परिणामवाद: भारतीय दर्शन का प्रमुख सिद्धांत

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 परिणामवाद: भारतीय दर्शन का प्रमुख सिद्धांत


परिणामवाद (Parinamavada) भारतीय दर्शन का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, विशेषतः सांख्य दर्शन और वेदांत दर्शन में इसका केंद्रीय स्थान है। यह सिद्धांत कहता है कि कारण अपने स्वरूप को बदलकर कार्य में परिणत (Transform) होता है। परिणाम का अर्थ है परिवर्तन या रूपांतरण, और परिणामवाद इसी परिवर्तन को स्पष्ट करता है।



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परिणामवाद का अर्थ


"परिणामवाद" शब्द दो भागों से मिलकर बना है:


1. परिणाम: जिसका अर्थ है "परिवर्तन" या "रूपांतरण"।



2. वाद: जिसका अर्थ है "सिद्धांत"।




इस प्रकार, परिणामवाद का तात्पर्य है कि सृष्टि में हर कार्य (Effect) अपने कारण (Cause) का विकसित या रूपांतरित स्वरूप है। यह कारण-कार्य के स्वाभाविक और अनिवार्य संबंध को स्थापित करता है।



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परिणामवाद की विशेषताएँ


1. कारण और कार्य का रूपांतरण:


कार्य (Effect) अपने कारण (Cause) का रूपांतरण है। कार्य और कारण में एक अटूट संबंध होता है।


उदाहरण: दूध का दही में बदलना। दूध (कारण) रूपांतरित होकर दही (कार्य) बनता है।




2. स्वाभाविक प्रक्रिया:


परिणामवाद एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, जो सृष्टि में हर परिवर्तन को समझाने का प्रयास करता है।




3. अव्यक्त से व्यक्त की यात्रा:


कारण (Cause) में कार्य (Effect) पहले से ही मौजूद होता है, लेकिन वह अव्यक्त (Unmanifest) रूप में होता है। यह अनुकूल परिस्थितियों में व्यक्त (Manifest) होता है।




4. विकास का सिद्धांत:


परिणामवाद यह स्पष्ट करता है कि सृष्टि की हर वस्तु विकास और परिवर्तन की प्रक्रिया का हिस्सा है।






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परिणामवाद का सांख्य दर्शन में स्थान


सांख्य दर्शन परिणामवाद का एक प्रमुख समर्थक है। इसके अनुसार:


1. प्रकृति का परिणाम:


सृष्टि प्रकृति (Prakriti) के त्रिगुण (सत्त्व, रजस्, तमस्) में असंतुलन के कारण उत्पन्न होती है।


प्रकृति के विभिन्न परिणामों से महत्तत्त्व (बुद्धि), अहंकार, पंचमहाभूत, और अन्य तत्व उत्पन्न होते हैं।




2. कारण-कार्य सिद्धांत:


कार्य अपने कारण में पहले से ही अव्यक्त रूप में मौजूद होता है।


उदाहरण: बीज (कारण) में वृक्ष (कार्य) पहले से मौजूद होता है, जो समय और परिस्थितियों के अनुसार प्रकट होता है।




3. पुरुष और प्रकृति:


पुरुष (आत्मा) साक्षी मात्र है, और प्रकृति के कारण ही सृष्टि का विकास होता है। प्रकृति का यह विकास परिणामवाद के अनुसार होता है।






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परिणामवाद का वेदांत दर्शन में स्थान


वेदांत दर्शन, विशेषतः अद्वैत वेदांत, परिणामवाद को एक विशेष दृष्टिकोण से स्वीकार करता है।


1. ब्रह्म और जगत:


अद्वैत वेदांत के अनुसार, यह जगत ब्रह्म का परिणाम नहीं है, बल्कि माया का प्रकट स्वरूप है। अद्वैत वेदांत में इसे "विवर्तवाद" के रूप में समझाया गया है, जबकि विशिष्ट अद्वैत और द्वैत वेदांत परिणामवाद को मानते हैं।




2. ब्रह्म का परिणाम:


