ज्ञान और वैराग्य का क्लेश-अपहरण |
नमो भगवते वासुदेवाय
भागवत-माहात्म्य
ज्ञान और वैराग्य का क्लेश-अपहरण
सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्ति हेतवे ।
तापत्रयविनाशाय
श्रीकृष्णाय वयं नुमः॥१॥
जिस समय शुकदेवजी का यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था, उन्हें संन्यास लेने के लिए घर से जाते देख उनके पिता, व्यासजी महाराज,
पुत्र-विरह से कातर हो पुकारने लगे--तुम कहाँ जा रहे हो
बेटा ” किन्तु शुकदेवजी कोई उत्तर नहीं दे सके, क्योंकि वे
परमज्ञान में पूर्ण तन्मय थे। ऐसे सर्वभूतहृदय भगवत्स्वरूप श्रीशुकदेव मुनि को मैं
नमस्कार करता हूँ।
एक बार मुनिवर शौनकजी ने नैमिषारण्य क्षेत्र में महामति
सूतजी से पूछा --“भक्ति और वैराग्य से प्राप्त विवेक द्वारा लोग किस प्रकार इस माया-मोह से अपना पीछा छुडा सकते हैं। कलि- काल में जीव प्रायः आसुरी स्वभाव के हो गये हैं, इन आर्त्त जीवों को परिशुद्ध बनाने का
सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है ” सूतजी ने कहा-“शौनक जी ! मैं तुम्हें सम्पूर्ण
सिद्धान्तों का सारतत्त्व सुनाता हूँ । मनुष्य के जन्म-जन्मान्तर के पुण्य के उदय
से ही उसे भागवत-शास्त्र का ज्ञान प्राप्त होता है। जब शुकदेवजी राजा परीक्षित को
यह कथा सुनाने के लिए सभा में विराजमान हुए, तब देवता उनके
पास अमृत का कलश लेकर आये और उन्होंने कहा- “आप कृपया यह अमृत-कलश लेकर बदले में हमें श्रीमद्भागवत-कथामृत का दान दीजिए ।”
परन्तु शुकदेवजी ने उन्हें भक्ति शून्य जानकर इस कथामृत का दान नहीं दिया।
भागवत को सात दिनों में सुनने की परम्परा का
वर्णन करते हुए व्यास जी नें सनकादि मुनीश्वर और नारद जी के संवाद की चर्चा की। एक
बार नारद जी विभिन्न लोकों का भ्रमण करते हुए वृन्दावन आये जहाँ पर एक स्त्री रुदन
कर रही थी और उसकी गोद में दो वृद्ध अचेत अवस्था में पड़े थे तथा विभिन्न स्त्रियाँ
उसको घेरकर बैठी थीं। नारद जी को पता चला कि ये भक्ति, ज्ञान, वैराग्य तथा गंगादि
नदियाँ विद्यमान हैं। भक्ति की चिन्ता को देखते हुए नारद जी ने कहा कि यह श्री भक्ति
ही मोक्ष को देने वाली है । जिनके हृदय में भगवती भक्ति का निवास है, उन्हें प्रेत, पिशाच, राक्षस या दैत्य स्पर्श भी नहीं कर सकते । भगवान तप; वेदाध्ययन, ज्ञान और कर्म आदि किसी भी साधन से वश
में नहीं किये जा सकते; वे केवल भक्ति से ही वश में होते हैं
। पूर्वकाल में भक्त का तिरस्कार करने वाले दुर्वासा ऋषि को भी बड़ा कष्ट उठाना
पड़ा था। व्रत, तीर्थ, योग, यज्ञ और ज्ञानचर्चा आदि बहुत से साधनों की कोई आवश्यकता नहीं, एकमात्र भक्ति ही मुक्ति देनेवाली है, यह विद्वानों
का निर्णय है।”
यह सुनकर भक्ति ने नारदजी से कहा--देवर्षि आप धन्य
हैं। आपकी मुझमें निश्चल प्रीति है। कृपया मेरे पुत्रों को जरा और रोग से छुडा
दीजिए ।” नारदजी करुणा से विगलित हो गए। उन्होंने वेद और गीता की ध्वनि से उन्हें
चैतन्य करने का यत्न किया ; किंतु अति अस्वस्थ होने के कारण वे नेत्र
भी न खोल सके । उनकी ऐसी अवस्था देख नारदजी को बड़ी चिंता हुई कि इनकी यह दशा कैसे
दूर हो ? उसी समय आकाशवाणी हुई-- “मुनि खेद मत करो, तुम्हारा यह उद्योग निस्संदेह सफल होगा। इसके लिए तुम एक सत्कर्म करो ? पर सत्करम शब्द का आशय नारदजी की समझ में नहीं आया। वैराग्य और ज्ञान को
वहीं छोड़, वे वहां से चल पड़े ओर एक 'तीर्थ
से दूसरे तीर्थ में जाकर वहां मिलनेवाले मुनियों से वह साधन पूछने लगे । उनकी उस
बात को सुन तो सब लेते ; किंतु निश्चयात्मक उत्तर कोई भी
नहीं देता था। इससे नारदजी बहुत चिन्तातुर हुए और उन्होंने तप करने का निश्चय
किया। इसी समय उन्हें सनकादि मुनीश्वर दिखाई दिये। नारदजी ने उनसे कहा -“महात्माओं
