Sooraj kumar tiwari, bhagwat katha maniyanv lucknow |
शत्रु को रण में जीतकर सीता और लक्ष्मण सहित प्रभु आ रहे हैं; देवता उनका सुंदर यश गा रहे हैं। ये वचन सुनते ही भरत सारे दुःख भूल गए। जैसे प्यासा आदमी अमृत पाकर प्यास के दुःख को भूल जाए।
आ हा क्या प्रेम है आज का समय होता तो रास्ते में ही उड़ा देते। इतना भी राज्य, एक राम थे ठोकर मार कर बन चले गए, एक भरत जैसा भाई है जो खड़ाऊं को सिंहासन पर विराजमान कर राज कर रहे हैं, धन एवं सत्ता लोलुपता किसी में नहीं, एक एक गांव का प्रधान भी पांच साल में स्कार्पियो से चलने लगता है। वह भी अपनी कुर्सी छोड़ना नहीं चाहता, साम दाम दण्ड भेद सब अपनाता है । वहीं सत्ता लोलुप आज भगवान श्री राम के आने के खुशी में दिपावली मना रहे हैं, सच पूछा जाए तो आज के सभी पर्व मनोरंजन के साधन भर है। थोड़ा चित्र कुट का भी दृश्य देख लेते हैं -
चर्तुर्दशे ही संपूर्ण वर्षे सद्मनि तु रघूत्तम।
न द्रक्ष्यामि यदि त्वां तु प्रवेक्ष्यामि हुताशन।।
भरत जी कहते हैं कि -
हे रघुकुल श्रेष्ठ। जिस दिन चौदह वर्ष पूरे होंगे उस दिन यदि आपको अयोध्या में नहीं देखूंगा तो अग्नि में प्रवेश कर जाऊंगा। भरत के मुख से ऐसे प्रतिज्ञापूर्ण शब्द सुनकर रामजी ने भरत को आश्वस्त करते हुए कहा था- तथेति प्रतिज्ञाय- अर्थात ऐसा ही होगा।
धन्य है भरत।
खैर छोड़ो इन सब बातों पर चर्चा करना आज कि परिस्थितियों में उचित नहीं है।
हम दिपावली पर चर्चा करते हैं । वैसे मैं साइंस का विधार्थी नहीं रहा हूं लेकिन कोशिश करते हैं कुछ त्रुटी होगी तो संभाल लेना।
दिवाली की परम्परा रही है कि एक दिया जलाओ और उससे फिर सारे घर का दिया जलाओ। यह मात्र परंपरा है या कि इसके पीछे कोई विज्ञान है?
इसके पीछे एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक विज्ञान है। हमारे मन का मात्र एक छोटा हिस्सा चेतन होता है बाकी लगभग नौ हिस्सा अचेतन होता है। चैतन्यता की यात्रा में इसी चेतन मन के प्रकाश से बाकी अचेतन मन के कोने कोने में चैतन्यता का प्रकाश फैलाया जा सकता है। और कोई उपाय नहीं है। अचेतन मन इतना विशाल होता है कि उसमें जन्मों जन्मों की न भी मानें तो कम से कम इस जन्म की समस्त स्मृति उपस्थित रहती है। और हमारा सारा जीवन उसी स्मृति और कल्पित भविष्य में भटकते हुए बीतता है। यही माया है। माया अर्थात हमारा काल्पनिक संसार।
चेतना का दिया शनै: शनै: मन के एक कोने से दूसरे कोने तक फैल सके और अंततः सारा अचेतन मन होश से भर सके, चेतना से भर सके, यह उसी का प्रतीक है एक दिए से सारे दियों को जलाया जाना।
परांचि खान व्यत्रिणवत स्वम्भू परान पश्यति न अन्तरातमन।
कश्चित धीरः प्रत्यक्तामन एक्षत आवृत्तचक्षु: अमृतंनिच्छन।
हमारी इंद्रियां इस तरह व्यवस्थित हैं कि वह बाहर ही देखती हैं अपने अंदर नहीं झांकती। कोई कोई धैर्यशाली व्यक्ति ऐसा होता है जो अपने अंदर झांकने हेतु अपनी आँखों को बन्द करता है और उस स्रोत को खोजता है जिसे अमृत कहते हैं या आत्मा कहते हैं।
वस्तुतः हमारी इंद्रियां हैं इस संसार में हमारे शरीर को सुरक्षित रखने हेतु। और अपने चारों ओर की घटनाओं के प्रति संवेदनशील बनाये रखने हेतु। एक दृष्टांत देता हूँ। एक बीमारी होती है neuropathy जिसमें चमड़ी की संवेदना शून्य हो जाती है। ऐसे लोगों को गंभीर खतरा रहता है कि कहीं ऐसे घाव न बन जाएं जो भरे ही न।
तंत्रिकाओं में होने वाली क्षति के कारण शरीर के किसी एक या ज़्यादा हिस्सों में दर्द, सुन्नता, झुनझुनी, सूजन, या मांसपेशियों में कमज़ोरी होना. यह एक तंत्रिका संबंधी समस्या है. यह आमतौर पर हाथों या पैरों में शुरू होती है और समय के साथ बढ़ती जाती है।
कभी कभी ऐसे मरीजों में अंग भंग भी करने की आवश्यकता पड़ती है प्राण बचाने हेतु।
राम का घर लौटना और दीपावली मात्र एक ऐतिहासिक घटना नहीं है। ऐतिहासिक घटना होती तो हम हजारों वर्षों से इस त्योहार को न मना रहे होते।
यह एक आध्यात्मिक रहस्य का प्रतीक है। राम घर लौट आये लेकिन क्या हम घर लौट सके? बाहर दिया जला लिया लेकिन क्या हमारे अंदर उजाला फैला? इस संसार में जन्म लेते ही हमारी दौड़ बाहर की ओर शुरू हो जाती है।
बाहर अर्थात संसार। हमारी संसार की यात्रा शुरू होती है तो वह तब तक जारी रहती है जब तक यह माटी की शरीर माटी में नहीं मिल जाती। इसीलिये दीपावली का दिया माटी का बना होता है। और उसमें दिया बाती जलाना इस बात का प्रतीक है कि इस माटी की देह में भी प्रकाश का दिया जल सकता है बशर्ते कि संसार की ओर बहती ऊर्जा की दिशा को बदलकर हम अंतर्यात्रा कर सकें।
अपने उस स्रोत को जानने का प्रयत्न कर सकें जिसे चेतना कहते हैं। इसी को राम जी का घर लौटना कहते हैं।
दिपावली की ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएं।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्॥
thanks for a lovly feedback