भगवान के अवतारों का वर्णन

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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भगवान के अवतारों का वर्णन, भागवत प्रथम स्कन्ध


भागवत-कथा

प्रथम स्कन्ध

भगवान के अवतारों का वर्णन

 

मंगलाचरण

 

जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः  स्व॒राट्‌

तेने ब्रह्म हृदा  ये आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः ।

तेजोवारिंमृदां  यथा  विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा

   धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्य परं धीमहि॥१॥

 

धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां

वेद्यं वास्तवमत्र  वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम्।

श्रीमद्भागवते  महामुनिकृते   किं  वा  परैरीश्वरः

       सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात्‌॥२॥

 

निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम्‌ ।

        पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः॥३॥

 

  एक बार शौनकादि ऋषियों ने भगवत्प्राप्ति की इच्छा से पुण्यक्षेत्र नैमिषारण्य में एक महायज्ञ का अनुष्ठान किया। एक दिन उन्होंने सूतजी का विधिवत्‌ पूजनकर उनसे पूछा - सूतजी ! आप तो सब धर्मों के ज्ञाता हैं, कृपाकर यह बतलाइये कि जीवों के परम कल्याण का सहज साधन कौन-सा है ? भगवान श्रीकृष्ण किस इच्छा से इस धराधाम पर अवतीर्ण हुए थे ? योगेश्वर श्रीकृष्ण के नित्यधाम को सिधार जाने पर धर्म ने किसकी शरण ली है ? भगवान का अवतार जीवों के परम कल्याण के लिए ही होता है । आप उनकी मंगलमयी अवतार-कथाओं का वर्णन कीजिए ।  इन प्रश्नों से रोमहर्षण के पुत्र सूतजी को बड़ा ही आनंद हुआ। वे बोले “ऋषियों - मनुष्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है, जिससे भगवान श्रीकृष्ण के प्रति हृदय में भक्ति अंकुरित हो । भक्ति के अंकुरित होते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्य प्रकट हो जाता है। श्रद्धालु मुनिजन भागवत्‌-श्रवण से प्राप्त ज्ञान-वैराग्ययुक्त भक्ति से अपने हृदय में उस परमतत्व परमात्मा का साक्षात्‌ अनुभव करते हैं। इसलिए एकाग्रमन से भक्तवत्सल भगवान का ही नित्य निरंतर श्रवण, कीर्तन, ध्यान और आराधन करना चाहिए । पवित्र तीर्थों का सेवन करने से महत्सेवा, श्रवण-इच्छा, श्रद्धा और भगवत्कथा में रुचि उत्पन्न होती है। श्रीकृष्ण के विशद यश का श्रवण और कीर्तन दोनों पवित्र करने वाले हैं । जब श्रीमद्भागवत अथवा भगवदूभक्ति के सेवन से अशुभ वासनाएं नष्ट हो जाती हैं, तब भगवान के प्रति स्थायी प्रेम की प्राप्ति होती है। भगवान की भक्ति से जब संसार की समस्त आसक्तियां नष्ट हो जाती हैं, तब हृदय आनंद से भर जाता है और भगवान के तत्व का स्वतः अनुभव होने लगता है।

 प्रकृति के सत्व, रज और तम ये तीन गुण हैं। अद्वैत परमात्मा ने ही इस संसार की स्थिति, उत्पत्ति और विनाश के तीनों गुणों को स्वीकार कर विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र ये तीन नाम ग्रहण किये हैं। तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सत्वगुण श्रेष्ठ है । प्राचीन युग में महात्मा लोग अपने कल्याण के लिए  विशुद्ध सत्वमय भगवान विष्णु की आराधना किया करते थे। वेदों का तात्पर्य एवं योग-यज्ञादि समस्त कार्यों के ध्येय श्रीकृष्ण ही हैं। ज्ञान से ब्रद्मरूप श्रीकृष्ण की ही प्राप्ति होती है । तपस्या श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए ही की जाती है। श्रीकृष्ण के लिए समस्त धर्मों का अनुष्ठान होता है और सभी गतियां श्रीकृष्ण में ही अंततः विलीन हो जाती हैं । यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण प्रकृति और उसके गुणों से अतीत हैं, फिर भी अपनी गुणमयी माया से उन्होंने ही संसार की रचना की है। ये सत्व, रज और तम तीनों गुण उसी माया के विलास हैं। आत्मरूप भगवान तो एक ही हैं पर प्राणियों की भावना से अनेक-जैसे लगते हैं ।

