भागवत महापुराण के स्कंध 1, अध्याय 8 में महारानी कुंती के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति, पांडवों की स्तुति, और धर्मराज युधिष्ठिर के मन की व्याकुलता का वर्णन है। यह अध्याय भगवान की महिमा, उनकी कृपा, और भक्ति का महत्व प्रकट करता है।
अध्याय 8 का सारांश:
1. युधिष्ठिर की चिंता:
- महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद, युधिष्ठिर धर्मराज बने लेकिन वे युद्ध में हुए विनाश और अपार हानि से अत्यंत दुखी और चिंतित थे।
- उन्होंने स्वयं को युद्ध के लिए दोषी ठहराया और कहा कि इतने लोगों की मृत्यु का कारण वे हैं।
2. भगवान श्रीकृष्ण का धैर्य देना:
- भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को धर्म का स्मरण कराया और समझाया कि अधर्मियों के विनाश और धर्म की स्थापना के लिए यह युद्ध आवश्यक था।
- उन्होंने बताया कि यह सब उनकी लीला और नियति का ही परिणाम है।
3. कुंती स्तुति:
- कुंती देवी ने भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए उनकी महिमा का गुणगान किया। उनकी प्रार्थना निम्नलिखित बिंदुओं पर आधारित है:
- भगवान का अनादि स्वरूप: कुंती ने भगवान को 'अनंत', 'जगत का पालनकर्ता' और 'समस्त जीवों के परम नियंता' के रूप में वर्णित किया।
- संसार के बंधनों से मुक्ति: कुंती ने कहा कि भगवान की भक्ति से ही संसार के बंधनों से मुक्ति संभव है।
- कठिनाइयों में भगवान की कृपा: उन्होंने प्रार्थना की कि उनके जीवन में हमेशा कठिनाइयाँ रहें, क्योंकि कठिनाइयों के समय में भगवान का स्मरण स्वाभाविक होता है।
- माया का प्रभाव: कुंती ने कहा कि भगवान की माया इतनी शक्तिशाली है कि इसे पार करना कठिन है। केवल भक्त ही इसे पार कर सकते हैं।
- भगवान के प्रति प्रेम: कुंती ने भगवान से यह प्रार्थना की कि उनका प्रेम केवल श्रीकृष्ण के चरणों में स्थिर रहे।
4. भगवान की लीला:
- कुंती देवी ने श्रीकृष्ण से यह प्रार्थना की कि वे पांडवों के जीवन में हमेशा उपस्थित रहें। उन्होंने श्रीकृष्ण को अपना सखा और संरक्षक कहा।
5. द्रौपदी की विनम्रता:
- द्रौपदी ने भी भगवान की कृपा के लिए धन्यवाद दिया और उनकी स्तुति की। उन्होंने कहा कि भगवान ने हमेशा संकट के समय पांडवों की रक्षा की है।
6. श्रीकृष्ण का हस्तिनापुर से प्रस्थान:
- भगवान श्रीकृष्ण पांडवों को आश्वासन देकर और युधिष्ठिर को धर्म का पालन करने की शिक्षा देकर हस्तिनापुर से द्वारका जाने की तैयारी करते हैं।
- पांडव और अन्य भक्त भगवान के जाने से अत्यंत व्याकुल हो जाते हैं।
मुख्य श्लोक:
1. नमोऽकिञ्चनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये।
- "हे भगवान! आप निर्धनों के धन और माया के गुणों से रहित हैं। मैं आपको प्रणाम करती हूँ।"
2. विपदः सन्तु ताः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो।
- "हे जगद्गुरु! मेरे जीवन में हमेशा विपत्तियाँ बनी रहें, क्योंकि विपत्तियों के समय में ही आपका साक्षात्कार होता है।"
3. जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिर्धमान मदः पुमान्।
- "धन, ऐश्वर्य, शिक्षा और सुंदरता से व्यक्ति में अहंकार उत्पन्न होता है और वह भगवान का स्मरण नहीं कर पाता।"
मुख्य संदेश:
1. भगवान की भक्ति: कुंती देवी का उदाहरण दिखाता है कि कठिनाइयों के समय में भगवान का स्मरण सहजता से होता है, और भक्त के लिए यह आशीर्वाद है।
2. विनम्रता और समर्पण: कुंती और द्रौपदी की प्रार्थनाएँ सिखाती हैं कि भक्ति में अहंकार और स्वार्थ के लिए कोई स्थान नहीं है।
3. धर्म का पालन: युधिष्ठिर के चरित्र से यह शिक्षा मिलती है कि धर्म और सत्य का पालन हर परिस्थिति में करना चाहिए।
4. भगवान की माया: कुंती देवी ने यह बताया कि भगवान की माया से मुक्त होने के लिए केवल उनकी भक्ति और कृपा आवश्यक है।
विशेषता:
यह अध्याय भगवान श्रीकृष्ण की महिमा, उनकी कृपा और भक्तों के प्रति उनके स्नेह को प्रकट करता है। कुंती स्तुति भागवत महापुराण का एक प्रसिद्ध और प्रेरणादायक भाग है, जो भक्तों को भगवान के प्रति समर्पण और भक्ति की प्रेरणा देता है।
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