सांख्य दर्शन के मुख्य वाद

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 सांख्य दर्शन भारतीय दर्शन की एक प्राचीन और तर्कपूर्ण प्रणाली है, जिसमें सृष्टि, जीवन और मोक्ष से जुड़े प्रश्नों का विश्लेषण किया गया है। यह दर्शन मुख्यतः ऋषि कपिल द्वारा प्रतिपादित माना जाता है। सांख्य दर्शन के अंतर्गत कई सिद्धांतों और वादों को प्रस्तुत किया गया है, जो इसके गहन तात्त्विक दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हैं। ये वाद सांख्य दर्शन के मूलभूत सिद्धांतों को समझने में सहायक हैं।



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सांख्य दर्शन के मुख्य वाद


1. सत्कार्यवाद (The Theory of Pre-existence of Effect):


सत्कार्यवाद का अर्थ है कि कार्य (Effect) पहले से ही अपने कारण (Cause) में विद्यमान होता है।


सांख्य दर्शन के अनुसार, सृष्टि का निर्माण प्रकृति के गुणों (सत्त्व, रजस्, तमस्) के असंतुलन से होता है। यह असंतुलन कारण के भीतर पहले से मौजूद रहता है और समय आने पर कार्य के रूप में प्रकट होता है।


उदाहरण: वृक्ष का बीज में पहले से ही अस्तित्व होता है। बीज (कारण) में वृक्ष (कार्य) पहले से विद्यमान है और अनुकूल परिस्थितियों में वह प्रकट होता है।






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2. परिणामवाद (The Theory of Evolution):


परिणामवाद के अनुसार, प्रकृति (प्रकृतिप्रधान) से ही समस्त सृष्टि का विकास (Evolution) होता है।


प्रकृति अनादि और अव्यक्त (अप्रकट) है, लेकिन जब उसमें त्रिगुणों (सत्त्व, रजस्, तमस्) का असंतुलन उत्पन्न होता है, तो सृष्टि की प्रक्रिया शुरू होती है।


परिणामवाद इस सिद्धांत पर आधारित है कि प्रकृति में सभी तत्व पहले से मौजूद हैं, और वे अपने विभिन्न रूपों में परिणत (Transform) होते रहते हैं।






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3. द्वैतवाद (Dualism of Purusha and Prakriti):


सांख्य दर्शन द्वैतवादी है। यह पुरुष (आत्मा) और प्रकृति (जड़ तत्व) को सृष्टि के दो मूलभूत तत्त्व मानता है।


पुरुष: यह चेतन, स्थायी, और निष्क्रिय तत्त्व है। यह साक्षी मात्र है और स्वयं कोई क्रिया नहीं करता।


प्रकृति: यह जड़, अस्थायी और क्रियाशील तत्त्व है। यह समस्त सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है।


पुरुष और प्रकृति का संयोग (Interaction) ही सृष्टि का कारण है।






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4. त्रिगुणवाद (Theory of Three Gunas):


प्रकृति के तीन गुण - सत्त्व, रजस्, और तमस् - सृष्टि के हर पहलू को प्रभावित करते हैं।


सत्त्व: शांति, प्रकाश और ज्ञान का प्रतीक।


रजस्: ऊर्जा, क्रियाशीलता और बेचैनी का प्रतीक।


तमस्: जड़ता, अज्ञान और आलस्य का प्रतीक।



त्रिगुणों के संतुलन या असंतुलन से ही सृष्टि का निर्माण, विकास और विनाश होता है।






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5. असत्कार्यवाद का खंडन:


सांख्य दर्शन असत्कार्यवाद (Effect does not pre-exist in the Cause) को खारिज करता है। असत्कार्यवाद का मानना है कि कार्य (Effect) अपने कारण (Cause) में पूर्व-स्थित नहीं होता।


सांख्य दर्शन यह तर्क देता है कि यदि कार्य कारण में पहले से न हो, तो उसका उत्पन्न होना असंभव है। इसलिए कार्य और कारण का संबंध अनिवार्य है।






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6. कार्य-कारण सिद्धांत (Theory of Cause and Effect):


सांख्य दर्शन में कार्य और कारण का गहरा संबंध है। कारण के बिना कार्य का अस्तित्व असंभव है।


