे!
इस पुत्र-स्मरण से मेरी ममता और भी बढ़ गई है।
उनके पिता की उपस्थिति से, मैं थोड़ी देर के लिए संसारिणी (सांसारिक) हो गई हूँ।
तमसा:
इस विषय में क्या कहा जाए?
प्रसव तो स्नेह का सर्वोच्च परिणाम है।
लेकिन माता-पिता का यह आपसी मिलन,
जिसमें उनके हृदय की गहराई और स्नेह का आधार होता है,
वह संतान के रूप में आनंद की गाँठ बनता है।
शब्द-विश्लेषण
1. अयं तावदीदृशो जातः
- संधि-विच्छेद: अयम् + तावत् + ईदृशः + जातः।
- धातु: √जन् (जन्म लेना)।
- अर्थ: यह पुत्र ऐसा हो गया है।
2. कुशलवौ
- समास: द्वंद्व समास (कुश + लव)।
- अर्थ: कुश और लव।
3. मन्दभागिनी
- समास: कर्मधारय समास (मन्द + भागिनी)।
- मन्द: दुर्भाग्यपूर्ण।
- भागिनी: किस्मत वाली।
- अर्थ: दुर्भाग्यपूर्ण।
4. विरलधवलदशनकुड्मलोज्ज्वलम्
- संधि-विच्छेद: विरल + धवल + दशन + कुड्मल + उज्ज्वलम्।
- विरल: हल्का।
- धवल: सफेद।
- दशन: दाँत।
- कुड्मल: कली।
- उज्ज्वलम्: चमकता हुआ।
- अर्थ: हल्के सफेद और चमकते हुए दाँत।
5. अपत्यसंस्मरणेन
- संधि-विच्छेद: अपत्य + संस्मरणेन।
- अपत्य: संतान।
- संस्मरण: याद करना।
- अर्थ: संतान का स्मरण।
6. क्षणमात्रं संसारिणी
- समास: कर्मधारय समास (क्षण + मात्रं)।
- क्षण: पल भर।
- मात्र: केवल।
- अर्थ: केवल क्षण भर के लिए सांसारिक।
7. प्रकृष्टपर्यन्तः
- संधि-विच्छेद: प्रकृष्ट + पर्यन्तः।
- प्रकृष्ट: उत्कृष्ट या सर्वोच्च।
- पर्यन्त: अंतिम।
- अर्थ: सर्वोच्च परिणाम।
8. स्नेहसंश्रयात्
- संधि-विच्छेद: स्नेह + संश्रयात्।
- स्नेह: प्रेम।
- संश्रय: सहारा।
- अर्थ: प्रेम के आधार से।
9. आनन्दग्रन्थिः
- समास: कर्मधारय समास (आनन्द + ग्रन्थिः)।
- आनन्द: खुशी।
- ग्रन्थिः: गाँठ।
- अर्थ: खुशी की गाँठ।
व्याख्या:
उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 17 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण अंश सीता के ममता-भरे हृदय को उजागर करता है, जहाँ वे अपने पुत्रों कुश और लव की अनुपस्थिति में दुःख व्यक्त करती हैं। तमसा नियति को दोष मानती हैं, लेकिन सीता के शब्द यह संकेत देते हैं कि स्नेह और ममता किसी भी दुःख को सहने की शक्ति प्रदान करती है।
इस अंश में "आनन्दग्रन्थिः" जैसी गहन भावनात्मक अभिव्यक्तियाँ यह दर्शाती हैं कि माता-पिता के बीच संतान एक ऐसा बंधन है जो प्रेम का सार प्रस्तुत करता है।