महालक्ष्मी मंदिर, कोल्हापुर महाराष्ट्र

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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Mahalaxmi temple, kolhapur
Mahalaxmi temple, kolhapur 


 पुराणों में वर्णित 108 पीठों में से एक और महाराष्ट्र में स्थित देवी के साढ़े तीन पीठों में से एक।

 इस मंदिर का निर्माण चालुक्य राजा कर्णदेव ने 634 ईस्वी में करवाया था। मंदिर का निर्माण पहली बार चालुक्य वंश के दौरान किया गया था। पुराण, कई जैन ग्रंथ, ताम्रपत्र और कई दस्तावेज मिले हैं जो अंबाबाई मंदिर की प्राचीनता को साबित करते हैं और कोल्हापुर की अंबाबाई सही मायने में पूरे महाराष्ट्र की कुलस्वामिनी मानी जाती हैं। 

 कहा जाता है कि जब मंदिर को मुगलों ने नष्ट कर दिया था, तब देवी की मूर्ति को पुजारी ने कई सालों तक छिपा कर रखा था। बाद में ई. में संभाजी महाराज के शासनकाल में। मंदिर को 1715 से 1722 की अवधि के दौरान पुनर्जीवित किया गया था। कारीगरी में अंतर के लिए अच्छी तरह से नक्काशीदार दीवारों और सादे ऊपरी शिखर का हिसाब हो सकता है।

 हर साल जनवरी-फरवरी में और नवंबर में सूर्यास्त के समय महालक्ष्मी के मंदिर में एक बहुत ही असाधारण घटना का अनुभव होता है। वह है :-

1. 31 जनवरी (और 9 नवंबर): सूर्य की किरणें दरवाजे से प्रवेश करती हैं और सीधे महालक्ष्मी की मूर्ति के चरणों पर पड़ती हैं।

2. 1 फरवरी (और 10 नवंबर): सूर्य की किरणें देवी की छाती तक पहुंचती हैं। 3. 2 फरवरी (और 11 नवंबर): डूबते सूरज की किरणें देवी के पूरे शरीर पर पड़ती हैं।

 इस पर्व को महालक्ष्मी का किरोनोत्सव कहा जाता है। इस पर्व को बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है।


 कोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिर की कथा

  राजा दक्ष के यज्ञ में सती ने अपनी आहुति दी और भगवान शंकर उनकी देह कंधे पर लिए सारे ब्रह्मांड में घूमे। तब विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती की देह के जो भाग किए, वे पृथ्वी पर 108 जगह गिरे। इनमें आँखें जहाँ गिरी वहाँ लक्ष्मी प्रकट हुईं। करवीर यानी कोल्हापुर देवी का ऐसा पवित्र स्थान है जिसे दक्षिण की काशी माना जाता है। आमतौर पर किसी भी तीर्थस्थान को देवी या देवता के नाम से जाना जाता है, लेकिन कोल्हापुर और करवीर यह राक्षस के नाम से जाना जाता है।

  इस स्थान के बारे में कहा जाता है कि विष्णु की नाभि से उत्पन्न ब्रह्मा ने तमोगुण से युक्त गय, लवण और कोल्ह ऐसे तीन मानस पुत्रों का निर्माण किया। बड़े पुत्र गय ने ब्रह्मा की उपासना कर वर माँगा कि उसका शरीर देवपितरों तीर्थ से भी अधिक शुद्ध हो और ब्रह्माजी के तथास्तु कहने के साथ गय अपने स्पर्श से पापियों का उद्धार करने लगा। यम की शिकायत पर देवताओं ने बाद में उसका शरीर यज्ञ के लिए माँग लिया था।

  केशी राक्षस के बेटे कोल्हासुर के अत्याचार से परेशान देवताओं ने देवी से प्रार्थना की। श्री महालक्ष्मी ने दुर्गा का रूप लिया और ब्रह्मास्त्र से उसका सिर उड़ा दिया। कोल्हासुर के मुख से दिव्य तेज निकलकर सीधे श्री महालक्ष्मी के मुँह में प्रवेश कर गया और धड़ कोल्हा (कद्दू) बन गया। अश्विन पंचमी को उसका वध हुआ था। मरने से पहले उसने वर माँगा था कि इस इलाके का नाम कोल्हासुर और करवीर बना रहे। समय के साथ कोल्हासुर से कोल्हापुर हुआ, लेकिन करवीर वैसा ही कायम रहा।