कार्य (Effect) अपने कारण (Cause) के भीतर पहले से विद्यमान होता है और अनुकूल परिस्थितियों में प्रकट होता है।






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7. पुरुष और प्रकृति का संयोग (Union of Purusha and Prakriti):


सृष्टि की उत्पत्ति पुरुष और प्रकृति के संयोग से होती है।


पुरुष चेतन और निष्क्रिय है, जबकि प्रकृति जड़ और क्रियाशील है। प्रकृति में उत्पन्न परिवर्तन पुरुष की उपस्थिति मात्र से होता है, क्योंकि पुरुष स्वयं क्रिया नहीं करता।


उदाहरण: चुम्बक और लोहे के टुकड़े की तरह, चुम्बक (पुरुष) क्रियाहीन है, लेकिन उसकी उपस्थिति लोहे के टुकड़े (प्रकृति) को आकर्षित करती है।






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8. आसक्ति और मोक्ष का सिद्धांत (Bondage and Liberation):


आसक्ति: पुरुष और प्रकृति के संयोग से जब पुरुष प्रकृति के गुणों और कार्यों से प्रभावित होता है, तो उसे आसक्ति (Bondage) होती है। यह अज्ञान (अविद्या) के कारण होता है।


मोक्ष: जब पुरुष को अपनी शुद्ध चेतना का ज्ञान होता है और वह प्रकृति के प्रभावों से स्वयं को अलग कर लेता है, तो वह मोक्ष प्राप्त करता है।






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9. सृष्टि का अनादित्व (Eternal Nature of Creation):


सांख्य दर्शन के अनुसार, सृष्टि और इसके तत्त्व अनादि और अनंत हैं। प्रकृति और पुरुष दोनों ही अविनाशी हैं। सृष्टि एक चक्रीय प्रक्रिया है, जो सृजन और विनाश के चक्र में चलती रहती है।






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10. अवस्थाओं का सिद्धांत (States of Manifestation):




प्रकृति में वस्तुएँ तीन अवस्थाओं में होती हैं:


अव्यक्त: जो अप्रकट है और सृष्टि से पहले अस्तित्व में था।


व्यक्त: जो प्रकट है और सृष्टि में दिखाई देता है।


लीन: जो सृष्टि के विनाश के बाद पुनः प्रकृति में लीन हो जाता है।





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सांख्य दर्शन के वादों का व्यावहारिक महत्व


1. तर्क और विज्ञान पर आधारित दृष्टिकोण:


सांख्य दर्शन सृष्टि को तर्क और कारण-कार्य संबंध के माध्यम से समझाने का प्रयास करता है। इसका दृष्टिकोण वैज्ञानिक है, क्योंकि यह किसी ईश्वर को सृष्टि का कारण नहीं मानता।




2. आध्यात्मिक उत्थान:


पुरुष और प्रकृति के भेद को समझकर व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर सकता है और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।




3. योग दर्शन का आधार:


सांख्य दर्शन के सिद्धांत पतंजलि के योग दर्शन का सैद्धांतिक आधार हैं। योग में सांख्य के तत्त्वों को व्यावहारिक रूप दिया गया है।




4. आध्यात्मिक और भौतिक जीवन का समन्वय:


यह दर्शन बताता है कि जीवन में संतुलन (त्रिगुणों का संतुलन) आवश्यक है और आत्मा (पुरुष) तथा भौतिक शरीर (प्रकृति) के संबंध को समझना महत्वपूर्ण है।






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निष्कर्ष


सांख्य दर्शन के वाद सृष्टि, जीवन और मोक्ष को तर्कसंगत और गहन दृष्टिकोण से समझाते हैं। यह दर्शन प्रकृति और पुरुष के द्वैत सिद्धांत पर आधारित है और सृष्टि की प्रक्रिया को त्रिगुणों और कार्य-कारण के माध्यम से स्पष्ट करता है। इसके सिद्धांत जैसे सत्कार्यवाद, परिणामवाद, और पुरुष-प्रकृति का संयोग आज भी दर्शन, विज्ञान और अध्यात्म के क्षेत्र में प्रासंगिक हैं।



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