श्रीमद्भागवत महापुराण: स्कंध 1, अध्याय 1, श्लोक 2
श्लोक का पाठ:
धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां वेद्यं।
वास्तवम् अत्र वस्तु शिवदं ताप्त्रयोन्मूलनं।
श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैः ईश्वरः।
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिः तत्क्षणात्॥
श्लोक का अनुवाद:
"इस भागवत महापुराण में धर्म के सभी प्रकार के कपट (कैतव) को त्याग दिया गया है। यह निर्मल हृदय वाले सत्पुरुषों द्वारा ही समझा जा सकता है। इसमें वास्तविक वस्तु (परम सत्य) का वर्णन किया गया है, जो शिव (मंगलकारी) है और तीनों प्रकार के कष्टों (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक) को जड़ से समाप्त करने वाला है। इस ग्रंथ को महान मुनि वेदव्यास ने रचा है। इसके होते हुए अन्य शास्त्रों की क्या आवश्यकता है? जो इसे श्रद्धा से सुनते हैं, उनके हृदय में भगवान तुरंत (तत्क्षण) स्थापित हो जाते हैं।"
शब्द-शब्द विश्लेषण:
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धर्मः प्रोज्झितकैतवः:
- धर्मः: यहाँ धर्म का अर्थ "परम धर्म" या "शुद्ध भक्ति" है।
- प्रोज्झित: त्याग देना।
- कैतवः: कपट, छल, या सांसारिक कामनाओं से युक्त धर्म।
- भावार्थ: इस ग्रंथ में केवल शुद्ध भक्ति धर्म का वर्णन है। सांसारिक कामना या स्वार्थ से प्रेरित कोई धर्म (जैसे अर्थ, काम, मोक्ष पाने की लालसा) इसमें नहीं है।
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परमः:
- "परम" का अर्थ है "सर्वोच्च" या "अत्यंत पवित्र"।
- यह संकेत करता है कि श्रीमद्भागवत शुद्ध भक्ति को सर्वोपरि मानता है।
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निर्मत्सराणां सतां वेद्यं:
- निर्मत्सराणां: जो मत्सर (ईर्ष्या) से रहित हैं।
- सतां: सत्पुरुष, साधु।
- वेद्यं: जानने योग्य।
- भावार्थ: श्रीमद्भागवत केवल उन लोगों के लिए है जिनका हृदय ईर्ष्या, अहंकार और कपट से मुक्त है।
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वास्तवम् अत्र वस्तु:
- वास्तवम्: वास्तविक, सत्य।
- वस्तु: वस्तु या परम सत्य, यहाँ भगवान श्रीकृष्ण।
- भावार्थ: इस ग्रंथ में वास्तविक सत्य का वर्णन है, जो भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हैं।
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शिवदं ताप्त्रयोन्मूलनं:
- शिवदं: कल्याणकारी, मंगलदायक।
- ताप्त्रयोन्मूलनं: तीन प्रकार के तापों (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक) को जड़ से मिटाने वाला।
- भावार्थ: यह ग्रंथ भक्त को सभी प्रकार के भौतिक और आध्यात्मिक कष्टों से मुक्ति दिलाकर परम शांति प्रदान करता है।
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श्रीमद्भागवते महामुनिकृते:
- श्रीमद्भागवते: भगवान की महिमा से युक्त ग्रंथ।
- महामुनिकृते: महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित।
- भावार्थ: यह ग्रंथ महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित है, जो भगवान की भक्ति और महिमा का वर्णन करता है।
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किं वा परैः ईश्वरः:
- किं वा परैः: अन्य शास्त्रों की क्या आवश्यकता है?
