त्रिगुणवाद: भारतीय दर्शन का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 त्रिगुणवाद: भारतीय दर्शन का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत


त्रिगुणवाद भारतीय दर्शन, विशेषकर सांख्य दर्शन का एक प्रमुख और मौलिक सिद्धांत है। यह सिद्धांत प्रकृति (सृष्टि का मूल कारण) को तीन गुणों (सत्त्व, रजस्, तमस्) के रूप में विभाजित करता है। त्रिगुणवाद के अनुसार, सृष्टि और उसके सभी कार्य इन्हीं तीन गुणों के संतुलन या असंतुलन का परिणाम हैं। यह सिद्धांत केवल सांख्य दर्शन तक सीमित नहीं है, बल्कि भगवद्गीता, वेदांत और आयुर्वेद में भी इसका वर्णन मिलता है।



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त्रिगुणवाद का परिचय


1. त्रिगुण:


प्रकृति तीन गुणों से बनी है, जो इसके आधारभूत तत्त्व हैं। ये गुण सृष्टि के प्रत्येक वस्तु और क्रिया में विद्यमान रहते हैं:


1. सत्त्व (Purity, Balance): प्रकाश, ज्ञान, और शांति का गुण।



2. रजस् (Activity, Passion): क्रियाशीलता, उग्रता, और ऊर्जा का गुण।



3. तमस् (Inertia, Darkness): जड़ता, आलस्य, और अज्ञान का गुण।






2. संतुलन और असंतुलन:


जब ये तीनों गुण संतुलन में होते हैं, तो प्रकृति अव्यक्त (Unmanifest) रहती है।


त्रिगुणों का असंतुलन सृष्टि की उत्पत्ति और विकास का कारण बनता है।






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त्रिगुणों का विवरण


1. सत्त्व (ज्ञान और शांति का गुण):


यह गुण प्रकाश, शुद्धता और संतुलन का प्रतीक है।


इसका उद्देश्य शांति और ज्ञान को उत्पन्न करना है।


यह गुण आध्यात्मिक विकास और सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत है।



गुणधर्म:


प्रसन्नता, संतोष, विवेक, और स्पष्टता।


बुद्धि और चेतना का विकास।



उदाहरण:


सूर्य का प्रकाश, ध्यान, और ज्ञान की प्राप्ति।




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2. रजस् (क्रियाशीलता और उग्रता का गुण):


यह गुण क्रियाशीलता और उग्रता का प्रतीक है।


इसका उद्देश्य गति और परिवर्तन को उत्पन्न करना है।


यह इच्छा, कामना, और प्रतिस्पर्धा का कारण बनता है।



गुणधर्म:


बेचैनी, अस्थिरता, महत्वाकांक्षा, और गतिविधि।


भौतिक सुख और वैभव की इच्छा।



उदाहरण:


जीवन में परिवर्तन, संघर्ष, और क्रियाशीलता।




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3. तमस् (जड़ता और अज्ञान का गुण):


यह गुण जड़ता, आलस्य, और अज्ञान का प्रतीक है।


इसका उद्देश्य अवरोध और निष्क्रियता को उत्पन्न करना है।


यह मानसिक और शारीरिक जड़ता का कारण बनता है।



गुणधर्म:


अज्ञान, आलस्य, भ्रम, और निष्क्रियता।


नकारात्मकता और प्रतिरोध का विकास।



उदाहरण:


गहरी नींद, अज्ञानता, और जड़ता।




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त्रिगुणों का परस्पर संबंध


1. सह-अस्तित्व:


सत्त्व, रजस्, और तमस् एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। सृष्टि का हर कार्य इन्हीं तीन गुणों के परस्पर संबंध का परिणाम है।




2. असंतुलन से सृष्टि:


जब त्रिगुणों में असंतुलन होता है, तो प्रकृति से महत्तत्त्व, अहंकार, पंचमहाभूत, और अंततः सृष्टि का प्रकट होना आरंभ होता है।




3. संतुलन की स्थिति:


मोक्ष या आत्मसाक्षात्कार की अवस्था में सत्त्व गुण का प्राधान्य होता है, और रजस् तथा तमस् गुण निष्क्रिय हो जाते हैं।






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त्रिगुणवाद के दर्शन में स्थान


1. सांख्य दर्शन:


सांख्य दर्शन के अनुसार, त्रिगुण प्रकृति के मूलभूत गुण हैं। सृष्टि इन्हीं गुणों के असंतुलन से प्रकट होती है। पुरुष (आत्मा) त्रिगुणों से मुक्त है और मात्र साक्षी है।