   सृष्टि के आदि में भगवान ने लोकों के निर्माण की इच्छा की और पुरुषरूप ग्रहण किया। उसमें दस इंद्रियां, एक मन और पांच महाभूत ये सोलह कलाएं थीं। उन्होंने कारण-जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विकास किया, तब उनके नाभि-सरोवर से एक कमल प्रकट हुआ और उस- कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्मा उत्पन्न हुए । भगवान के उस विराट रूप के अंग-प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गई है और वही भगवान का विशुद्ध सत्वमय स्वरूप है। प्रभु ने पहले कौमारसर्ग में सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार इन चार ऋषियों (बाह्मणों) के रूप में अवतार लेकर अत्यन्त कठिन अखण्ड ब्रद्मचर्ये-व्रत का पालन किया। दूसरी बार रसातल में धसी हुईं पृथ्वी को निकाल लाने के विचार से शूकर रूप ग्रहण किया। नारद के रूप में उन्होंने तीसरा अवतार लेकर मुक्तिदायक कर्मयोग का उपदेश किया और नर-नारायण के रूप में चौथा अवतार लिया। पाँचवे अवतार में वे सिद्धों के स्वामी कपिल के रूप में प्रकट हुए और तत्वों का निर्णय करने वाले सांख्यशास्त्र का उपदेश किया। अनसूया के वर मांगने पर छठे अवतार में वे अत्रि के संतान दत्तात्रेय हुए। सातवीं बार रुचि प्रजापति की आकूती नाम की पत्नी से यज्ञ के रूप में उन्होंने अवतार ग्रहण किया। राजा नाभि की पत्नी मेरू देवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में भगवान ने आठवां अवतार लिया। नवीं बार वे राजा पृथु के रूप में अवतीर्ण हुए । इस अवतार में उन्होंने पृथ्वी से समस्त औषधियों का दोहन किया। मत्स्य के रूप में उनका दसवां अवतार हुआ। ग्यारहवें अवतार में कच्छप-रूप में भगवान ने मंदराचल को अपनी पीठ पर धारण किया। बारहवीं बार धन्वन्तरि के रूप में अमृत-कलश लेकर समुद्र से वे प्रकट हुए और तेरहवीं बार मोहिनी-रूप धारण कर दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया । चौदहवें अवतार में उन्होंने नरसिंहरूप धारण कर दैत्यराज हिरण्यकशिपु की छाती अपने नखों से फाड़ डाली । पंद्रहबीं बार वामनरूप धारण कर बलि से केवल तीन पग पृथ्वी मांगी। सोलहवें अवतार में परशुराम और सत्रहवें में वे श्रीव्यास के रूप में अवतीर्ण हुए। अट्ठारहवें बार रामावतार ग्रहण कर सेतु-बंधन आदि वीरतापूर्ण लीलाएं कीं । उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होंने यदुवंश में बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा। कलियुग में भगवान विष्णुयश नाम के ब्राह्मण के घर कल्किरूप में अवतीर्ण होंगे ।

 इस स्थूल रूप से परे भगवान का एक सूक्ष्म अव्यक्तरूप भी है। न तो स्थूल की तरह यह आकारादि गुणों वाला है और न देखने-सुनने में ही आ सकता है। आत्मा का प्रवेश होने से यही जीव कहलाता है और इसी का बार-बार जन्म-मरण होता है। जिस समय परमेश्वर की माया निवृत्त हो जाती है, जीव परमानंदमय हो जाता है । वास्तव में जिनके जन्म-कर्म नहीं हैं उन हृद्येश्वर भगवान के जन्म और कर्मों का वर्णन तत्वज्ञानी जन इसी प्रकार करते हैं। वे लीला से ही इस संसार का सृजन, पालन और संहार करते हैं किंतु उनमें आसक्त नहीं होते । भगवान च्रक्रपाणि की शक्ति और पराक्रम अनंत हैं। वे सारे जगत्‌ के स्रष्टा होने पर भी उससे सर्वथा परे हैं।

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