A detailed and vibrant digital painting of a traditional Indian female scholar from ancient times, sitting in a serene natural setting. She is dressed |
1. रूपा भवानी (1621 ई. - 1721 ई.)
रूपा भवानी, जिन्हें अलक्ष्येश्वरी के नाम से भी जाना जाता है, कश्मीर में माधव धारा के परिवार में जन्मीं। वह शैव भक्ति में रुचि रखती थीं। उनके वाख (कहावतें), जो कश्मीर की मूल भाषा में थीं, का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है। उनका कार्य मुख्यतः तंत्र, योग, अद्वैत के विचारों और प्रत्यक्ष अनुभवों पर आधारित है।
उनके कुछ विचार प्रस्तुत हैं:
- "शुद्ध संकल्प के साथ, साधक मूलाधार चक्र से कुंडलिनी शक्ति को जागृत करता है।
- यह शक्ति सर्पिल आकार में होती है और सफेद रंग की होती है।" (भवानी, 1997, पृ. 15)
- "आत्मा बीज की तरह बोई नहीं जा सकती। आत्मा जल, अग्नि या वायु नहीं है। आत्मा अनंत, सर्वव्यापी और ब्रह्म के साथ एक हो चुकी है।" (भवानी, 1997, पृ. 26-27)
2. प्राणमंजरी (18वीं शताब्दी)
- प्राणमंजरी ने तंत्रराज-तंत्र पर संस्कृत में एक व्याख्या "सुदर्शन" लिखी है। यह कार्य 'संस्कृत साहित्य में महिलाओं का योगदान' नामक श्रृंखला के तहत प्रकाशित हुआ है।
- उनके कार्यों में तंत्र के गूढ़ रहस्यों का वर्णन है, विशेषकर कुंडलिनी और मुद्रा के आध्यात्मिक अर्थ को लेकर।
3. सहजोज बाई (जन्म: 1725 ई.)
- सहजोज बाई का एकमात्र उपलब्ध ग्रंथ "सहज प्रकाश" है, जो हिंदी भाषा में लिखा गया है। वह योग और अद्वैत वेदांत से संबंधित विचारों पर काम करती थीं। उनके ग्रंथ के कुछ अनुवादित अंश:
- "यदि आप शरीर में रुचि रखते हैं, तो प्रत्येक भाग बदलता है। केवल आत्मा अमर है। सहजोज कहती हैं: यह शरीर में व्याप्त है और अविभाज्य है।" (बाई, 2001, पृ. 95)
अन्य विद्वानों का वर्णन:
4. दया बाई (18वीं शताब्दी)
दया बाई ने "दया-बोध" और "विनय-मालिका" नामक ग्रंथ लिखे। उनके कार्यों में योग और अद्वैत वेदांत के विचारों का संयोजन देखा जा सकता है। उनके ग्रंथ के कुछ अनुवादित अंश:
"श्रीचरण दास ने मुझसे कहा: 'दया, दिन-रात जप करो, मंत्र 'सोहम' पर ध्यान दो। यह ध्यान का सार है।'" (बाई, 2005, पृ. 45)
5. कामाक्षी (जन्म: ~1852 ई.)
ब्राह्मण परिवार में जन्मी कामाक्षी ने अपने पति के निधन के बाद दर्शन और संस्कृत का अध्ययन किया।
उन्होंने संस्कृत में "अद्वैतदीपिका" और "नीलकंठीय विषयमाला" जैसे ग्रंथ लिखे, जो नव्य न्याय शैली में उनके गहन प्रशिक्षण को दर्शाते हैं।
6. हती विद्यालंकार (18वीं - 19वीं शताब्दी)
बंगाल के कुलीन ब्राह्मण परिवार की हती विद्यालंकार ने विधवा होने के बाद संस्कृत शास्त्रों का अध्ययन किया और नव्य न्याय में विशेषता प्राप्त की। वह बनारस में शास्त्र पढ़ाती थीं।
7. श्यामसुंदरी (1822 ई. से पूर्व)
श्यामसुंदरी न्याय दर्शन में विशेषज्ञता रखती थीं। उन्हें राधाकांत देव के निबंध "स्त्री शिक्षा विधायक" में उल्लेखित किया गया है।
8. वेंकटमांबा (जन्म: 1730 ई.)
वेंकटमांबा ने "राजयोगामृतसार" और "अष्टांगयोगसारमू" जैसे ग्रंथ लिखे, जिनमें उन्होंने योग के आठ अंगों का वर्णन किया। उनका कार्य अद्वैत और योग दर्शन का मिश्रण है।
9. भैरवी ब्राह्मणी (जन्म: ~1822 ई.)
भैरवी ब्राह्मणी ने रामकृष्ण परमहंस को तंत्र की शिक्षाओं में दीक्षित किया। तंत्र के ग्रंथों में उनकी गहन विशेषज्ञता थी।
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