  एक अन्य मान्यता के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि तिरुपति यानी भगवान विष्णु से रूठकर उनकी पत्नी महालक्ष्मी कोल्हापुर आईं। इस वजह से आज भी तिरुपति देवस्थान से आया शालू उन्हें दिवाली के दिन पहनाया जाता है। कोल्हापुर की श्री महालक्ष्मी को करवीर निवासी अंबाबाई के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ दीपावली की रात महाआरती में माँगी मुराद पूरी होने की जन-मान्यता है। अश्विन शुक्ल प्रतिपदा यानी घटस्थापना से उत्सव की तैयारी होती है। पहले दिन बैठी पूजा, दूसरे दिन खड़ी पूजा, त्र्यंबोली पंचमी, छठे दिन हाथी के हौदे पर पूजा, रथ पर पूजा, मयूर पर पूजा और अष्टमी को महिषासुरमर्दिनी सिंहवासिनी के रूपों में देवी का उत्सव दर्शनीय होता है।

मंदिर से जुड़े कुछ रोचक तथ्य

 कहा जाता है कि इस मंदिर में बेशकीमती खजाना छिपा है। तीन साल पहले जब इसे खोला गया तो यहां सोने, चांदी और हीरों के ऐसे आभूषण सामने आए जिसकी बाजार में कीमत अरबों रुपए में हैं। खजाने में सोने की बड़ी गदा, सोने के सिक्कों का हार, सोने की जंजीर, चांदी की तलवार, महालक्ष्मी का स्वर्ण मुकुट, श्रीयंत्र हार, सोने की चिड़िया, सोने के घुंघरू, हीरों की कई मालाएं, मुगल आदिल शाही, पेशवा काल के जेवरात मिले थे।

  इतिहासकारों के मुताबिक, कोल्हापुर के महालक्ष्मी मंदिर में कोंकण के राजाओं, चालुक्य राजाओं, आदिल शाह, शिवाजी और उनकी मां जीजाबाई तक ने चढ़ावा चढ़ाया है। 

  मंदिर की सुरक्षा पुख्ता कर सीसीटीवी कैमरों की जद में इस खजाने की गिनती पूरे 10 दिन तक चली थी। खजाने की गिनती के बाद आभूषणों का बीमा करवाया गया था। इससे पहले मंदिर के खजाने को 1962 में खोला गया था।

  मंदिर के बाहर लगे शिलालेख से पता चलता है कि यह 1800 साल पुराना है। शालि वाहन घराने के राजा कर्णदेव ने इसका निर्माण करवाया था, जिसके बाद धीरे-धीरे मंदिर के अहाते में 30-35 मंदिर और निर्मित किए गए। 27 हजार वर्गफुट में फैला यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में शुमार है। आदि शंकराचार्य ने महालक्ष्मी की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की थी।

 नहीं गिने जा सके इसके खंभे

  इस मंदिर को लेकर कहा जाता है कि इस मंदिर में स्थित खंभों से एक ऐसा रहस्य जुड़ा है जिसे सुलझाने में विज्ञान भी नाकाम साबित हुआ है। मंदिर के चारों दिशाओं में एक-एक दरवाजा मौजूद है और इसके खंभों को लेकर मंदिर प्रशासन का दावा है कि आज तक इन्हें कोई गिन नहीं सका है।

  मंदिर प्रशासन की मानें तो कई बार लोगों ने इन्हें गिनने की कोशिश की लेकिन जिसने भी ऐसा किया उसके साथ कोई न कोई अनहोनी घटना देखने को मिली है। विज्ञान भी इस रहस्य से पर्दा उठाने में नाकाम साबित हुआ है। कैमरे की सहायता से इन्हें काउंट करने का प्रयास हुआ लेकिन वह भी नाकाम साबित हुआ।

 मंदिर में और क्या है विशेष

 कहा जाता है कि देवी सती के तीनों नेत्र यहां गिरे थे। यहां भगवती महालक्ष्मी का निवास माना जाता है। मंदिर की सबसे बड़ी खासियत यह है कि साल में एक बार सूर्य की किरणें देवी की प्रतिमा पर सीधे पड़ती हैं। बड़े पत्थरों को जोड़कर तैयार मंदिर की जुड़ाई बगैर चूने के की गई है। मंदिर में श्री महालक्ष्मी की तीन फुट ऊंची, चतुर्भुज मूर्ति है। ऐसा कहा जाता है कि तिरुपति यानी भगवान विष्णु से रूठकर उनकी पत्नी महालक्ष्मी कोल्हापुर आईं थी। इस वजह से आज भी तिरुपति देवस्थान से आया शाल उन्हें दीपावली के दिन पहनाया जाता है। कोल्हापुर की श्री महालक्ष्मी को करवीर निवासी 'अंबाबाई' के नाम से भी जाना जाता है। यहां दीपावली की रात महाआरती में मांगी मुराद पूरी होने की जन-मान्यता है। 

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