भागवत पुराण के षष्ठ स्कंध का सार

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 भागवत पुराण के षष्ठ स्कंध में मुख्य रूप से भगवान के भक्तों की रक्षा, पाप और पुण्य का फल, और भक्ति की महिमा का वर्णन किया गया है। इसमें अजामिल की कथा, वृत्रासुर की कथा, और इंद्र के पापों का विस्तारपूर्वक वर्णन है। इसमें कुल 19 अध्याय हैं। षष्ठ स्कंध का अध्यायवार सार इस प्रकार है:



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अध्याय 1-3: अजामिल की कथा


1. अध्याय 1:


अजामिल का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ, लेकिन वह कुमार्ग पर चल पड़ा।


उसने चोरी, अधर्म और अन्य पाप कर्म किए।


अंत समय में उसने अपने पुत्र "नारायण" का नाम पुकारा, जिससे यमदूत और विष्णुदूतों के बीच संवाद हुआ।




2. अध्याय 2:


विष्णुदूतों ने यमदूतों को समझाया कि अजामिल ने "नारायण" का नाम लिया है।


इस पवित्र नाम के प्रभाव से उसके सभी पाप नष्ट हो गए।


यह अध्याय भगवान के नाम की महिमा को दर्शाता है।




3. अध्याय 3:


अजामिल ने अपने जीवन को बदलकर भगवान की भक्ति में लगा दिया और अंततः मोक्ष प्राप्त किया।


यह कथा बताती है कि भगवान का नाम मात्र से जीव का उद्धार हो सकता है।






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अध्याय 4-6: दक्ष यज्ञ का पुनः वर्णन


4. अध्याय 4:


दक्ष प्रजापति के यज्ञ का पुनः वर्णन किया गया है।


सती के आत्मत्याग, भगवान शिव का क्रोध, और दक्ष के विनाश का विवरण है।




5. अध्याय 5:


भगवान शिव ने यज्ञ को शांति और समर्पण के साथ पुनः संपन्न कराया।


दक्ष को उनके अपराध के लिए क्षमा दी गई।




6. अध्याय 6:


इस अध्याय में दक्ष को नया जीवन मिलता है।


यज्ञ पूरा होता है, और भगवान विष्णु की महिमा गाई जाती है।






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अध्याय 7-12: वृत्रासुर की कथा


7. अध्याय 7:


इंद्र द्वारा ब्रह्महत्या का दोष और उससे मुक्त होने की कथा।


दधीचि ऋषि ने देवताओं की रक्षा के लिए अपनी अस्थियाँ दान कीं।




8. अध्याय 8:


दधीचि की अस्थियों से वज्र बनाया गया।


देवताओं और असुरों के बीच युद्ध हुआ।




9. अध्याय 9-11:


वृत्रासुर का जन्म और उसके भक्त स्वरूप का वर्णन।


वह भक्त होते हुए भी राक्षस कुल में पैदा हुआ।


वृत्रासुर ने इंद्र से युद्ध करते हुए भगवान की भक्ति का आदर्श प्रस्तुत किया।




10. अध्याय 12:


वृत्रासुर ने भगवान के चरणों में समर्पण किया।


युद्ध के दौरान भगवान का स्मरण करते हुए मोक्ष प्राप्त किया।






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अध्याय 13-16: इंद्र के पाप और प्रायश्चित्त


11. अध्याय 13:


इंद्र ने ब्रह्महत्या का दोष अपने ऊपर लिया।


यह दोष उनकी शक्ति को क्षीण करने लगा।




12. अध्याय 14:


इंद्र ने विभिन्न यज्ञों और तपस्या के माध्यम से ब्रह्महत्या के दोष से मुक्ति पाई।




13. अध्याय 15:


प्रजापति ने संसार में पुण्य और पाप के नियमों का वर्णन किया।


पापों के निवारण के लिए भक्ति का महत्व बताया।




14. अध्याय 16:


भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण से सभी पापों से मुक्ति पाई जा सकती है।






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अध्याय 17-19: भगवद्भक्ति और पुण्य के फल


15. अध्याय 17:


पाप और पुण्य के भिन्न-भिन्न परिणामों का वर्णन।


यमलोक और भगवान की शरण में जाने वाले जीवों का अंतर बताया गया।




16. अध्याय 18:


भक्ति मार्ग से भगवान की कृपा प्राप्त करने का उपदेश।


यह भी बताया गया कि भक्ति से अन्य सभी कर्मफल निष्फल हो जाते हैं।




17. अध्याय 19:


भगवान विष्णु के नाम, गुण, और उनकी शरण में जाने के महत्व को समझाया गया।


यह अध्याय भक्ति को जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य बताता है।






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षष्ठ स्कंध की प्रमुख शिक्षाएँ


1. भगवान का नाम महामंत्र: अजामिल की कथा से यह स्पष्ट होता है कि भगवान का नाम जपने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।



2. भक्ति की महिमा: वृत्रासुर जैसे असुर का भी भगवान में विश्वास और भक्ति से उद्धार हुआ।



3. प्रायश्चित्त का महत्व: पापों का प्रायश्चित्त भक्ति और भगवान की शरण में जाने से संभव है।



4. यमदूत और विष्णुदूत का संवाद: यह दिखाता है कि भगवान के भक्तों की रक्षा स्वयं विष्णु करते हैं।




षष्ठ स्कंध भक्ति, भगवान के नाम की शक्ति, और पाप से मुक्ति के उपायों को गहराई से समझाता है।



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