रामानुजाचार्य का विशिष्ट अद्वैत वेदांत यह कहता है कि यह जगत ब्रह्म का वास्तविक परिणाम है, जैसे दूध का दही में बदलना।






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परिणामवाद के प्रकार


परिणामवाद को विभिन्न दर्शनों में अलग-अलग रूप में समझा गया है:


1. वास्तविक परिणामवाद (Real Transformation):


सांख्य और विशिष्ट अद्वैत दर्शन इस प्रकार के परिणामवाद को मानते हैं।


उदाहरण: दूध का दही में रूपांतरण।




2. अव्यक्त-व्यक्त परिणामवाद (Unmanifest to Manifest):


यह मानता है कि कार्य पहले से ही कारण में निहित है और अनुकूल परिस्थितियों में प्रकट होता है।


उदाहरण: बीज से वृक्ष का उगना।




3. आत्मा और प्रकृति का परिणामवाद:


सांख्य दर्शन के अनुसार, प्रकृति का परिणाम ही सृष्टि है, जबकि पुरुष इसमें निष्क्रिय साक्षी मात्र है।






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परिणामवाद के उदाहरण


1. सोने का आभूषण बनना:


सोना (कारण) को सुनार द्वारा विभिन्न आभूषणों (कार्य) में बदला जाता है। सोने का अस्तित्व बना रहता है, लेकिन उसका रूप बदल जाता है।




2. दूध का दही बनना:


दूध (कारण) रूपांतरित होकर दही (कार्य) बनता है। यह परिणामवाद का स्पष्ट उदाहरण है।




3. बीज से वृक्ष का विकास:


बीज (कारण) में वृक्ष (कार्य) पहले से मौजूद होता है। समय और अनुकूल परिस्थितियों में वह प्रकट होता है।






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परिणामवाद और विवर्तवाद में अंतर


1. परिणामवाद (Parinamavada):


यह कहता है कि कार्य अपने कारण का वास्तविक रूपांतरण है।


उदाहरण: दूध का दही बनना।




2. विवर्तवाद (Vivartavada):


यह कहता है कि कार्य केवल कारण का आभासी (Illusory) रूप है। यह वास्तविक परिवर्तन नहीं है।


उदाहरण: रस्सी में साँप का भ्रम।






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परिणामवाद का महत्व


1. सृष्टि की प्रक्रिया को समझाना:


परिणामवाद के माध्यम से सृष्टि के विकास और परिवर्तन की प्रक्रिया को स्वाभाविक और तर्कपूर्ण तरीके से समझाया जाता है।




2. कारण-कार्य का वैज्ञानिक दृष्टिकोण:


परिणामवाद यह स्पष्ट करता है कि सृष्टि में हर कार्य अपने कारण के भीतर पहले से मौजूद होता है। यह सिद्धांत आधुनिक विज्ञान के विकास के विचार के अनुरूप है।




3. आध्यात्मिक और भौतिक दृष्टिकोण का समन्वय:


परिणामवाद यह दिखाता है कि भौतिक और आध्यात्मिक जगत का विकास स्वाभाविक है और इसे समझकर व्यक्ति जीवन के गूढ़ प्रश्नों का उत्तर पा सकता है।




4. योग और मोक्ष में उपयोग:


योग में प्रकृति के परिणामों (जैसे मन, बुद्धि) को नियंत्रित करके पुरुष (आत्मा) के सत्यस्वरूप को समझा जाता है।






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निष्कर्ष


परिणामवाद भारतीय दर्शन का एक अत्यंत तर्कसंगत और वैज्ञानिक सिद्धांत है, जो सृष्टि की उत्पत्ति और विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट करता है। यह सिद्धांत सांख्य दर्शन और वेदांत दर्शन में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। परिणामवाद हमें यह सिखाता है कि सृष्टि में हर परिवर्तन अपने कारण का विस्तार है और यह प्रक्रिया स्वाभाविक और अनिवार्य है। यह सिद्धांत न केवल दार्शनिक, बल्कि वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी आज के समय में प्रासंगिक है।



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