उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 10 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण
उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 10 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण |
संस्कृत पाठ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत पाठ:
रामः:
हा प्रिये जानकि!
तमसा (स्वगतम्):
इदं तावदाशङ्कितं गुरुजनेन।
सीता (समाश्वस्य):
हा! कथमेतत्?
(पुनर्नेपथ्ये)
हा देवि दण्डकारण्यवासप्रियसखि विदेहराजपुत्रि!
(इति मूर्च्छति)
सीता (पादयोः पतति):
हा धिक्! हा धिक्!
मां मन्दभागिनीं व्यात्यामीलितनेत्रनीलोत्पलो मूर्च्छित एव।
हा! कथं धरणीपृष्ठे निरुद्धनिःश्वासनिःसहं विपर्यस्तः।
भगवति तमसे! परित्रायस्व परित्रायस्व।
जीवयार्यपुत्रम्।
तमसा:
त्वमेव ननु कल्याणि! सञ्जीवय जगत्पतिम्।
प्रियस्पर्शो हि पाणिस्ते तत्रैष निरतो जनः॥ १० ॥
हिन्दी अनुवाद:
राम:
हे प्रिय जानकी!
तमसा (स्वगत):
यह तो गुरुजनों द्वारा पहले ही अनुमानित था।
सीता (संयमित होकर):
हा! यह क्या हो रहा है?
(पुनः नेपथ्य में आवाज सुनाई देती है):
हे देवी! दण्डकारण्य में रहने वाली प्रिय सखी,
हे विदेहराज की पुत्री!
(सीता मूर्च्छित हो जाती हैं।)
सीता (राम के चरणों में गिरकर):
हा! धिक्कार है, धिक्कार है!
मुझे, इस दुर्भाग्यशाली को, देखो।
राम, जिनकी आँखें नीले कमल के समान थीं,
वे मूर्च्छित हो गए हैं।
हा! यह कैसे संभव है कि वे, धरती पर पड़े हुए,
अपना श्वास भी नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं।
हे भगवती तमसे! कृपया उन्हें बचाओ, बचाओ।
आर्यपुत्र को जीवित करो।
तमसा:
हे कल्याणी! तुम ही तो उन्हें जीवित कर सकती हो।
तुम्हारा स्पर्श ही ऐसा प्रिय है,
जिससे यह संसार का स्वामी (राम) जीवन पाना चाहता है।
शब्द-विश्लेषण:
-
हा प्रिये जानकि!
- हा - आह, दुःख का भाव।
- प्रिये - प्रिय व्यक्ति (सीता)।
- जानकि - जनक की पुत्री (सीता)।
- अर्थ: हे प्रिय जानकी!
-
आशङ्कितं -
- धातु: √शङ्क (संदेह करना), क्त प्रत्यय।
- अर्थ: पहले से अनुमान किया गया।
-
मूर्च्छित एव -
- मूर्च्छित - चेतना खो बैठना;
- एव - ही।
- अर्थ: मूर्छित हो गए हैं।
-
निरुद्धनिःश्वासनिःसहं -
- निरुद्ध - अवरुद्ध;
- निःश्वास - श्वास;
- निःसहं - असमर्थ।
- अर्थ: सांस लेने में असमर्थ।
-
सञ्जीवय -
- धातु: √जीव (जीवित करना), सन्निहित उपसर्ग सं।
- अर्थ: जीवन देना।
-
प्रियस्पर्शो हि पाणिस्ते -
- प्रियस्पर्श - प्रिय का स्पर्श;
- पाणि - हाथ।
- अर्थ: तुम्हारा हाथ प्रिय का स्पर्श है।
-
जगत्पतिम् -
- जगत् - संसार;
- पतिम् - स्वामी।
- अर्थ: संसार का स्वामी।
व्याख्या:
इस अंश में सीता और राम के बीच गहरा भावनात्मक संबंध और उनका दुःखपूर्ण संवाद चित्रित हुआ है। राम के मूर्छित होने पर सीता की करुणा चरम पर है, और वह उन्हें जीवित करने के लिए तमसा से प्रार्थना करती हैं। तमसा सीता को यह समझाती हैं कि उनका प्रेम और स्पर्श ही राम को जीवन देने में समर्थ है। यह अंश प्रेम और विश्वास की शक्ति का प्रतीक है।