अग्नि सूक्त, ऋग्वेद (1.1) की व्याख्या

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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अग्नि सूक्त, ऋग्वेद (1.1) की व्याख्या
अग्नि सूक्त, ऋग्वेद (1.1) की व्याख्या

ऋग्वेद का प्रथम सूक्त: मंत्रों का क्रमशः वर्णन

ऋग्वेद का प्रथम सूक्त अग्नि देवता की स्तुति पर केंद्रित है। इसमें कुल 9 मंत्र हैं। प्रत्येक मंत्र में अग्नि के गुण, उनकी भूमिका और यज्ञ के महत्व को दर्शाया गया है।


मंत्र 1

अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।
होतारं रत्नधातमम्॥

  • भावार्थ:
    • मैं उस अग्नि की स्तुति करता हूँ, जो यज्ञ का पुरोहित, देवताओं का प्रतिनिधि, ऋतु के अनुसार यज्ञ करने वाला, और यज्ञ का मुख्यकर्ता है।
    • वह हमें रत्न और समृद्धि प्रदान करता है।

मंत्र 2

अग्निः पूर्वेभिरृषिभिरीड्यो नूतनैरुत।
स देवाँ एह वक्षति॥

  • भावार्थ:
    • अग्नि प्राचीन ऋषियों और वर्तमान में भी नवीन ऋषियों द्वारा स्तुत्य है।
    • वह देवताओं को यज्ञ स्थल पर लाने का माध्यम है।

मंत्र 3

अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवे-दिवे।
यशसं वीरवत्तमम्॥

  • भावार्थ:
    • अग्नि के माध्यम से प्रतिदिन धन, समृद्धि, यश, और वीरता प्राप्त होती है।
    • यह धन केवल भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक भी है।

मंत्र 4

अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि।
स इद्देवेषु गच्छति॥

  • भावार्थ:
    • हे अग्नि! जिस यज्ञ को तुम चारों ओर से रक्षित करते हो, वह देवताओं तक पहुँचता है।
    • यह यज्ञ हिंसारहित (अध्वर) है।

मंत्र 5

अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः।
देवो देवेभिरा गमत्॥

  • भावार्थ:
    • अग्नि यज्ञ का होता (हवन करने वाला) है।
    • वह बुद्धिमान और सत्य है, जिसकी प्रसिद्धि चारों ओर फैली हुई है।
    • वह देवताओं के साथ यज्ञ में आता है।

मंत्र 6

यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि।
तवेत तत्सत्यमङ्गिरः॥

  • भावार्थ:
    • हे अग्नि! यदि तुम भक्तों के लिए शुभ कार्य करते हो, तो वह सत्य और अमर है।
    • यह तुम्हारा अंगिरस (प्रकाश) स्वरूप है।

मंत्र 7

उप त्वाग्ने दिवे-दिवे दोषावस्तर्धिया वयम्।
नमो भरन्त एमसि॥

  • भावार्थ:
    • हे अग्नि! हम प्रतिदिन तुम्हारी प्रार्थना करते हैं और तुम्हें नमन करते हैं।
    • हमारी बुद्धि तुम्हारी कृपा से पवित्र हो।

मंत्र 8

राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम्।
वर्धमानं स्वे दमे॥

  • भावार्थ:
    • अग्नि यज्ञों का राजा, अमृत का रक्षक, और अपने स्थान पर प्रज्वलित होकर बढ़ता रहता है।
    • वह सदैव अपनी दिव्यता में बढ़ता है।

मंत्र 9

स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव।
सचस्वा नः स्वस्तये॥

  • भावार्थ:
    • हे अग्नि! जैसे पिता अपने पुत्र के लिए शुभ करता है, वैसे ही हमारे लिए शुभ करो।
    • हमें सदैव कल्याण का मार्ग दिखाओ।

संक्षेप में सूक्त का संदेश:

  1. अग्नि की भूमिका:

    • अग्नि देवता यज्ञ का मुख्य भाग है।
    • वह देवताओं और मनुष्यों के बीच सेतु का कार्य करता है।
  2. यज्ञ का महत्व:

    • यज्ञ से धन, समृद्धि, और यश की प्राप्ति होती है।
    • यह आध्यात्मिक और भौतिक उन्नति का माध्यम है।
  3. अग्नि की महिमा:

    • अग्नि दिव्य है, सत्य है, और बुद्धिमान है।
    • वह हमारी रक्षा करता है और हमें सही मार्ग दिखाता है।

दर्शन और प्रेरणा:

  1. प्रकृति का सम्मान:

    • अग्नि प्रकृति के पाँच तत्वों में से एक है।
    • इसे सम्मानित करने का अर्थ प्रकृति का आदर करना है।
  2. आध्यात्मिक मार्ग:

    • अग्नि केवल भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक प्रकाश का प्रतीक भी है।
    • वह अज्ञान के अंधकार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश लाता है।
  3. यज्ञ और समाज:

    • यज्ञ समाज की नैतिकता और समृद्धि का आधार है।
    • यह मनुष्य को देवताओं और प्रकृति से जोड़ता है।

उपसंहार:

ऋग्वेद का प्रथम सूक्त अग्नि देवता की महिमा, यज्ञ के महत्व, और धर्म के आदर्शों को प्रकट करता है। यह सूक्त हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य, यज्ञ के प्रति निष्ठा, और आध्यात्मिक उन्नति की प्रेरणा देता है।

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