आप सभी-महान योगी, बुद्धिमान और विद्वान हैं तथा निरन्तर हरि
कीर्तन में तल्लीन रहते हैं। हरिः शरणम् का मन्त्र आपके मुख से हमेशा निकलता रहता
है। कृपा करके बतलाइये कि आकाश वाणी ने मुझे कौन-सा सत्कर्म करने को कहा है औ कौन-सा
साधन है मुने ! किस प्रकार उसका अनुष्ठान करना चाहिए । भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को किस व्यवस्था से सुख-लाभ हो सकता है ?” सनकादि ऋषियों ने कहा - देवर्षि चिन्ता न करें, ऋषियों ने संसार को अनेक
पथ दिखाये हैं; किन्तु वे सभी कष्टसाध्य हैं । द्रव्ययज्ञ,
तपोयज्ञ ओर ज्ञानयज्ञ - ये सब' तो स्वर्गादि
की प्राप्ति कराने वाले कर्म की ही ओर संकेत करते हैं। किंतु पंडितों ने
भक्ति-यज्ञ को ही सर्वश्रेष्ठ सत्कर्म (मुक्तिदायक) माना है। श्रीमदू- भागवत की महाध्वनि
सुनने मात्र से ही कलियुग-जनित सारे दोष नष्ट हो जाते हैं ।” नारदजी ने शंका की कि
जब उस कथा के प्रत्येक श्लोक और प्रत्येक पद में वेदों का ही सारांश है तो वे
श्रीमद्भागवत सुनने से कैसे क्लेश-मुक्त हो सकेंगे। इसपर सनकादि ने कहा-“श्रीमद्- भागवत की कथा
वेदों और उपनिषदों के सार-तत्व से बनी है ओर उनका निष्कर्ष होने के फलस्वरूप वह
अत्युत्तम है । जैसे दूध में घृत ओर ईंख में खांड व्याप्त हैं, किन्तु जब तक उन्हें अलग न कर दिया जाय, तबतक उनका
स्वाद नहीं मिलता । ऐसी ही दशा भागवत-शास्त्र की है। भगवान व्यासदेव ने भक्ति,
ज्ञान ओर वैराग्य की संस्थापना के लिए ही इसे वेदों के सार के रूप
में प्रकाशित किया है। श्रद्धापूर्वक एकाग्रचित्त होकर इसके श्रवणमात्र से मुक्ति
प्राप्त होती है । इस ग्रन्थ में अठारह हजार श्लोक और बारह स्कन्ध हैं तथा
श्रीशुकदेव और राजा परीक्षित का संवाद है। बहुत-से शास्त्र और पुराण सुनने से
व्यर्थ का भ्रम ही बढ़ता है। मुक्ति देने का हेतु एकमात्र भागवत-शास्त्र ही
पर्याप्त है। जिस घर में नित्यप्रति श्रीमदूभागवत की कथा होती है, वह तीर्थरूप हो जाता है और जो लोग उसमें रहते हैं, उनके
सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। फल की दृष्टि से इसकी समता गंगा, प्रयाग, काशी आदि तीर्थ भी नहीं कर सकते। कलियुग में बहुत दिनों तक चित्त की वृत्तियों को
वश में रखना, नियमों में बंधे रहना और किसी पुण्य-कार्य के
लिए दीक्षित रहना कठिन है, इसलिए सप्ताह-श्रवण की विधि ही श्रेष्ठ है। जो फल तप,
योग और समाधि से भी प्राप्त नहीं हो सकता, वह
सप्ताह-श्रवण से सहज में ही मिल जाता है ।” नारदजी ने सनकादि ऋषियों द्वारा श्रीमद्भागवत
का यह माहात्म्य सुनकर भक्ति! ज्ञान, ओर वैराग्य का क्लेश
दूर करने के लिए भागवत-शास्त्र के श्रवण का निश्चय किया। हरिद्वार के आनन्द नामक
सुरम्य धाम पर सनकादि ऋषि महात्मा नारद को श्रीमद्भागवत की महिमा ओर कथा सुनाने
लगे । जिस समय वे सनकादि मुनीश्वर इस प्रकार सप्ताह-श्रवण की महिमा का वर्णन कर
रहे थे, उस सभा में एक बड़ा आश्चर्य हुआ। वहां अपने दोनों पुत्रों
के साथ भक्ति बार-बार “श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे,
हे नाथ नारायण वासुदेव” का उच्चारण करती हुई अकस्मात् आ
पहुँची । यह देख नारदजी ने प्रसन्नतापूर्वक मुनीरवरों से कहा- “आज सप्ताह-श्रवण की मैंने यह बड़ी अलौकिक महिमा देखी। यहां के मनुष्य और
पशु-पक्षी भी निष्पाप हो गये हैं। अब कृपा कर यह तो बताइये कि इस कथा-रूपी सप्ताह-यज्ञ
के द्वारा किस प्रकार के मनुष्य पवित्र हो जाते हैं”
सनकादि मुनियों ने उत्तर दिया - जो लोग नित्यप्रति नाना प्रकार के पापकर्म किया करते हैं, वे भी इस कलियुग में सप्ताह-यज्ञ द्वारा पवित्र हो जाते हैं। नारदजी हम आपको इस विषय का एक प्राचीन इतिहास सुनाते हैं।”
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