2. भगवद्गीता:


भगवद्गीता (14वाँ अध्याय) में त्रिगुणों का गहराई से वर्णन किया गया है। यहाँ श्रीकृष्ण ने इन तीन गुणों को मानव स्वभाव और कर्म के निर्धारण में महत्वपूर्ण बताया है।


गीता (14.5):


"सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः। निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।"


सत्त्व, रजस्, और तमस् गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं और देह में स्थित आत्मा को बाँधते हैं।




3. आयुर्वेद:


आयुर्वेद में त्रिगुणों का उपयोग मानसिक स्वास्थ्य और स्वभाव को समझने के लिए किया जाता है।


सत्त्वप्रधान व्यक्ति शांति और स्वास्थ्यपूर्ण जीवन जीते हैं।


रजस् और तमस् का असंतुलन मानसिक विकारों का कारण बनता है।




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त्रिगुणों का प्रभाव


1. मानव स्वभाव पर:


सत्त्वप्रधान व्यक्ति: ज्ञान, संतोष, और आत्म-संयम से युक्त।


रजस् प्रधान व्यक्ति: महत्वाकांक्षी, उग्र, और अस्थिर।


तमस् प्रधान व्यक्ति: आलसी, अज्ञानी, और नकारात्मक।



2. जीवन के विभिन्न पहलुओं पर:


आहार: सत्त्व गुण शुद्ध, पौष्टिक भोजन का प्रतीक है; रजस् मसालेदार और उत्तेजक भोजन का; तमस् बासी और हानिकारक भोजन का।


कर्म: सत्त्व गुण सकारात्मक और निष्काम कर्म की प्रेरणा देता है; रजस् स्वार्थपूर्ण और लालच भरे कर्म की; तमस् आलस्य और अव्यवस्थित कर्म की।




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त्रिगुणों से मुक्ति (मोक्ष)


1. सत्त्व गुण की प्रधानता:


त्रिगुणों से मुक्ति पाने के लिए सत्त्व गुण को बढ़ाना आवश्यक है। यह ध्यान, साधना, और ज्ञान के माध्यम से होता है।




2. गुणातीत अवस्था:


त्रिगुणों से परे जाना (गुणातीत अवस्था) मोक्ष की अवस्था है, जहाँ आत्मा त्रिगुणों के बंधन से मुक्त हो जाती है।




3. भगवद्गीता (14.20):


"गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्। जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।"


जो व्यक्ति इन तीनों गुणों से ऊपर उठ जाता है, वह जन्म, मृत्यु, और दुखों से मुक्त होकर अमृतत्व को प्राप्त करता है।






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त्रिगुणवाद का व्यावहारिक उपयोग


1. आध्यात्मिक विकास:


त्रिगुणों को समझकर व्यक्ति अपने स्वभाव और कर्मों को सत्वप्रधान बना सकता है, जिससे आत्मा का विकास होता है।




2. स्वास्थ्य और आयुर्वेद:


मानसिक और शारीरिक संतुलन के लिए त्रिगुणों का ज्ञान आवश्यक है।




3. मानव जीवन में संतुलन:


त्रिगुणों को संतुलित रखकर व्यक्ति अपने जीवन को संतोषपूर्ण और सकारात्मक बना सकता है।






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सन्दर्भ


1. सांख्य दर्शन (कपिल मुनि):


त्रिगुणों का उल्लेख सांख्य दर्शन के मूल ग्रंथों में मिलता है, जहाँ प्रकृति के त्रिगुणात्मक स्वरूप को स्पष्ट किया गया है।




2. भगवद्गीता:


भगवद्गीता का 14वाँ अध्याय (गुणत्रयविभाग योग) त्रिगुणों का विस्तृत वर्णन करता है।




3. उपनिषद:


त्रिगुणों का उल्लेख श्वेताश्वतर उपनिषद (1.3) में मिलता है:


"त्रिगुणमयी प्रकृति"।





4. आयुर्वेद:


चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए त्रिगुणों का विश्लेषण किया गया है।






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निष्कर्ष


त्रिगुणवाद भारतीय दर्शन का एक अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जो सृष्टि और मानव स्वभाव को समझने का आधार प्रदान करता है। यह सिद्धांत प्रकृति के त्रिगुणात्मक स्वरूप के माध्यम से सृष्टि के कार्य


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