A serene scene of King Parikshit sitting on the bank of the sacred Ganges River during sunset, surrounded by sages and ascetics in traditional Indian |
श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कंध 1, अध्याय 19 का सारांश
यह अध्याय राजा परीक्षित की आत्मचिंतन और उनकी भक्ति के माध्यम से धर्म, वैराग्य और भक्ति का मार्ग प्रस्तुत करता है। राजा परीक्षित, जिनका शासन धर्म और न्याय का प्रतीक था, शमीक ऋषि के प्रति किए गए अनुचित व्यवहार के कारण श्रापित हुए। इस श्राप के परिणामस्वरूप उन्हें सात दिनों में मृत्यु का सामना करना पड़ा। यह कथा आत्मनिरीक्षण, पश्चात्ताप, और भगवान के प्रति समर्पण का एक अद्भुत उदाहरण है।
मुख्य घटनाएँ:
1. राजा परीक्षित का आत्मचिंतन और पश्चात्ताप:
राजा परीक्षित को शमीक ऋषि के पुत्र श्रंगी द्वारा दिया गया श्राप याद आता है। वह गहरे आत्मनिरीक्षण में डूब जाते हैं और अपने कार्यों का विश्लेषण करते हैं। उन्हें यह एहसास होता है कि उनके द्वारा किया गया कर्म निंदनीय था। वे इसे "अनार्य" और "नीच" आचरण मानते हैं।
महीपतिस्त्वथ तत्कर्म गर्ह्यं
विचिन्तयन् नात्मकृतं सुदुर्मनाः।
अहो मया नीचमनार्यवत्कृतं
निरागसि ब्रह्मणि गूढतेजसि।।
वे अपने अपराध को स्वीकार करते हुए यह प्रार्थना करते हैं कि उनके पापों का प्रायश्चित मृत्यु द्वारा हो और वे ऐसा कर्म फिर कभी न करें।
ध्रुवं ततो मे कृतदेवहेलनाद्
दुरत्ययं व्यसनं नातिदीर्घात्।
तदस्तु कामं ह्यघनिष्कृताय मे
यथा न कुर्यां पुनरेवमद्धा।।
2. गंगा तट पर प्रायोपवेश का निर्णय:
अपने अपराध के प्रति जागरूक होकर राजा परीक्षित गंगा नदी के तट पर जाकर प्रायोपवेश (भोजन और जल का त्याग) करते हैं। उन्होंने अपने मन को भगवान की भक्ति और चरणों की सेवा में स्थिर किया। गंगा को भगवान श्रीकृष्ण का चरणामृत मानते हुए उन्होंने इसे आत्मा की शुद्धि और मोक्ष का माध्यम माना।
अथो विहायेमममुं च लोकं
विमर्शितौ हेयतया पुरस्तात्।
कृष्णाङ्घ्रिसेवामधिमन्यमान
उपाविशत् प्रायममर्त्यनद्याम्।।
यह निर्णय उनके वैराग्य, भक्ति और आत्मसमर्पण का प्रतीक है।
3. ऋषि-मुनियों का आगमन:
राजा परीक्षित की इस स्थिति को देखकर अनेक महान ऋषि और मुनि, जैसे वसिष्ठ, अत्रि, नारद, पराशर, और वेदव्यास, गंगा तट पर एकत्रित होते हैं। उनका आगमन यह दर्शाता है कि सच्चा धर्म और वैराग्य लोगों को आकर्षित करता है।
तत्रोपजग्मुर्भुवनं पुनाना
महानुभावा मुनयः सशिष्याः।
प्रायेण तीर्थाभिगमापदेशैः
स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति सन्तः।।
ऋषियों ने राजा की भक्ति भावना की प्रशंसा की और उनके वैराग्य को महान आदर्श बताया।
4. महर्षि शुकदेव का आगमन:
महर्षि शुकदेव, जो वेद और शास्त्रों के ज्ञाता थे, राजा परीक्षित से मिलने गंगा तट पर आते हैं। उनका व्यक्तित्व अलौकिक और निर्मल था। वे ब्रह्मज्ञान और भक्ति के सर्वोच्च ज्ञाता थे।
तत्राभवद् भगवान् व्यासपुत्रो
यदृच्छया गामटमानोऽनपेक्षः।
अलक्ष्यलिङ्गो निजलाभतुष्टो
वृतश्च बालैरवधूतवेषः।।
राजा परीक्षित ने शुकदेव जी का आदरपूर्वक स्वागत किया और उनसे मार्गदर्शन माँगा।
5. राजा परीक्षित का प्रश्न:
राजा परीक्षित ने शुकदेव जी से यह प्रश्न किया कि मृत्यु के समय मनुष्य को क्या करना चाहिए? कौन-सा कर्म, स्मरण और भक्ति उसे मोक्ष की ओर ले जा सकते हैं? यह प्रश्न मानव जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को स्पष्ट करने की दिशा में है।
ततश्च वः पृच्छ्यमिमं विपृच्छे
विश्रभ्य विप्रा इति कृत्यतायाम्।
सर्वात्मना म्रियमाणैश्च कृत्यं
शुद्धं च तत्रामृशताभियुक्ताः।।
सार और शिक्षा:
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भक्ति और वैराग्य का महत्व:
राजा परीक्षित का उदाहरण यह सिखाता है कि मृत्यु के भय को भगवान की भक्ति में परिवर्तित करना ही सच्चा वैराग्य है। गंगा तट पर उनकी प्रायोपवेश और भक्ति मृत्यु से परे मोक्ष का मार्ग दिखाती है। -
आत्मनिरीक्षण और पश्चात्ताप:
राजा परीक्षित की आत्मस्वीकृति और प्रायश्चित यह सिखाता है कि मनुष्य को अपने कर्मों का विश्लेषण करके सही दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए। -
संतों और गुरु का महत्व:
ऋषि-मुनियों और शुकदेव जी का संग राजा के आत्मिक विकास में सहायक हुआ। यह सिखाता है कि जीवन में सच्चे मार्गदर्शक का होना कितना आवश्यक है। -
मृत्यु के समय की तैयारी:
अध्याय यह स्पष्ट करता है कि मृत्यु के क्षणों में भगवान का स्मरण, कथा और सेवा मोक्ष प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है।
निष्कर्ष:
श्रीमद्भागवत महापुराण का यह अध्याय आत्मनिरीक्षण, धर्म, और भक्ति का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। राजा परीक्षित की कथा यह सिखाती है कि चाहे परिस्थिति कितनी भी कठिन हो, धर्म और सत्य का अनुसरण मनुष्य को सच्चे कल्याण की ओर ले जाता है। यह अध्याय जीवन को आध्यात्मिक ऊँचाइयों तक पहुँचाने का मार्गदर्शन करता है और मृत्यु को भक्ति के माध्यम से मोक्ष में परिवर्तित करने की प्रेरणा देता है।
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