रामचरितमानस की विशिष्ट चौपाइयों का विश्लेषण |
जब तक मन शुद्ध नहीं होगा, तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती है। मन अगर शुद्ध हो गया तो चरित्र भी शुद्ध हो जाएगा और अगर चरित्र शुद्ध होगा तो प्रभु तक अवश्य पहुंच जाओगे। बाल सुलभ सरलता एवं निश्छलता ही ईश्वर प्राप्ति की सच्ची योग्यता है।
अर्थात जो लोग निर्मल मन वाले हैं, जिनमें परमपिता परमेश्वर के प्रति प्रेम और श्रद्धा है वे उसके करीब हैं। जो श्रद्धाविहीन हैं और जो विषय-आसक्ति से भरे हुए हैं वे कभी भी परमात्मा के करीब नहीं आ सकते हैं और न ही सच्चे ज्ञान को प्राप्त कर शांति ही प्राप्त कर सकते हैं।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
जो अपनी कर्मेन्द्रियों के बाह्य घटकों को तो नियंत्रित करते हैं लेकिन मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हैं, वे निःसन्देह स्वयं को धोखा देते हैं और पाखण्डी कहलाते हैं।
एक कहानी याद आ रही है -
एक बार एक स्वामी जी भिक्षा माँगते हुए एक घर के सामने खड़े हुए और उन्होंने आवाज लगायी, भिक्षा दे दे माते।
घर से महिला बाहर आयी। उसनेउनकी झोली मे भिक्षा डाली और कहा, "महात्माजी, कोई उपदेश दीजिए!"
स्वामीजी बोले, "आज नहीं, कल दूँगा।" दूसरे दिन स्वामीजी ने पुनः उस घर के सामने आवाज दी भिक्षा दे दे माते , उस घर की स्त्री ने उस दिन खीर बनायीं थी, जिसमे बादाम पिस्ते भी डाले थे, वह खीर का कटोरा लेकर बाहर आयी। स्वामी जी ने अपना कमंडल आगे कर दिया।
वह स्त्री जब खीर डालने लगी, तो उसने देखा कि कमंडल में गोबर और कूड़ा भरा पड़ाहै। उसके हाथ ठिठक गए। वह बोली, "महाराज ! यह कमंडल तो गन्दा है।"
स्वामीजी बोले, "हाँ, गन्दा तो है, किन्तु खीर इसमें डाल दो।" स्त्री बोली, "नहीं महाराज, तब तो खीर ख़राब हो जायेगी । दीजिये यह कमंडल, में इसे शुद्ध कर लाती हूँ।"
स्वामीजी बोले, मतलब जब यह कमंडल साफ़ हो जायेगा, तभी खीर डालोगी न?" स्त्री ने कहा "जी महाराज !"
स्वामीजी बोले, "मेरा भी यही उपदेश है। मन में जब तक चिन्ताओ का कूड़ा-कचरा और बुरे संस्करो का गोबर भरा है, तब तक उपदेशामृत का कोई लाभ न होगा। यदि उपदेशामृत पान करना है, तो प्रथम अपने मन को शुद्ध करना चाहिए, कुसंस्कारो का त्याग करना चाहिए, तभी सच्चे सुख और आनन्द की प्राप्ति होगी।
लेकिन हमारी हालत तो —
घट में है सूझत नहीं लानत ऐसी जिन्द।
तुलसी जा संसार को भयो मोतियाबिंद।।
अर्थात् वो सर्वव्यापी परमात्मा और कहीं नहीं तेरे इसी घट (शरीर) में तो है पर तुझे दिखाई नहीं देता ।
ऐसी जिन्दगी को लानत है।इस संसार को मोतियाबिंद हो गया है। लेकिन इसका उपाय क्या हैं हर चीज की दवा है तो इस मोतियाबिंद का भी दावा तो होगी
ये मोतियाबिंद हो तो गया अब कटेगा कैसे ?
सतगुरु पूरे वैध है अंजन है सतसंग।
ग्यान सराई जब लगे तो कटे मोतियाबिंद।।
अर्थात् पूर्ण सतगुरु ही इसके वैध है और अंजन इसका सत्संग है। ये जब ग्यान रूपी सलाई से लगाया जाता है तो अग्यान रूपी मोतियाबिंद कट जाता है ।
कस्तूरी कुंडल बसे म्रग ढूँढे वन मांहि।
ऐसे घट घट राम है दुनिया देखे नांहि।।
इसका अर्थ बताना जरूरी नही पर कभी कभी कितना आश्चर्य होता है।
मलहि कि छूटे मल के धोये।
घ्रत पाव कोई वारि बिलोये।।
अर्थात् गन्दगी से गन्दगी नहीं छूटती और पानी को बिलोने(छाछ की तरह ) से घी नहीं निकलता । ये सच है कि माचिस में आग है पर उसको जलाना पङेगा। ये सच है कि दूध में घी है पर उसको निकालना पङेगा। ये सच है कि परमात्मा तुम्हारे अंदर है । पर एक विशेष युक्ति से तुम्हें उससे मिलना होगा ।
परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति वर्तमान की है, भविष्य की है ही नहीं, परमात्मप्राप्ति कभी भी होगी तो अभी भी हो सकती है। अगर अभी नहीं हो सकती तो कभी भी नहीं हो सकती।
एक बार एक सन्यासी घूमते-फिरते एक दुकान पर आये दुकान मे अनेक छोटे-बड़े डिब्बे थे, एक डिब्बे की ओर इशारा करते हुए संन्यासी ने दुकानदार से पूछा, इसमें क्या है ?
दूकानदार ने कहा- इसमे नमक है! संन्यासी ने फिर पूछा इसके पास वाले मे क्या है? दुकानदार ने कहा, इसमें हल्दी है! इसी प्रकार संन्यासी पूछते गए और दुकानदार बतलाता रहा, अंत मे पीछे रखे डिब्बे का नंबर आया, संन्यासी ने पूछा उस अंतिम डिब्बे में क्या है? दुकानदार बोला, उसमे राम-राम है!
संन्यासी ने पूछा, यह राम-राम किस वस्तु का नाम है! दुकानदार ने कहा- महात्मन । और डिब्बे में तो भिन्न-भिन्न वस्तुए है, पर यह डिब्बा खाली है, हम खाली को खाली नहीं कहकर राम-राम कहते है! संन्यासी की आखें खुली की खुली रह गई ! ओह, तो खाली में राम रहता है! भरे हुए में राम को स्थान कहा ? लोभ, लालच, ईर्षा, द्वेष और भली-बुरी बातों से जब दिल-दिमाग भरा रहेगा तो उसमे ईश्वर का वास कैसे होगा ? राम यानी ईश्वर तो खाली याने साफ-सुथरे मन में ही निवास करता है।
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