भागवत महापुराण के स्कंध 1, अध्याय 17 का सार

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 भागवत महापुराण के स्कंध 1, अध्याय 17 में राजा परीक्षित द्वारा धर्म और अधर्म (कलियुग) के बीच संघर्ष का वर्णन किया गया है। यह अध्याय धर्म की रक्षा, अधर्म के प्रभाव, और कलियुग के लिए सीमाएँ निर्धारित करने पर केंद्रित है।

अध्याय 17 का सारांश:

1. धर्म और पृथ्वी की दुर्दशा:

  • राजा परीक्षित ने देखा कि धर्म (जो बैल के रूप में था) केवल एक पैर पर खड़ा है, और पृथ्वी (गाय) रो रही है।
  • धर्म के चार पैर (सत्य, शौच, दया, तप) में से तीन (शौच, दया, और तप) टूट चुके हैं और केवल सत्य बचा है।
  • कलियुग का प्रतीक एक शूद्र (अधर्मी) बैल और गाय को कष्ट पहुँचा रहा था।

2. राजा परीक्षित का धर्म और अधर्म पर संवाद:

  • राजा परीक्षित ने शूद्र को रोककर उसे डांटा और पूछा कि वह धर्म और पृथ्वी को कष्ट क्यों पहुँचा रहा है।
  • उन्होंने धर्म (बैल) और पृथ्वी (गाय) से उनके कष्ट का कारण पूछा। धर्म ने उत्तर दिया कि यह स्पष्ट नहीं है कि उनके कष्ट का कारण स्वयं कलियुग है, अथवा यह भगवान की लीला का हिस्सा है।

3. धर्म और पृथ्वी का संवाद:

  • धर्म ने कहा कि भगवान श्रीकृष्ण के पृथ्वी से प्रस्थान के बाद धर्म का ह्रास हुआ है और कलियुग का प्रभाव बढ़ रहा है।
  • पृथ्वी ने कहा कि भगवान श्रीकृष्ण के बिना वह स्वयं को असहाय महसूस कर रही है, क्योंकि भगवान ही धर्म, सत्य, और न्याय के संरक्षक थे।

4. राजा परीक्षित का धर्म की रक्षा का प्रयास:

  • राजा परीक्षित ने शूद्र (अधर्मी कलियुग के प्रतीक) को मारने के लिए अपनी तलवार निकाली।
  • शूद्र ने राजा के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी। उसने कहा कि वह भी भगवान की लीला का हिस्सा है और उसका अस्तित्व भी अपरिहार्य है।

5. कलियुग के लिए स्थान निर्धारण:

  • राजा परीक्षित ने कलियुग को मारने के बजाय उसे सीमित स्थानों में रहने का आदेश दिया। उन्होंने कलियुग को चार स्थान दिए, जहाँ वह निवास कर सकता है:

1. जुआ (Dyuta): जहाँ लोभ और छल व्याप्त हो।

2. मदिरा (Pāna): जहाँ नशा और असंयम हो।

3. स्त्री संग (Striya): जहाँ अविवेकपूर्ण कामवासना हो।

4. मांसभक्षण (Sūna): जहाँ हिंसा और क्रूरता हो।

 बाद में, कलियुग ने राजा से निवास के लिए और स्थान माँगा। तब राजा ने उसे सोने (स्वर्ण) में निवास की अनुमति दी, क्योंकि सोने से लोभ, असत्य, और अधर्म उत्पन्न होता है।

6. धर्म का पुनर्स्थापन:

  • राजा परीक्षित ने धर्म और पृथ्वी को आश्वासन दिया कि उनके राज्य में अधर्म को समाप्त किया जाएगा और धर्म की रक्षा की जाएगी।
  • उन्होंने धर्म (बैल) और पृथ्वी (गाय) को यह वचन दिया कि उनके राज्य में सत्य, दया, और तप को पुनः स्थापित किया जाएगा।

मुख्य श्लोक:

1. सत्यं शौचं दया क्षान्तिस्त्यागः सन्तोष आर्जवम्।

  • धर्म के चार पैर (सत्य, शौच, दया, और तप) का वर्णन।

2. सूत उवाच:

  • कलियुग के निवास स्थानों का वर्णन करते हुए कहा गया कि अधर्म के ये स्थान लोभ, असत्य, और कामवासना से भरे हुए हैं।

3. न कलिर्मलमेद्धार्यो भवतां चान्तिकेऽच्युत।

  • राजा परीक्षित ने कहा कि उनके राज्य में कलियुग को किसी भी प्रकार से अधर्म फैलाने की अनुमति नहीं दी जाएगी।

मुख्य संदेश:

1. धर्म की रक्षा का महत्व: राजा परीक्षित ने यह सिद्ध किया कि धर्म और सत्य की रक्षा करना एक राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य है।

2. कलियुग के प्रभाव का सीमांकन: कलियुग के अधर्म को नियंत्रित करने और उसे सीमित स्थानों में बांधने का संदेश दिया गया है।

3. सत्य की महिमा: सत्य धर्म का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ है, जो कलियुग में भी बचा रहता है।

4. धर्म के प्रति कर्तव्य: यह अध्याय सिखाता है कि मानव को धर्म, सत्य, और तप का पालन करते हुए अधर्म का विरोध करना चाहिए।

विशेषता:

  • यह अध्याय धर्म और अधर्म के संघर्ष, कलियुग के प्रभाव, और राजा परीक्षित के धर्म की स्थापना के प्रयासों को अद्भुत रूप से वर्णित करता है।



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