कालिया दमन | कालिय मर्दन का आध्यात्मिक भाव

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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कालिय मर्दन भगवान श्रीकृष्ण और नाग पत्नियां
कालिय मर्दन भगवान श्रीकृष्ण और नाग पत्नियां 


 कालिय नाग कद्रू का पुत्र और पन्नग जाति का नागराज था, वह पहले रमण द्वीप में निवास करता था, किंतु पक्षीराज गरुड़ से शत्रुता हो जाने के कारण वह यमुना नदी में कुण्ड में आकर रहने लगा था। यमुनाजी का यह कुण्ड गरुड़ के लिए अगम्य था, क्योंकि इसी स्थान पर एक दिन क्षुधातुर गरुड़ ने तपस्वी सौभरि के मना करने पर भी अपने अभीष्ट मत्स्य को बलपूर्वक पकड़कर खा डाला था, इसीलिए महर्षि सौभरि ने गरुड़ को शाप दिया था कि- "यदि गरुड़ फिर कभी इस कुण्ड में घुसकर मछलियों को खायेंगे तो उसी क्षण प्राणों से हाथ धो बैठेंगे" कालिय नाग यह बात जानता था, इसीलिए वह यमुना के उक्त कुण्ड में रहने आ गया था।

 कालिया नाग यमुना में सुरक्षित था ,कृष्ण जी के गेंद यमुना में गिरती है तब वो उसका वध करते हैं, दिखने में यह एक नाग वध दीखता है है परन्तु यह भी आध्यात्म है। 

 पुराणों में नाग कामनाओं का प्रतीक हैं ,कामनाओं में विष होता है, कामना मन में रहती है, कालिया सौ फन वाला था - अर्थात मन में सौ तरह की इच्छाएं उतपन्न होती रहती हैं, यह मन आ = यमुना मन में कामना, कामना में विष, कामनाएं विषयों की होती हैं विषयों को आध्यात्म में विष भी कहा जाता है। 

 हमारा मन कहता रहता है यह ले आ ,वह ले आ, का ले आ ,क्या ले आ, सौ फन अर्थात सौ तरह की इच्छाएँ, तो कालिया नाग मन में इच्छाओं के उठने का प्रतीक है जिससे बालक कृष्ण अर्थात नए नए ईश्वरीय ज्ञान ने युद्ध किया और मारने ही वाले थे पर ज्ञान ने कहा सभी इच्छाओं को मारना ठीक नहीं , इच्छाएं मिटा दो जीवन ही नष्ट होने लगता है अतः नाग को छोड़ दिया। उसके फनों पर अपने पदचिह्न लगा दिए और कहा वापस जा मेरे पदचिन्ह देखकर गरुण नहीं खायेगा तुझे, गरुण कृष्ण भक्त हैं भक्ति कामनाओं को खाती है ,कामना नाग हैं ,गरुण नाग खाते हैं। 

 तो कालिया नाग दमन इच्छाओं का दमन है ,अंत में नाग को जीवित छोड़ा उसपर अपने पग छोड़े अर्थात कृष्ण भक्ति की इच्छा छोड़ी। 

 इच्छाओं ने मन को विषैला कर रखा था - कदम्ब का वृक्ष विष शामक होता है अतः कथा में कदम्ब वृक्ष भी जोड़ा। यमुना में कूदने से पहले कदम्ब पर चढ़े थे कृष्ण, क्यों चढ़े सीधे भी घुस सकते थे पर कदम्ब के गुण से परिचित करवाना था अतः कदम्ब को भी कथा में डाला। 

 अर्थात ज्ञान (कृष्ण ) इच्छाओं का दमन करते हैं उनसे लड़कर जीत जाते हैं और मन को भक्ति में लगा देते हैं। होता भी है जब तक अज्ञान है मानव इच्छाओं के पीछे भागता रहता है ज्ञान आता है मन भगवान में ही लगाता है। 

 कालिया नाग का फन तो मर्यादित था,किन्तु हमारे तो हजारों हैं, हमारे संकल्प विकल्प फन ही हैं, भगवान से प्रार्थना करें "हे प्रभु! मेरे मन के कालिया नाग का दमन करो ,उस पर अपने चरण पधराओ।"

 कालिया नाग के मुख मे विष था किन्तु हमारी एक एक इन्द्रिय मेँ और मन मे भी विष भरा पड़ा है, राग द्वेष, विषय विकार आदि ही विष हैं, जब तक इन्द्रियाँ वासना रुप विष से भरी है तब तक भक्ति नहीं हो सकती, इन्द्रियों में भरे विष को नष्ट करने के लिए सत्संग करना पड़ेगा।

 कालिया नाग इन्द्रियाध्यास है, यमुना - (भक्ति) में इन्द्रियाध्यास आने पर शुद्ध भक्ति नही़ हो सकती

"भोग और भक्ति आपस मे शत्रु है" भक्ति के बहाने इन्द्रियो को भोग की तरफ ले जाने वाला मन ही कालिया नाग है, इन्द्रियों के साथ मन से भी विषयों का त्याग करने से भक्ति सिद्ध होती है, भक्ति में विलासिता - (विषधर) घुस जाने पर भक्ति नष्ट हो जाती है।

"भक्तिमार्ग के आचार्य बल्लभाचार्य , रामानुजाचार्य , चैतन्य महाप्रभु आदि सभी परिपूर्ण वैरागी थे, बिना पूर्ण वैराग्य के भक्ति नही़ हो सकती, भक्ति ज्ञान वैराग्य की जननी है ।" 

 इन्द्रियों से विष को निचोड़कर सत्संग मण्डली मे भेजना है, कालीय नाग को प्रभु ने रमणक द्वीप भेजा, अतः विष रहित इन्द्रियों को रमणक द्वीप रुपी सत्संग में भेजना है, वहाँ उन्हे भक्ति रस प्राप्त होगा, इन्द्रियों को भोगरस नहीं भक्ति रस से पोषित करना होगा भक्ति द्वारा इन्द्रियों को सत्संग में रमण कराना होगा,भक्तिमार्ग पर चलकर इन्द्रिय पुष्प को प्रभु के चरणों में अर्पित करना है।

 भोग से इन्द्रियो का क्षय होता है,भक्ति से पोषण, जो आनन्द योगी समाधि में पाते हैं ,वही आनन्द वैष्णवों को कृष्ण कीर्तन मे मिलता है , कीर्तन करते समय दृष्टि प्रभु के चरणों मे रहें ,वाणी कीर्तन करेगी , मन स्मरण करेगा , आँखे दर्शन करेंगी तभी जप सफल होगा।

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