प्रमेय (Objects of Knowledge)

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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प्रमेय (Objects of Knowledge) न्याय दर्शन में उन विषयों को कहते हैं जिनके बारे में ज्ञान प्राप्त किया जाता है। यह न्याय दर्शन के सोलह तत्त्वों (षोडशपदार्थ) में दूसरा तत्त्व है। प्रमेय का तात्पर्य उन वस्तुओं या तत्वों से है, जिन्हें प्रमाणों (प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द) के माध्यम से जाना जा सकता है।


न्यायसूत्र के अनुसार, प्रमेय ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया में एक प्रमुख भूमिका निभाते हैं क्योंकि यह ज्ञान के विषय होते हैं।



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प्रमेय की परिभाषा


> "प्रमीयते इति प्रमेयः।"




अर्थ: जिसे प्रमाणों के माध्यम से समझा या जाना जाता है, उसे प्रमेय कहते हैं।



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न्याय दर्शन में प्रमेय के प्रकार


न्याय दर्शन में प्रमेय को 12 प्रकारों में विभाजित किया गया है। ये सभी सृष्टि और जीवन के प्रमुख तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं।


1. आत्मा (Soul):


आत्मा चेतन तत्त्व है, जो शरीर, मन, और इंद्रियों से अलग है।


यह शाश्वत, अदृश्य, और ज्ञान का अधिष्ठान है।


आत्मा के गुण: इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, ज्ञान, प्रयास।



2. शरीर (Body):


शरीर वह माध्यम है जिसके द्वारा आत्मा संसार के अनुभवों का अनुभव करती है।


शरीर पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) से बना होता है।



3. इंद्रियाँ (Senses):


ज्ञान प्राप्ति के उपकरण हैं।


पाँच इंद्रियाँ:


1. चक्षु (आँख) – रूप (रंग) देखने के लिए।



2. घ्राण (नाक) – गंध सूँघने के लिए।



3. रसना (जीभ) – स्वाद चखने के लिए।



4. त्वचा – स्पर्श अनुभव करने के लिए।



5. कर्ण (कान) – ध्वनि सुनने के लिए।





4. अर्थ (Objects of Senses):


इंद्रियों के विषय, जैसे:


रूप (रंग)


रस (स्वाद)


गंध (सुगंध/दुर्गंध)


स्पर्श (कोमलता/कठोरता)


शब्द (ध्वनि)




5. बुद्धि (Intellect):


यह ज्ञान प्राप्त करने और तर्क करने की क्षमता है।


बुद्धि सही और गलत का निर्णय करती है।



6. मन (Mind):


मन इंद्रियों और आत्मा के बीच का माध्यम है।


यह संकल्प (विचार), विकल्प (चयन), और स्मृति (याददाश्त) का कारण बनता है।



7. प्रवृत्ति (Activity):


यह आत्मा, मन, और इंद्रियों की सक्रियता है।


दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ हैं:


शुभ (पुण्य)


अशुभ (पाप)




8. दोष (Faults):


दोष वे तत्व हैं जो आत्मा को संसार के बंधन में डालते हैं।


तीन प्रमुख दोष:


1. राग (आसक्ति)



2. द्वेष (घृणा)



3. मोह (अज्ञान)





9. प्रेत्यभाव (Rebirth):


मृत्यु के बाद आत्मा का पुनर्जन्म लेना।


यह आत्मा के कर्म और दोषों पर निर्भर करता है।



10. फल (Result):


कर्मों के परिणाम, जैसे:


सुख (Pleasure)


दुख (Pain)



यह शुभ और अशुभ कर्मों का फल है।



11. दुख (Sorrow):


यह संसार में बंधन का कारण है।


न्याय दर्शन का मुख्य उद्देश्य दुख का निवारण करना है।



12. अपवर्ग (Liberation):


अपवर्ग का अर्थ है मोक्ष या मुक्ति।


यह आत्मा का शरीर, मन, और संसार के बंधनों से मुक्त होना है।


मोक्ष सत्य ज्ञान और तर्क के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।




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प्रमेय की व्याख्या


1. आत्मा और शरीर का संबंध:


आत्मा शरीर में रहती है, लेकिन शरीर से अलग है।


शरीर आत्मा का एक साधन है, जिसके द्वारा वह संसार का अनुभव करती है।




2. इंद्रियाँ और अर्थ का संबंध:


इंद्रियाँ बाहरी संसार से जुड़ी हैं और उनके माध्यम से आत्मा अनुभव प्राप्त करती है।


जैसे आँख रंग देखती है, कान ध्वनि सुनते हैं।




3. मन और बुद्धि का कार्य:


मन इंद्रियों से प्राप्त जानकारी को आत्मा तक पहुँचाता है, जबकि बुद्धि विचारों और कर्मों का निर्णय करती है।




4. प्रवृत्ति और दोष का प्रभाव:


शुभ प्रवृत्ति आत्मा को उन्नति की ओर ले जाती है, जबकि अशुभ प्रवृत्ति बंधन और दुख का कारण बनती है।


दोष आत्मा को पुनर्जन्म के चक्र में डालते हैं।




5. दुख और मोक्ष का उद्देश्य:


संसार दुखों से भरा है। न्याय दर्शन का अंतिम लक्ष्य आत्मा को इन दुखों से मुक्त करना और मोक्ष प्रदान करना है।






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न्याय दर्शन में प्रमेय का महत्व


1. संसार की व्याख्या:


प्रमेय के माध्यम से न्याय दर्शन सृष्टि, आत्मा, शरीर, और पुनर्जन्म की प्रक्रिया को समझाता है।




2. ज्ञान और तर्क का आधार:


प्रमेय तर्क और प्रमाण के माध्यम से सत्य की खोज का आधार बनते हैं।




3. मोक्ष का मार्ग:


प्रमेय आत्मा को संसार के बंधनों से मुक्त करने और मोक्ष प्राप्ति का मार्गदर्शन करते हैं।




4. भौतिक और आध्यात्मिक समन्वय:


प्रमेय भौतिक तत्वों (शरीर, इंद्रियाँ) और आध्यात्मिक तत्वों (आत्मा, बुद्धि) के बीच संतुलन स्थापित करते हैं।






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संदर्भ


1. न्यायसूत्र (गौतम मुनि):


प्रमेय के बारे में न्यायसूत्र में विस्तृत चर्चा की गई है।




2. तर्क संग्रह (अन्नंबट्ट):


न्याय दर्शन का सरल ग्रंथ, जिसमें प्रमेय को संक्षेप में समझाया गया है।




3. भारतीय दर्शन - डॉ. एस. राधाकृष्णन:


प्रमेय और न्याय दर्शन के सिद्धांतों का गहन विश्लेषण।




4. वैशेषिक सूत्र (कणाद मुनि):


प्रमेय और पदार्थों की विस्तृत व्याख्या।






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निष्कर्ष


प्रमेय न्याय दर्शन का एक महत्वपूर्ण तत्त्व है, जो सृष्टि, आत्मा, और मोक्ष के बीच के संबंध को स्पष्ट करता है। यह ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया को व्यवस्थित करता है और आत्मा को संसार के बंधन से मुक्त करने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है। प्रमेय का उद्देश्य तर्क और प्रमाण के माध्यम से सत्य को स्थापित करना और आत्मा को मोक्ष की ओर प्रेरित करना है।



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