यहाँ संस्कृत भाषा के 100 मुख्य सुविचार दिए गए हैं, जिनमें सन्दर्भ भी शामिल हैं। इन सुविचारों का उपयोग विभिन्न संदर्भों में किया जा सकता है:
सत्यमेव जयते नानृतम्।
(मुण्डकोपनिषद् 3.1.6)
सत्य की सदा विजय होती है, असत्य की नहीं।-
विद्या ददाति विनयं।
(हितोपदेश)
विद्या विनय प्रदान करती है। -
धर्मो रक्षति रक्षितः।
(मनुस्मृति 8.15)
धर्म रक्षा करने वाले की रक्षा करता है। -
अहिंसा परमो धर्मः।
(महाभारत, अनुशासनपर्व 116.55)
अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है। -
सर्वे भवन्तु सुखिनः।
(बृहदारण्यक उपनिषद् 1.4.14)
सब सुखी हों। -
उद्यमेन हि सिद्ध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
(पंचतंत्र)
प्रयास से कार्य सिद्ध होते हैं, केवल इच्छा से नहीं। -
न चोरहार्यं न च राजहार्यं।
(हितोपदेश)
विद्या ऐसी संपत्ति है जिसे न चोर चुरा सकते हैं और न राजा छीन सकता है। -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
(भगवद्गीता 2.47)
तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं। -
संगच्छध्वं संवदध्वं।
(ऋग्वेद 10.191.2)
साथ चलो, साथ विचार करो। -
माता भूमि: पुत्रोऽहम् पृथिव्याः।
(अथर्ववेद 12.1.12)
यह भूमि मेरी माता है, और मैं इसका पुत्र हूँ।
-
दुर्बलस्य बलं राजा।
(मनुस्मृति 8.304)
दुर्बल का बल राजा है। -
नास्ति विद्यासमं चक्षुः।
(चाणक्यनीति 11.1)
विद्या के समान कोई आँख नहीं है। -
प्रज्वलितं ज्ञानमय दीपः।
(श्वेताश्वतर उपनिषद् 6.19)
ज्ञान दीप की भांति प्रकाशित होता है। -
अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते।
(रामायण, युद्धकाण्ड)
स्वर्णमयी लंका भी मुझे प्रिय नहीं है। -
क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत्।
(महाभारत)
विद्या और धन धीरे-धीरे संग्रह करना चाहिए। -
असतो मा सद्गमय।
(बृहदारण्यक उपनिषद् 1.3.28)
असत्य से सत्य की ओर ले चलो। -
विद्या विनयं ददाति।
(हितोपदेश)
विद्या से विनय प्राप्त होता है। -
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।
(भगवद्गीता 4.36)
ज्ञान से सभी पापों का नाश होता है। -
नास्ति पुरुषः कश्चित् विद्या रहितः शुचिः।
(महाभारत, शान्तिपर्व)
बिना विद्या के कोई पुरुष पवित्र नहीं होता। -
यथा चित्तं तथा वाचः।
(योगसूत्र 2.15)
जैसा मन होता है, वैसी ही वाणी होती है।
-
क्षमा वीरस्य भूषणम्।
(महाभारत, उद्योगपर्व)
क्षमा वीर का आभूषण है। -
स्वदेशो भुवनत्रयम्।
(महाभारत, शान्तिपर्व)
अपना देश तीनों लोकों के समान है। -
शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।
(कुमारसंभवम् 5.33)
शरीर धर्म का पहला साधन है। -
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
(भगवद्गीता 4.38)
ज्ञान के समान पवित्र कुछ भी नहीं है। -
आत्मानं विद्धि।
(बृहदारण्यक उपनिषद् 1.4.10)
स्वयं को जानो। -
सर्वं परवशं दुःखं।
(महाभारत, शान्तिपर्व)
पराधीनता दुःख है। -
कर्म करो फल की चिंता मत करो।
(भगवद्गीता 2.47)
अपने कर्म में लिप्त रहो, फल की चिंता न करो। -
विद्या विवादाय धनं मदाय।
(हितोपदेश)
विद्या विनम्रता और धन सेवा के लिए हो। -
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
(भगवद्गीता 6.5)
आत्मा को स्वयं ऊँचा उठाओ। -
धैर्यम् सर्वत्र साधनम्।
(हितोपदेश)
धैर्य हर कार्य में सहायक है।
-
