मन्त्र 11 (ईशावास्य उपनिषद) मूल पाठ विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतमश्नुते।
मन्त्र 11 (ईशावास्य उपनिषद) |
मन्त्र 11 (ईशावास्य उपनिषद)
मूल पाठ
शब्दार्थ
- विद्यां: ज्ञान (आध्यात्मिक ज्ञान, आत्मा का सत्य)।
- अविद्यां: अज्ञान (कर्मकांड, सांसारिक कर्तव्य)।
- च: और।
- यः: जो।
- तत्: यह।
- वेद: जानता है।
- उभयं सह: दोनों को साथ-साथ।
- अविद्यया: अज्ञान (कर्म) के द्वारा।
- मृत्युम् तीर्त्वा: मृत्यु को पार करता है।
- विद्यया: ज्ञान (आध्यात्मिकता) के द्वारा।
- अमृतम् अश्नुते: अमरत्व को प्राप्त करता है।
अनुवाद
जो व्यक्ति विद्या (आत्मज्ञान) और अविद्या (कर्मकांड) दोनों को एक साथ जानता है, वह अविद्या (कर्म) के माध्यम से मृत्यु को पार करता है और विद्या (ज्ञान) के माध्यम से अमरत्व को प्राप्त करता है।
व्याख्या
यह मन्त्र विद्या (ज्ञान) और अविद्या (कर्म) दोनों के सामूहिक महत्व को समझाने पर केंद्रित है।
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विद्या और अविद्या का महत्व:
- विद्या आत्मज्ञान है, जो आत्मा और ब्रह्म के सत्य स्वरूप को समझने में मदद करता है।
- अविद्या सांसारिक कर्तव्यों और कर्मों का पालन है, जो जीवन को व्यवस्थित और संरक्षित करता है।
- दोनों ही जीवन को सफल और पूर्ण बनाने के लिए आवश्यक हैं।
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मृत्यु से मुक्ति और अमरत्व:
- कर्म (अविद्या) का अभ्यास मृत्यु और संसार के बंधनों को पार करने में सहायक होता है।
- ज्ञान (विद्या) व्यक्ति को आत्मा की अमरता और मोक्ष की ओर ले जाता है।
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दोनों का संतुलन:केवल एक मार्ग पर चलना व्यक्ति को आधा-अधूरा बना सकता है।
- केवल अविद्या (कर्म) का पालन आत्मज्ञान के बिना व्यक्ति को जन्म-मरण के चक्र में फंसा देता है।
- केवल विद्या (ज्ञान) का अभ्यास संसारिक कर्तव्यों से विमुख कर देता है।दोनों का संतुलित पालन जीवन को पूर्णता की ओर ले जाता है।
आध्यात्मिक संदेश
- जीवन का संतुलन: ज्ञान और कर्म दोनों का संतुलित पालन ही सही जीवन जीने का मार्ग है।
- मृत्यु और अमरत्व: कर्म से व्यक्ति सांसारिक बंधनों से मुक्त होता है, और ज्ञान से मोक्ष प्राप्त करता है।
- समग्र दृष्टिकोण: व्यक्ति को न केवल आध्यात्मिक जीवन अपनाना चाहिए, बल्कि समाज और परिवार के प्रति भी अपनी जिम्मेदारियां पूरी करनी चाहिए।
आधुनिक संदर्भ में उपयोग
- यह मन्त्र हमें सिखाता है कि आत्मज्ञान और कर्म दोनों का समान महत्व है।
- जीवन में केवल भौतिकता या केवल आध्यात्मिकता पर्याप्त नहीं है। व्यक्ति को दोनों के बीच संतुलन बनाए रखना चाहिए।
- कर्म (कर्तव्य) का पालन करते हुए आत्मज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
विशेष बात
यह मन्त्र हमें प्रेरित करता है कि हम कर्म और ज्ञान, दोनों के महत्व को समझें और अपने जीवन को संतुलन के साथ जीएं। इस संतुलन से ही मृत्यु के बंधन से मुक्ति और अमरत्व (मोक्ष) की प्राप्ति संभव है।
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