Ram Krishna paramhans ji |
बंगाल के एक गाँव में धार्मिकता और ईश्वर के प्रति श्रद्धा के माहौल में पालन-पोषण होने की वजह से बचपन से ही उनके मन में ईश्वर दर्शन की अभिलाषा थी।
मानवता के पुजारी रामकृष्ण परमहंस को बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं। सात वर्ष की आयु में गदाधर के भौहों के मध्य एक फोड़ा हुआ। चिकित्सक ने कहा कि बेहोश करके फोड़े को चीरना होगा। बालक ने कहा कि बेहोश करने की जरूरत नहीं, ऐसे ही काटिए, मैं हिलूंगा नहीं।
सात वर्ष की अल्पायु में ही गदाधर के सर से पिता का साया उठ गया।
ऐसी विपरीत परिस्थिति में पूरे परिवार का भरण-पोषण कठिन होता चला गया। आर्थिक कठिनाइयां आईं लेकिन बालक गदाधर का साहस कम नहीं हुआ। इनके बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्यायकलकत्ता (कोलकाता) में एक पाठशाला के संचालक थे। वे गदाधर को अपने साथ कोलकाता ले गए। जहां पर कुछ दिनों बाद रानी रासमणि के दक्षिणेश्वर मन्दिर में पूजा के लिये नियुक्त कर दिए गए। यहीं उन्होंने माँ महाकाली के चरणों में अपने को उत्सर्ग कर दिया। वे घंटों ध्यान करते और माँ की भक्ति में ऐसे लीन रहने लगे कि लोग उन्हें पागल समझते। वे घंटों ध्यान करते और माँ के दर्शनों के लिये तड़पते। एक दिन अर्धरात्रि को जब व्याकुलता सीमा पर पहुंची, उन जगदम्बा ने प्रत्यक्ष होकर कृतार्थ कर दिया। गदाधर अब परमहंस रामकृष्ण ठाकुर हो गये। इसी दौरान एक वृद्धा संन्यासिनी ने परमहंस जी से अनेक तान्त्रिक साधनाएँ करायीं। उनके अतिरिक्त तोतापुरी नामक एक वेदान्ती महात्मा का भी परमहंस जी पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। उनसे परमहंस जी ने अद्वैतज्ञान का सूत्र प्राप्त किया। उनकी महत्ता उनके त्याग, वैराग्य, पराभक्ति और उस अमृतोपदेश में है, जिससे सहस्त्रों प्राणी तार्थ हुए, जिसके प्रभाव से ब्रह्मसमाज के अध्यक्ष केशवचन्द्र सेन जैसे विद्वान भी प्रभावित थे। जिस प्रभाव एवं आध्यात्मिक शक्ति ने नरेन्द्र जैसे नास्तिक, तर्कशील युवक को परम आस्तिक, भारत के गौरव का प्रसारक स्वामी विवेकानन्द बना दिया। उनकी उपदेश शैली सरल और भावग्राही थी। वे एक छोटे दृष्टान्त में पूरी बात कह जाते थे। स्नेह, दया और सेवा के द्वारा ही उन्होंने लोक सुधार की सदा शिक्षा दी। उन्होंने भारतीय विचार एवं संस्कृति में अपनी पूर्ण निष्ठा जताई। वे धर्मों में सत्यता के अंश को मानते थे।
रामकृष्ण जी ने मूर्तिपूजा को ईश्वर प्राप्ति का साधन अवश्य माना, किन्तु उन्होंने चिह्न एवं कर्मकाण्ड की तुलना में आत्मशुद्धि पर अधिक बल दिया।
बंगाल में बाल विवाह की प्रथा है। गदाधर का भी विवाह बाल्यकाल में हो गया था। उनकी बालिका पत्नी शारदामणि जब दक्षिणेश्वर आयीं तब गदाधर वीतराग परमंहस हो चुके थे। माँ शारदामणि का कहना है- ठाकुर के दर्शन एक बार पा जाती हूँ, यही क्या मेरा कम सौभाग्य है? परमहंस जी कहा करते थे- जो माँ जगत का पालन करती हैं, जो मन्दिर में पीठ पर प्रतिष्ठित हैं, वही तो यह हैं। ये विचार उनके अपनी पत्नी माँ शारदामणि के प्रति थे। वर्ष 1859 में उनका विवाह शारदा देवी से हो गया. विवाह के समय शारदा देवी की आयु 14 वर्ष और रामकृष्ण की 23 वर्ष थी। शारदा देवी 18 वर्ष की आयु में रामकृष्ण के पास दक्षिणोर मंदिर पहुंची। शारदा देवी जब रामकृष्ण परमहंस के पास आई उस समय उन्होंने तपस्वी के रूप में जीवन व्यतीत करना शुरू कर दिया था। रामकृष्ण अपनी सहधर्मिणी को माँ जगदम्बा मानकर उनकी पूजा करते थे। उन दोनों का मिलन केवल आध्यात्मिक स्तर पर ही रहा। श्री रामकृष्ण ने शारदादेवी को गृहस्थी से लेकर ब्रहृमज्ञान तक सभी प्रकार से शिक्षित किया। रामकृष्ण की तरह शारदादेवी भी आध्यात्मिकता के सर्वोच्च शिखर तक पहुँची। शारदादेवी को आज भक्तगण माँ शारदा कहकर पुकारते हैं। रामकृष्ण की दृष्टि में पत्नी के समीप रहते हुए भी जिसके विवेक और वैराग्य अक्षुण्ण बने रहते हैं उसी को वास्तविक रूप में बह्मा में प्रतिष्ठित माना जाता है। स्त्री और पुरुष दोनों को ही जो समान आत्मा के रूप में देखे और तदनुसार आचरण करे उसी को वास्तविक ब्रह्मज्ञानी माना जा सकता है।
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