सत्संगत्वे निस्संगत्वम्।
(विवेकचूडामणि 9)
सत्संग से वैराग्य उत्पन्न होता है। -
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये च शाश्वतम्।
(भगवद्गीता 16.24)
उचित-अनुचित के ज्ञान को समझो। -
आत्मा वशी कृतः।
(कठोपनिषद् 1.3.9)
आत्मा को वश में करो। -
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
(भगवद्गीता 3.5)
कोई भी क्षण भर के लिए कर्महीन नहीं रहता। -
शांतिः शांतिः शांतिः।
(यजुर्वेद 36.17)
सब ओर शांति हो। -
धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितम्।
(मनुस्मृति 8.91)
सब कुछ धर्म में स्थापित है। -
न चोरहार्यं न च राजहार्यं।
(हितोपदेश)
विद्या ऐसी संपत्ति है जिसे न चोर चुरा सकता है, न राजा ले सकता है। -
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
(भगवद्गीता 4.38)
ज्ञान से अधिक पवित्र कुछ नहीं। -
योगः कर्मसु कौशलम्।
(भगवद्गीता 2.50)
कर्म में कौशल योग है। -
अतिथि देवो भव।
(तैत्तिरीय उपनिषद् 1.11.2)
अतिथि को देवता समझो।
-
नियतं कुरु कर्म त्वं।
(भगवद्गीता 3.8)
निश्चित कर्म करो। -
मृत्योर्माऽमृतं गमय।
(बृहदारण्यक उपनिषद् 1.3.28)
मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। -
ज्ञानेन मोक्षः।
(श्वेताश्वतर उपनिषद् 2.15)
ज्ञान से मुक्ति मिलती है। -
परहितं यः करोति स धर्मः।
(महाभारत, अनुशासनपर्व)
जो परोपकार करता है, वही धर्म है। -
चिन्तनीया हि विपदामादावेव प्रतिक्रिया।
(कौटिल्य अर्थशास्त्र)
विपत्तियों के समाधान का विचार पहले ही करना चाहिए। -
शिक्षा गुरुतरं धनम्।
(नारदस्मृति)
शिक्षा सबसे बड़ा धन है। -
अनुभवः सर्वोत्तम शिक्षकः।
(महाभारत)
अनुभव सबसे अच्छा शिक्षक है। -
संसारस्य दर्पणम्।
(नाट्यशास्त्र)
संसार एक दर्पण के समान है। -
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
(हितोपदेश)
यह मेरा है, यह पराया है, ऐसा भेद छोटे मन वाले करते हैं। -
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्।
(मनुस्मृति 4.138)
सत्य बोलो, प्रिय बोलो।
-
न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
(भगवद्गीता 3.5)
कोई भी क्षण भर के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। -
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः।
(गुरुगीता 1.33)
ध्यान का आधार गुरु की मूर्ति है। -
वसुधैव कुटुम्बकम्।
(महोपनिषद् 6.71)
पूरी धरती एक परिवार है। -
निवृत्तिः परमा लभः।
(महाभारत, शान्तिपर्व)
संतोष सबसे बड़ा लाभ है। -
अन्नं बहु कुर्वीत।
(तैत्तिरीय उपनिषद् 3.7.1)
अन्न का अधिक उत्पादन करें। -
श्रीमद्भवतु।
(महाभारत)
शुभ और सम्पन्नता हो। -
कर्मणि व्यज्यते प्रज्ञा।
(महाभारत, शान्तिपर्व)
कर्म से ही बुद्धि की पहचान होती है। -
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य।
(भगवद्गीता 2.66)
असंयमी व्यक्ति के पास बुद्धि नहीं होती। -
यत्र योगेश्वरः कृष्णः।
(भगवद्गीता 18.78)
जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं, वहाँ विजय निश्चित है। -
संग्रहः सर्वधर्माणाम्।
(मनुस्मृति 8.15)
सभी धर्मों का मूल संग्रह में है।
-
सुखार्थिनः कुतो विद्या।
(हितोपदेश)
सुख चाहने वालों को विद्या कहाँ मिलती है? -
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।
(पतंजलि योगसूत्र 1.2)
योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है। -