- ईश्वरः: भगवान।
- भावार्थ: जब श्रीमद्भागवत जैसा ग्रंथ उपलब्ध है, तो अन्य शास्त्रों की आवश्यकता नहीं है। यह स्वयं भगवान का प्रतिरूप है।
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सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिः तत्क्षणात्:
- सद्यो: तुरंत।
- हृद्यवरुध्यते: हृदय में स्थिर हो जाना।
- कृतिभिः: पुण्यवान, भक्तिपूर्ण व्यक्ति।
- शुश्रूषुभिः: जो श्रद्धा से कथा सुनना चाहते हैं।
- तत्क्षणात्: उसी क्षण।
- भावार्थ: जो भी भक्त इसे श्रद्धा और भक्ति के साथ सुनते हैं, उनके हृदय में भगवान तुरंत विराजमान हो जाते हैं।
दार्शनिक विश्लेषण:
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धर्म का शुद्ध स्वरूप:
- यह श्लोक दर्शाता है कि श्रीमद्भागवत धर्म का "कपट-मुक्त" (निःस्वार्थ) स्वरूप प्रस्तुत करता है। इसमें धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष जैसे सांसारिक उद्देश्यों को गौण मानकर केवल शुद्ध भक्ति को महत्व दिया गया है।
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भक्ति मार्ग की प्रधानता:
- भागवत महापुराण में ज्ञान, कर्म, और योग से अधिक भक्ति मार्ग को प्रमुख माना गया है। यह मार्ग सीधा, सरल और भगवान के प्रति प्रेम पर आधारित है।
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निर्मलता की आवश्यकता:
- श्रीमद्भागवत को समझने और उसका लाभ पाने के लिए श्रोता का हृदय निर्मल (निर्मत्सर) होना आवश्यक है। यह कपट, ईर्ष्या, और स्वार्थ से रहित भक्ति की आवश्यकता पर बल देता है।
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भगवान का साक्षात्कार:
- "सद्यो हृद्यवरुध्यते" यह बताता है कि श्रीमद्भागवत का प्रभाव तत्काल है। भगवान का साक्षात्कार करने के लिए कोई विलंब नहीं होता, बशर्ते भक्त का हृदय शुद्ध हो और वह श्रद्धा से कथा सुने।
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तीनों तापों का नाश:
- आधिदैविक (दैवीय कष्ट), आधिभौतिक (भौतिक कष्ट), और आध्यात्मिक (आत्मा से जुड़े कष्ट) को यह ग्रंथ जड़ से समाप्त कर देता है। यह भगवद्भक्ति की शुद्ध शक्ति को प्रकट करता है।
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श्रीमद्भागवत की अद्वितीयता:
- यह ग्रंथ भगवान का प्रत्यक्ष स्वरूप माना जाता है। इसके होते हुए अन्य शास्त्रों की आवश्यकता नहीं रह जाती।
आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिकता:
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कपट और ईर्ष्या से मुक्त जीवन:
- यह श्लोक यह सिखाता है कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए ईर्ष्या, कपट, और स्वार्थ को त्यागना आवश्यक है।
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आध्यात्मिक शांति:
- तीनों प्रकार के कष्टों से मुक्ति का संदेश आज के तनावपूर्ण जीवन में अत्यधिक प्रासंगिक है। भागवत का श्रवण और मनन मानसिक शांति और आत्मिक संतोष प्रदान कर सकता है।
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भगवान से सीधा संबंध:
- "सद्यो हृद्यवरुध्यते" यह प्रेरणा देता है कि भगवान तक पहुँचने के लिए जटिल प्रक्रियाओं की आवश्यकता नहीं है। केवल श्रद्धा और प्रेम से भगवान को प्राप्त किया जा सकता है।
निष्कर्ष:
श्रीमद्भागवत महापुराण: स्कंध 1, अध्याय 1, श्लोक 2 भगवान श्रीकृष्ण की महिमा और भक्ति की सर्वोच्चता को प्रकट करता है। यह हमें सिखाता है कि शुद्ध भक्ति ही परम धर्म है, और इसके माध्यम से सभी कष्टों का समाधान प्राप्त किया जा सकता है।
यह श्लोक भक्ति मार्ग को अपनाने, कपट से मुक्त होने, और भगवान की शरणागति का महत्व सिखाता है। श्रीमद्भागवत न केवल एक ग्रंथ है, बल्कि भगवान के साथ सीधे जुड़ने का साधन है।
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