श्रीमद्भागवत महापुराण में महर्षि नारद के जन्म की कथा का वर्णन पहले स्कंध के छठे अध्याय में मिलता है। नारद जी ने स्वयं अपने पूर्वजन्म की कथा महर्षि वेदव्यास को सुनाई है। इस कथा के अनुसार, नारद जी पूर्वजन्म में एक दासी पुत्र थे और उनकी माता एक साधारण स्त्री थीं, जो ब्राह्मणों की सेवा करती थीं। बालक नारद को बचपन से ही सत्संग का लाभ मिला और उन्होंने महान ऋषियों के साथ रहकर भक्ति मार्ग पर अग्रसर होने का अवसर प्राप्त किया।
श्रीमद्भागवत महापुराण 1.6.27-29 में उल्लेख है:
> 1.6.27
तत्रान्वहं कृष्णकथाः प्रगायतां
अनुग्रहेणाश्रृणवं मनोहराः।
ताः श्रद्धया मेऽनुपदं विशृण्वतः
प्रियश्रवस्यङ्ग ममाभवद्रुचिः॥
(अर्थ: वहां उन ऋषियों के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की कथाओं का अनुग्रहपूर्वक निरंतर गायन हो रहा था। उन मनोहर कथाओं को श्रद्धा के साथ बार-बार सुनने पर मेरे हृदय में उनकी रुचि उत्पन्न हो गई।)
> 1.6.28
तस्यैवं मेऽनुरक्तस्य
प्रीयमाणस्य नारदा।
प्रसन्नाः साधवो धीराः
कृपया दीनवत्सलाः॥
(अर्थ: जब मैं इस प्रकार श्रद्धा और प्रेमपूर्वक ऋषियों की सेवा करता हुआ, उनके द्वारा भगवान की कथा सुन रहा था, तो वे साधुजन मुझ पर प्रसन्न हो गए और कृपा करने लगे।)
> 1.6.29
एकदा निर्वृतं दीर्घं
श्रोत्र्यं श्रवणमङ्गलम्।
तन्मे धर्म्यं कथां साक्षाद्
भक्ति उत्तमश्लोके॥
(अर्थ: एक बार ऋषियों ने मेरे लिए भगवत कथा का विशेष रूप से उपदेश किया, जिससे मेरे मन में भगवान के प्रति उत्कृष्ट भक्ति उत्पन्न हुई।)
कथा का सारांश:
नारद जी पूर्वजन्म में एक दासी पुत्र थे। उनकी माता ब्राह्मणों की सेवा करती थीं। बालक नारद ने ऋषियों की संगति में भगवत कथा सुनी और उनके हृदय में भक्ति जागृत हुई। ऋषियों की कृपा से उन्हें भगवान के दिव्य गुणों का अनुभव हुआ। आगे चलकर नारद जी ने तपस्या की और अपने अगले जन्म में महर्षि नारद के रूप में जन्म लिया, जो भक्तों के प्रिय और भगवान के संदेशवाहक माने जाते हैं।
यह कथा यह बताती है कि संगति और भक्ति का प्रभाव कितना महत्वपूर्ण है।
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