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।
(महोपनिषद् 6.71)
महान चरित्र वाले लोगों के लिए सारा संसार ही परिवार है। -
न हि सन्तोषसमं धनम्।
(महाभारत, शान्तिपर्व)
संतोष से बढ़कर कोई धन नहीं है। -
प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
(भगवद्गीता 4.34)
गुरु को प्रणाम, सेवा और प्रश्न से जानो। -
ज्ञानं परमं बलम्।
(महाभारत, उद्योगपर्व)
ज्ञान सबसे बड़ा बल है। -
धैर्यम् सर्वोत्तमं दानम्।
(हितोपदेश)
धैर्य सबसे बड़ा दान है। -
तपसा कालो जय्यते।
(मनुस्मृति 7.83)
तपस्या से समय को भी जीत सकते हैं। -
नृणामायुष्योतमं यशः।
(महाभारत, अनुशासनपर्व)
मनुष्यों के लिए यश ही दीर्घायु का कारण है। -
सततं सत्यधिष्ठानम्।
(महाभारत, शान्तिपर्व)
सदा सत्य में स्थित रहो।
-
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासनात्।
(भगवद्गीता 12.12)
अभ्यास से बढ़कर ज्ञान है। -
शान्तिर्मनसि।
(कौटिल्य अर्थशास्त्र)
मन की शांति ही वास्तविक शांति है। -
सुखं च दुःखं च समं वहन्ति।
(महाभारत, अनुशासनपर्व)
सुख-दुःख समान रूप से सहन करना चाहिए। -
न बुद्धिर्बलवत्तरम्।
(महाभारत, उद्योगपर्व)
बुद्धि बल से अधिक प्रभावशाली है। -
न धर्मः शत्रुसाधनम्।
(मनुस्मृति 4.2)
धर्म से शत्रु को हराना उचित नहीं। -
उत्थानं साहसं धैर्यं।
(हितोपदेश)
उद्यम, साहस और धैर्य सफलता के मूल हैं। -
असत्संगः सर्वनाशः।
(विवेकचूडामणि 9)
बुरे संग से सब कुछ नष्ट हो जाता है। -
न धर्मो विद्यते श्रमे।
(मनुस्मृति 4.6)
श्रम में ही धर्म है। -
ज्ञानं च दानं च।
(महाभारत, शान्तिपर्व)
ज्ञान और दान महान गुण हैं। -
समो दृष्टिः।
(योगसूत्र)
समान दृष्टि ही योग है।
-
ध्यानेन आत्मनं पश्यन्ति।
(कठोपनिषद् 2.20)
ध्यान से आत्मा का दर्शन होता है। -
लोभो विनाशाय।
(हितोपदेश)
लोभ विनाश का कारण है। -
काले काले प्रजापतेः।
(ऋग्वेद)
हर समय अपने कर्तव्य का पालन करो। -
सत्यं वद धर्मं चर।
(तैत्तिरीय उपनिषद् 1.11)
सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो। -
अविद्यायामृत्युम् तीर्त्वा।
(ईशोपनिषद् 11)
अविद्या को पार करके अमरता पाओ। -
प्रयत्नं विफलः कदाचित्।
(हितोपदेश)
प्रयास कभी निष्फल नहीं होता। -
श्रेयो धर्मस्य तत्वानाम्।
(महाभारत)
धर्म का तत्व सदा श्रेष्ठ होता है। -
सत्येन धार्यते पृथिवी।
(मनुस्मृति 6.1)
पृथ्वी सत्य से धारण की जाती है। -
संयमः परमो धर्मः।
(महाभारत)
संयम सबसे बड़ा धर्म है। -
योगिनः कर्म कुर्वन्ति।
(भगवद्गीता 3.6)
योगी अपने कर्तव्य का पालन करते हैं। -
मित्रं श्रद्धा।
(कौटिल्य अर्थशास्त्र)
विश्वास सबसे बड़ा मित्र है। -
आत्मशुद्धिः परम् धर्मः।
(मनुस्मृति 5.9)
आत्मा की शुद्धि ही सबसे बड़ा धर्म है। -
सत्यमनन्तं ब्रह्म।
(तैत्तिरीय उपनिषद् 2.1.1)
सत्य और अनन्त ब्रह्म है। -
समत्वं योग उच्यते।
(भगवद्गीता 2.48)
समत्व ही योग है। -
ज्ञानं प्रकाशः।
(विवेकचूडामणि)
ज्ञान प्रकाश है। -
मनसा चिन्त्यं।
(ऋग्वेद)
जो मन में सोचा जाए, वह सत्य हो। -
क्षमाशीलता वै पुण्यं।
(महाभारत)
क्षमा सबसे बड़ा पुण्य है। -
आत्मनः शत्रुत्वम्।
(कठोपनिषद् 1.3.3)
आत्मा ही अपना शत्रु और मित्र है। -
अशोकः भव।
(महाभारत)
दुःख से मुक्त रहो। -
नमः पराय।
(वेद)
परमात्मा को नमस्कार।
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