देवता और दानव

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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देवता और दानव दोनों को ही ब्रह्मा जी ने एक बार अपने यहां भोजन के लिए निमन्त्रण दिया। दोनों प्रसन्नचित्त से ब्रह्मलोक में पहुंचे ,  अपनी-अपनी पंक्ति में दोनों दल बैठ गये, तब सबके आगे सोने की तिपाइयों पर अनेक प्रकार के मणिमय स्वर्ण पात्रों में छप्पन प्रकार का भोजन परसा गया ।

  जब वे भोजन करने लगे , तब ब्रह्मा जी ने रोका , उन्होंने अनुचरों को आज्ञा दी कि इन दोनों दलों के हाथ सीधे करके कलाई से लेकर भुजा तक बांस की खपच्चियां बांध दी जाये ।

 अनुचरों ने ऐसा ही किया , तब ब्रह्मा जी ने भोजन की आज्ञा दी ।

  अब दोनों दल पात्र से ग्रास उठाते , किन्तु हाथ बन्धें होने के कारण प्रयास करने पर भी हाथ मोड़कर मुख में न डाल पाये ।

 मुख फैलाते , ग्रास ऊपर उछालते , किन्तु निष्फल हो जाता ; उनके कपड़े भी खराब हो गये ।

 चूंकि देवता देश-काल-परिस्थिति के अनुसार विचार करने में दक्ष हैं , इसीलिए उन्होंने विचार किया कि हम अपने सामने का भोजन अपने मुख में नहीं डाल सकते , किन्तु दूसरे के मुख में डाल सकते हैं ।

 ऐसा विचार करके दो-दो देवता आमने-सामने बैठकर एक-दूसरे को भोजन खिलाने लगे , जिससे उनका पेट भर गया।

  देवता शब्द 'दिवु' धातु से बना है , यह अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है , किन्तु हिन्दी व्याकरण के अनुसार देवता शब्द का अर्थ खिलाकर खाने वाला होता है, और असुर लेना जानते हैं , देना नहीं , इसीलिए वे लेवता हैं । लेने के साथ ही देना भी जो जानते हैं , वे देवता हैं । असुर अपना पेट भरना जानता है , दूसरे का नहीं। दूसरे शब्दों में -- जिसे अपने भाग से कभी सन्तोष नहीं होता , दूसरे का भी भाग छीनकर खाते हैं , ऐसा स्वार्थी जीव असुर है ।

  संस्कृत में 'असुक्षेपणे रक्षणेच' धातु से असुर शब्द निष्पन्न होता है , अर्थात् जिनको प्राण-वायु को फेंकने या रक्षा करने की चिन्ता निरन्तर बनी रहती है , वे असुर हैं । 

 इनका स्वभाव ही कारण है कि इन्होंने देवताओं को एक-दूसरे को खिलाते देख कर भी ऐसा नहीं किया । 

 वे रसगुल्ला , कालाजमुन , बर्फी आदि ऊपर फेंककर मुँह से पकड़ने का प्रयास करते , किन्तु कोई वस्तु मुँह में नहीं गई और वे भूखे ही उठ गये ।

 कुछ लोग इस दृष्टान्त पर आक्षेप कर सकते हैं कि देवता भोजन नहीं करते , वे भोजन को देखकर या सूंघकर ही तृप्त हो जाते हैं , फिर देवताओं को भोजन करने की कहानी क्यों सुना रहे हो ?

तो इसका समाधान यह कि --- शास्त्र दृष्टि से विचार करने पर जिसने मनुष्य शरीर से विशेष पुण्य करके स्वर्गीय दिव्य सुगन्धि-प्रधान कमल के पुष्प से जन्म प्राप्त किया है , यह देवताओं में भी योनि-विशेष है , जो भोजन नहीं करते , दर्शन मात्र से तृप्त होते हैं । 

 श्री मधुसूदन सरस्वती जी महाराज ने श्रीमद्भगवद्गीता के सोहलवें अध्याय के प्रारम्भ से छः श्लोकों तक की टीका करते हुए सत्त्व-रज-तम तीन गुणों के कारण मनुष्यों को भी तीन प्रकार का बतायें हैं । 

सत्त्व-प्रधान मनुष्य देवता , रजोगुण-प्रधान असुर व तमोगुण-प्रधान राक्षस ।

राक्षस अपना सर्वस्व रहे या जाये ; किन्तु दूसरों का निरन्तर अनिष्ट चाहते हैं , वे लोगों का जीना कठिन कर देते हैं ।

असुर रजोगुण-प्रधान होते हैं , अपने शरीर-इन्द्रियों तथा प्राणों को कष्ट नहीं देना चाहते ।

 यदि कोई उनका अनिष्ट करता है , तो उनकी हिंसा करने में उन्हें कोई कष्ट नहीं होता , उन्हें बस अपनी ही चिन्ता होती है ।

 बता चुके हैं कि देव शब्द 'दिव्य' धातु से बना है , जो क्रीड़ा, जीतने की इच्छा, स्तुति, मोदन आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है ।

 अर्थात् जिनके मन-प्राण आदि में विशेष ज्ञान रूपी प्रकाश रहता है तथा शरीर में अग्नितत्त्व की प्रधानता होती है , सभी लोकों में आने-जाने की सामर्थ्य होती है , परोपकारी होते हैं , थोड़े-से-थोड़े में संतोष करके अधिक-से-अधिक देने की इच्छा रखते हैं , उन्हें देवता कहा जाता है ।

 परोपकारादि गुण मनुष्य में भी देवताओं के लक्षण हैं , जैसे भूदेव शब्द ब्राह्मण के लिए प्रयुक्त होता है , उन्हें पृथ्वी का देवता माना जाता है ।

अब इस दृष्टान्त का तात्पर्य समझते हैं ---

 जिस तुरीय में पहुँचने पर ब्रह्म ही प्रकाशित होता है , अनुभूति में आता है , ऐसा लोक ही ब्रह्मलोक है ।

 ब्रह्म के अतिरिक्त "नेह नानास्ति किंचन" वहां पर साधन चतुष्टय सम्पन्न अधिकारी शिष्य श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरुओं के महावाक्य के श्रवण-मनन-निदिध्यासन करने वाला शिष्य ही पहुँच सकता है ।ब्रह्माकार वृत्ति ही अनेक प्रकार का भोजन है ।

 वहां पर अधिकारी तथा अनाधिकारी की परीक्षा के लिए पंच ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त जीवत्त्व ही बहिर्मुख इन्द्रियों पर विषय-वासना रूपी खपच्चियां बनाकर बांध दी जाती है ।

 तब अधिकारी मुमुक्षु जीवात्मा परमात्मा की अपरोक्ष अनुभूति वृत्ति से आत्मा में ही सन्तुष्ट होता है , किन्तु बहिर्मुखी वुभुक्षु रूपी असुर पंच विषयों के बन्धन में पड़ा हुआ परमानन्द रूपी आत्म-सन्तुष्टि रूपी भोजन से वंचित रह जाता है ।

 कहने का अभिप्राय यह कि इस दृष्टान्त में मुमुक्षु व वुभुक्षु की चर्चा है..!

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